यथार्थवाद के बगैर राजनीति स्थिर नहीं हो सकती। अरस्तू का यह सूत्र आज की वैश्विक राजनीति का सच है। खासकर उन देशों में जहां सत्ता के लिए हर वक्त खींचतान वाली राजनीति चलती है। यह राजनीति संविधान और अवाम के सामूहिक हित की बात करती है, लेकिन हकीकत में यह सब राजसत्ता हासिल करने के लिए होती है। स्थिरता इसका उद्देश्य नहीं होती। वहीं वक्त और बाजार राजनीति के औजार जैसे हैं। जब जैसी जरूरत होती है, ये अपने तेवर के साथ बदल जाते हैं। एक वक्त था राजनीति और बाजार धर्म के अधीन हुआ करते थे। समय बदला और धर्म तथा बाजार राजनीति के अधीन हो गए। आज धर्म और राजनीति बाजार के अधीन दिखाई पड़ते हैं। वैश्वीकरण ने बाजार को इतनी अधिक ताकत दे दी है कि राजसत्ता और धर्म भी इनके अधीन बने रहने में ही अपना हित देखने के लिए मजबूर हो गए हैं।

वैश्वीकरण के बाद दुनिया भर में हुए तमाम बदलावों में एक बदलाव व्यक्ति, परिवार और समाज की आपसी पूरकता में गिरावट भी शामिल है। इसका परिणाम यह हुआ कि हर व्यक्ति अमीर और ताकतवर बनने के लिए संसाधनों को बटोरने में लग गया। वह अपना रोब समाज पर दिखाने लगा। दूसरी तरफ, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली कहावत राजसत्ता और बाजार में चरितार्थ होने लगी। आज बाजार ‘लाठी’ भी है और ‘भैंस’ भी। इसलिए उसे चुनौती देने वाली कोई दूसरी ताकत नहीं है। राजसत्ता उसे अपना मुंह फैलाने और स्वर्णिम अवसर देने के लिए अपने देश के वित्तीय कानूनों में संशोधन करने में कोई संकोच नहीं करती है। गौरतलब है कि वैश्वीकरण के बाद विदेशी पूंजी के लिए भारत में सत्तासीन केंद्र सरकारें तमाम ऐसे संशोधन वित्तीय कानूनों में कर चुकी हैं, जिनके भावी परिणामों को लेकर चिंता जताई गई है।

इस युग सत्य को नहीं नकार सकते कि हम बाजार के किसी न किसी रूप के प्रभाव में हैं। हमारी अपनी हैसियत महज झूठा दंभ दिखाने तक सीमित है। अब सवाल उठता है कि बाजार किनके हाथ में है? क्या बाजार की सर्वोच्चता को कम नहीं किया जा सकता? दरअसल, बाजार पूंजीवादी तंत्र का आधार भी है और व्यवहार भी। गौरतलब है पूंजीवाद की अहमियत और शक्ति विश्व की सभी तरह शक्तियों में सबसे अधिक है। इसलिए इसको चुनौती देना लगभग असंभव है। दुनिया के जो लोकतांत्रिक देश हैं, वहां भी पूंजीवाद और बाजारवाद ही राजसत्ता और धर्म सत्ता की स्थिति तय करते हैं। इसलिए वे बाजार-तंत्र को कभी चुनौती देती नहीं दिखाई पड़ते।

जब सोवियत संघ का विघटन हुआ था, तब से लेकर अब तक मार्क्सवाद को अपनी राजनीति का आधार मानने वाले रूस और चीन भी बाजार-तंत्र और पूंजीवादी शक्तियों को किसी न किसी रूप में पोषित कर रहे हैं। इसलिए अब यह माना जा रहा है कि वैश्वीकरण और उदारीकरण पूंजीवाद तथा बाजारवाद को सुदृढ़ करने के लिए ही अपनाए गए। इसका उद्देश्य व्यापार को पारदर्शी और समावेशी बनाना तो एक बहाना है। आज हालत यह है कि दुनिया के तकरीबन सभी मुल्क वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण में ही अपना हित देख रहे हैं।

बाजार का एक नियम है-मुनाफा कमाना। और मुनाफा कमाने के लिए जो भी करने की जरूरत हो, उसे वह करता है। नब्बे के दशक में जब वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों को दुनिया के तमाम देशों ने बिना किसी हो-हल्ला के अपना लिया, तो इसके पीछे सबसे बड़ी वजह बहुराष्ट्रीय निगमों के जरिए देशों पर बनाया गया अप्रत्यक्ष दबाव माना गया। आज किसी भी देश में हर जगह इनका असर राजसत्ता पर दिख जाएगा।
दुनिया के कई देशों में वहां के राष्ट्र प्रमुख किसी न किसी पूंजीपति घराने से ताल्लुक रखते हैं। उन देशों में समता, न्याय, अधिकार और समानता की बात वहां के संविधान और कानून में है, लेकिन व्यवहार में पूंजीवादी व्यवस्था ही दिखाई देती है। इस व्यवस्था का मतलब अर्थ का केंद्रीयकरण और सत्ता पर पूंजीवादियों का एकाधिकार है।

अपवाद स्वरूप कुछ देशों को छोड़ दिया जाए, तो ज्यादातर देशों में पूंजीवादी व्यवस्था से ही राजसत्ता संचालित होती हैं। यही कारण है कि गरीबों की हालत में कोई सुधार दिखाई नहीं देता है। मार्क्स, लेनिन और माओ के समता के विचार में जिस क्रांति की बात कही जाती है, वह महज नारों और भाषणों तक सीमित रही है। यही वजह है कि पूंजीवादी और बाजारवादी प्रवृत्तियों और शक्तियों को फैलने से आज तक नहीं रोका जा सका है। पिछले कुछ दशकों में विश्व व्यापार संगठन के उदय के बाद एक नई तरह की पूंजीवादी और बाजारवादी शक्तियां खुले व्यापार और उदार व्यापार के नाम पर पूंजीवाद और बाजारवाद को अधिक शक्तिशाली बनाने का कार्य किया है। हैरान करने वाली बात यह है कि चीन, रूस और कोरिया ने भी विश्व व्यापार संगठन में शामिल होकर बाजारवाद को खुले मन से स्वीकार किया।

रूस से शीतयुद्ध खत्म होने के बाद अमेरिका ने जिस तरह से अपना एकछत्र राज दुनिया में कायम किया, उससे बाजारवादी प्रवृत्तियों और शक्तियों को समाज के साथ खुल कर खेलने की छूट मिली। आज हालत यह हो गई है कि बाजारवाद के धुर विरोधी मार्क्स और लेनिन को अपना आदर्श मानने वाले देश किसी न किसी रूप में बाजारवादी शक्तियों के आगे मौन हैं। भारत में आजादी के बाद मार्क्सवादी पार्टियों ने जिस तरह पैर पसारना शुरू किया था, वह आजादी के पांचवें और सातवें दशक में दरकने लगा। दोनों मार्क्सवाद की विचारधारा पर राजसत्ता में आई पार्टियां जो पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में वर्षों तक सत्ता में रहीं, वे आगे अपना वजूद खोने लगीं।

एक तरह से देखा जाए, तो यह बाजारवाद की जीत है। यह उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों की जीत कही जा सकती है। आज भारत का हर प्रांत बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए लाल कालीन बिछाने को तैयार हैं। जिस राज्य में ये अधिक निवेश करती हैं, उस राज्य को अगड़े राज्य के रूप में मान लिया जाता है। यानी बाजार का स्वागत वक्त की मांग समझ लिया गया है। यह भले ही समता, न्याय और विकेंद्रीकरण के खिलाफ हो, लेकिन इसे विकास के पैमाने के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। आज बाजार ने हर जगह अपना कब्जा जमा लिया है।

ग्राम स्वराज और शोषण मुक्ति तथा न्याय के साथ शासन की जो कल्पना गांधी की मूल विचारधारा थी, उसे पूरी तरह नकार कर बाजार-तंत्र की सहज स्वीकृति ही नहीं दी गई, बल्कि इसे हर तरह से मजबूत करने का कार्य किया है। ‘हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और’ की कहावत शासन में बैठे लोगों के चरित्र और उनकी सोच में आज पूरी तरह हावी है। ऐसे में ‘समय के पहरुआ’ के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कैसे बाजारवादी-तंत्र और प्रवृत्तियों के बढ़ते वर्चस्व को खत्म किया जाए और समता, न्याय, शोषणमुक्त समाज एवं सत्ता का तंत्र स्थापित किया जाए। हालांकि इस मसले पर किसी तरह के आंदोलन की सुगबुगाहट इस समय नहीं दिखाई देती।