भारत की राजनीति और सामाजिक बदलाव के इतिहास में कई बिरले व्यक्तित्वों ने अपनी अमिट छाप छोड़ी। गांधी, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह और जवाहर लाल नेहरू सरीखे कई नाम हैं, जिनका प्रभाव भारतीय विचारधारा के निर्माण में सदियों तक बना रहेगा। इसी क्रम में लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) का नाम भी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि उनकी सोच न केवल उनके जीवन के कालखंड तक समीति रही बल्कि उनकी विचारधारा 21 सदीं के भारत को भी प्रचुर मात्रा में बौद्धिक खुराक दे रही है। पद, सत्ता और शासन में बगैर कोई भूमिका स्वीकार किए बिना जेपी देश के उन गिने-चुने नेताओं में शुमार थे, जो भारतीय राजनीति में नैतिकता, सादगी और जनसंघर्ष के प्रतीक थे। उन्हें ‘लोकानायक’ का उपनाम लोगों ने दिया था और इससे बखूबी समझा जा सकता है जनता के मन में उनकी पैठ किस तरह की रही होगी।

जयप्रकाश नारायण का जन्म 11 अक्टूबर 1902 को बिहार के तत्कालीन सारण ज़िले के सिताबदियारा गांव में हुआ था, जो अब छपरा जिले में आता है। समृद्ध किसान परिवार से आने वाले जेपी के पिता का नाम हरसू दयाल थे और माता फुलरानी देवी था। जेपी का गांव से काफी जुड़ाव था और यही कारण था कि आगे जब जेपी राजनीतिक रूप से परिपक्व हुए तो गांधीजी के ग्राम स्वराज की अवधारण की जमकर वकालत की। उनकी शुरुआती पढ़ाई गांव से हुआ और फिर वो अच्छी शिक्षा के लिए पटना के कॉलेजिएट स्कूल में दाखिला लिया और फिर पटना कॉलेज में एडमिशन लिया लेकिन मौलाना अबुल कलाम आजाद से प्रभावित होकर उन्होंने अंग्रेजों के पैसों से चलने वाले पटना कॉलेज को छोड़कर बिहार विद्यापीठ में एडमिशन लिया और पढ़ाई की।

इसी गुजरते वक्त के दरम्यां साल 1920 में जेपी की शादी कांग्रेस के नेता और उस जमाने के मशहूर वकील ब्रज किशोर प्रसाद की बेटी प्रभावती से हुई। जेपी अपनी शादी के वक्त महज 18 साल के थे और प्रभावती उनसे चार साल छोटी यानी 14 साल की थीं। यहां इस बात का जिक्र करना बेहद जरूरी है कि अगर जेपी की शादी प्रभावती से नहीं हुई होती तो शायद जेपी के व्यक्तित्व भी उतना प्रखर बनकर नहीं निखर पाता। दरअसल साल 1922 में पढ़ने के लिए जेपी अमेरिका चले गए। और प्रभावती गांधी के दर्शन से प्रभावित होकर उनके साबरमती आश्रम में चल गईं।

जेपी की पत्नी प्रभावती पर महात्मा गांधी का प्रभाव बेहद ज्यादा था

जेपी की पत्नी प्रभावती पर महात्मा गांधी का प्रभाव बेहद ज्यादा था, वो उनकी बहुत बड़ी अनुयायी भी थीं। गांधी के विराट व्यक्तित्व के प्रति प्रभावती का ऐसा झुकाव था कि जिसमें उनकी गांधी जी से नारी की आत्मनिर्भरता, ब्रह्मचर्य का अर्थ, सेवा का धर्म और मन की शुचिता का दर्शन जैसे कई विषयों पर संवाद होते थे। गांधीजी प्रभावती को कहते थे कि ‘पति की दासी मत बनो, उसकी सहचरी बनो। अपने आत्मबल में उससे कम नहीं, बल्कि उसके समान बनने की कोशिश करो।’

जेपी सात सालों तक विदेश में रहे। अमेरिका के बर्कले यूनिवर्सिटी में बीए की पढ़ाई के दौरान जेपी ने समाजशास्त्र विषय को पढ़ते हुए मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारों को बेहद नजदीक से समझने और जानने का मौका मिला और इसी क्रम में वो एम.एन. रॉय से खासा प्रभावित हुए। हालांकि जेपी का ये भी मानना था कि भारत के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और दूसरे कई विविध आयामों से मार्क्सवादी विचारधारा मुफीद नहीं रहेगी।

बीए और एमए करने के बाद जब जेपी 1929 में स्वदेश लौटे तो प्रभावती के ब्रह्मचर्य हठ ने भारी द्वंद्व में घेर लिया। उन्होंने देखा कि प्रभावती किसी साध्वी की तरह जीवन जी रही हैं और गांधी के आभामंडल में वो ब्रह्मचर्य के रास्ते पर अकेले चल पड़ी हैं। जेपी को बहुत दुख हुआ और उन्होंने नाराजगी भरे लहजे में गांधीजी से बात की। आखिरकार जब दोनों में वाद-विवाद बढ़ा तो गांधी ने प्रभावती का पक्ष लेते हुए कहा कि वो शपथ ले चुकी है तो मैं उसे तोड़ने के लिए नहीं कहूंगा लेकिन तुम्हारी इच्छा हो तो तुम दूसरा विवाह कर लो। इस बात ने जेपी को और आहत किया, जिसके बाद उन्होंने प्रभावती के ब्रह्मचर्य स्वीकारते हुए खुद के लिए भी उसी रास्ते को चुन लिया।

नमक सत्याग्रह से जुड़े जयप्रकाश नारायण

साल 1930 के शुरूआत में गांधीजी ने नमक सत्याग्रह किया। जेपी इस आंदोलन से जुड़े। उसके बाद साल 1932 में गांधीदी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया। अंग्रेजों ने इस आंदोलन को दबाने के लिए गांधी और नेहरू सरीखे कांग्रेस के और बड़े दूसरे नेताओं को सलाखों के पीछे डाल दिया। तब जेपी ने भूमिगत रहते हुए कांग्रेस की कमान संभाली और पार्टी के जनरल सेक्रेटरी बने। गांधी और अन्य दूसरे नेताओं के बिना आंदोलन की धार कुंद न पड़े इसलिए जेपी ने कांग्रेस का भूमिगत दफ्तर बनाया और आन्दोलन को देश के कोने-कोने तक पहुंचाया। यही कारण था कि अंग्रेजों की पैनी नजर जेपी पर आ टिकी और आखिरकार सात सितम्बर 1932 के उन्हें तत्कालीन मद्रास में गिरफ्तार कर लिया गया। जेपी को नासिक सेन्ट्रल जेल भेजा गया, जहां उनका वक्त कांग्रेस के भीतर समाजवादी विचार रखने वाले नेताओं मसलन राममनोहर लोहिया, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता और सी.के. नारायणस्वामी जैसे कई नेताओं के साथ गुजरा।

इन सभी ने जेल में मिलकर कांग्रेस के भीतर एक ऐसी समाजवादी धड़े को तैयार करने की योजना बनाई। जो कम्यूनिस्ट पार्टी की सोच से उलट देश की आजादी में हाशिये के पार खड़े आदमी को लेकर काम करेगी और इसी विचारमंथन से साल 1934 में उपजी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी। गांधीजी ने अंग्रेजों के खिलाफ अगस्त 1942 में ‘भारत छोडो’ का नारा दिया। विदेशी हुक्मरानों ने कांग्रेस के तमाम नेताओं को जेल में डाल दिया। जेपी को गिरफ्तार करके मुंबई की आर्थर जेल भेजा गया फिर वहां से उन्हें दिल्ली की कैंप जेल भेजा गया और फिर आखिरकार वो बिहार के हजारीबाग जेल पहुंचे। देश के अलग-अलग राज्यों की जेलों में वक्त गुजारते हुए जेपी ने तय किया कि आंदोलन को गति देने के लिए जेल से फरार होंगे। ऐन दिवाली की रात नौ नवंबर 1942 को जेपी जेल की लंबी दीवार को कूदकर फरार हो गए। हालांकि बाद में पंजाब के अमृतसर में पकड़े गए लेकिन साल 1936 में गांधीजी के दखल देने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें जेल से रिहा कर दिया।

साल 1947 के 15 अगस्त को देश आजाद हो गया। अंग्रेज देश छोड़कर चले गए। हर ओर मिठाई बंट रही थी। पूरा देश जश्न मना रहा था लेकिन इन उत्सवों और खुशियों के बीच जेपी का मानना था कि देश के आजादी महज अंग्रेज़ों से नहीं होनी चाहिए, बल्कि देश तब असल मायने में आजाद होगा, जब समाज में भूख, गरीबी, अशिक्षा, असमानता और शोषण से आजाद होगा। देश के पहले प्रधानमत्री जवाहरलाल नेहरू उनके बहुत अच्छे मित्र थे। नेहरू उन्हें अपने मंत्रिमंडल में लेना चाहते थे लेकिन जेपी ने बहुत ही सहजता से उनके प्रस्ताव को खारिज कर दिया।

दिसंबर 1950 में सरदार पटेल की बंबई (मुंबई) में मृत्यु हो गई। उसके बाद साल 1952 में देश के पहले पहले आमचुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस की एकतरफा जीत से नेहरू बेहद खुश थे लेकिन पटेल की मौत से पैदा हुए अकेलेपन से भी जूझ रहे थे। उस वक्त नेहरू ने गोविंद बल्लभ पंत के जरिए जेपी को फिर सरकार में शामिल होने का निमंत्रण भेजा लेकिन उन्होंने फिर उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया । नेहरू ने बाद में भी कई बार कोशिश की लेकिन जेपी पर कोई असर नहीं हुआ। दरअसल जेपी का मानना था कि देश को आजाद कराने वाली कांग्रेस पार्टी धीरे-धीरे सत्ता के मद में डूबती जा रही, पारम्पारिक राजनीति केवल छलावा भर है क्योंकि अंग्रेजों के जाने के बाद भी उनकी अंग्रेजियत सत्ता में बैठे लोगों पर हावी है और आम लोगों की परेशानियों को हल करने के लिए बहुत ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। यही कारण है कि जेपी 1947 के बाद सक्रिय राजनीति से दूर हो गए।

जेपी का मन धीरे-धीरे सर्वोदय समाजवाद की ओर बढ़ने लगा और साल 1951 में विनोना भावे के शुरू किए किए गए भूदान आन्दोलन से जुड़ गए। जेपी ने अपनी पुश्तैनी जमीनें भूदान आंदोलन को दे दी। जेपी ने जमीन के बंटवारे और ग्राम स्वराज की अवधारणा को बढ़ावा दिया। वे पटना में रहते हुए बेहद खामोशी से सत्ता की निर्मम निरंकुशता और भ्रष्टाचार को देख रहे थे।

1970 के दशक में जेपी फिर से राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आए

1970 के दशक में जेपी फिर से राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आए। 70 के दशक के शुरूआत में देश में बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार चरम पर था। इंदिरा गांधी की सरकार पर तानाशाही के आरोप लग रहे थे। गुजरात में छात्रों ने मेस में खाने के दाम बढ़ाने को लेकर साल 1974 में कांग्रेस की चिमनभाई पटेल सरकार के खिलाफ नवनिर्माण आंदोलन चलाकर मोर्चा खोल दिया। इधर बिहार में छात्रों ने कांग्रेस के अब्दुल गफूर की अगुवाई वाली राज्य सरकार के खिलाफ बेरोजगारी और भ्रष्टाचार को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया। छात्रनेताओं, जिसमें लालू प्रसाद यादव, सुशील मोदी और रविशंकर प्रसाद सरीखे नेता थे। उन्होंने जेपी से आंदोलन की कमान संभालने की अपील की। जेपी ने आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार करते हुए पांच जून 1974 पटना में सत्ता के खिलाफ हुंकार भरते हुए संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। जेपी ने गांधी मैदान में जुटी जनता से कहा, ‘संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है’।

जेपी ने कहा कि संपूर्ण क्रांति का मकसद राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक क्रांति है। उन्होंने कहा कि महज सत्ता परिवर्तन से न तो देश बदलने वाला है और न ही समाज बदलने वाला है। अगर बदलनी है तो पूरी व्यवस्था को ही बदलना होगा। जेपी के तेवर को देखते हुए दिल्ली में सत्ता पर काबिज तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी सदमे में आ गईं।

इंदिरा गांधी को उम्मीद नहीं थी कि महज तीन साल पहले 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े करने और दुनिया के नक्शे पर बांग्लादेश के नाम से नया देश बनाने पर जो जनता उन पर फक्र कर रही थी, अब वो ही जेपी के अपील पर उनके खिलाफ सड़कों पर मोर्चा खोल रही है। रही सही कसर राजनारायण के केस ने पूरी कर दी। साल 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राजनारायण की याचिका पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को अवैध ठहरा दिया। इसके बाद इंदिरा गांधी ने अधिनायकवाद की कठोर मिसाल पेश करते हुए 25 जून 1975 देश में आपातकाल लागू कर दिया।

जेपी समेत विपक्ष के तमाम नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया प्रेस पर कड़ाई से सेंसरशिप लगा दिया गया। लेकिन जनता ने जेपी की बातों पर भरोसा करते हुए इंदिरा गांधी और उनकी नीतियों का जबरदस्त विरोध किया। आखिरकार इंदिरा गांधी को झुकना पड़ा और देश के तमाम विपक्षी नेताओं को रिहा करते हुए 1977 में आपातकाल को वापस लेना पड़ा। उसके बाद देश में हुए आम चुनाव में जनता ने इंदिरा गांधी को अपना फैसला सुनाया और उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया। ये सीधे-सीधे जनता की और जनता पार्टी की जीत थी। जिसका सीधा श्रेय जेपी को मिला।

जेपी वो नेता थे, जिन्होंने सत्ता के लिए नहीं, सिद्धांतों के लिए राजनीति की। वो लोकतंत्र, समाजवाद और ग्राम स्वराज में गहरी आस्था रखते थे। जेपी मानते थे कि किसीभी नेता के लिए राजनीति का मकसद केवल सत्ता के सुख के लिए नहीं बल्कि समाज की सेवा और उसके कल्याण के लिए होना चाहिए। इंदिरा शासन में लगे आपातकाल के दौरान जेपी की जेल में सेहत बिगड़ने लगी थी। उनकी किडनी खराब हो गई थी, आठ अक्टूबर 1979 को पटना में उनका निधन हो गया।