किसी भी देश या समाज की असली ताकत उसके युवा होते हैं। भारत इस समय दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है। संयुक्त राष्ट्र की घोषणा के अनुसार भारत की पचास फीसद से अधिक आबादी पच्चीस साल से कम उम्र के युवाओं की है और पैंतीस साल से कम उम्र के युवा भारत में पैंसठ फीसद हैं। देश के लिए यह प्रसन्नता की बात है। मगर सामाजिक स्थितियां इशारा कर रही हैं कि इस खुशी की आयु बहुत लंबी नहीं है। देश वृद्ध आबादी के झुकते संतुलन की तरफ बहुत तेजी के साथ बढ़ रहा है। इस बात की पुष्टि विविध आंकड़ों से भी होती है। अनुमान है कि वर्ष 2046-47 तक भारत बुजुर्गों का देश हो जाएगा। यानी यहां युवाओं की तुलना में वृद्धों की संख्या अधिक हो जाएगी।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2011 में भारत में साठ वर्ष से अधिक आयु के लोगों की आबादी 10.16 करोड़, यानी देश की कुल आबादी की लगभग 8.4 फीसद थी। अनुमान के मुताबकि, अगले दस वर्षों में यह आबादी बढ़ कर दोगुनी और कुल आबादी की 10.5 फीसद हो गई। बताया जाता है कि वर्तमान में देश में साठ वर्ष से अधिक आयु वालों की जनसंख्या कुल आबादी की लगभग बारह फीसद से कुछ अधिक है। वर्ष 2036 में देश की कुल आबादी 153 करोड़ हो सकती है और तब तक बुजुर्गों की आबादी लगभग 23 करोड़ यानी पंद्रह फीसद हो जाएगी। यानी वर्ष 2036 में देश का हर सातवां व्यक्ति साठ साल से अधिक आयु का होगा।

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इसी प्रकार, अनुमान है कि वर्ष 2050 में देश की लगभग 21 फीसद आबादी वरिष्ठ नागरिकों की होगी। वर्ष 2075 में भारत की कुल आबादी 1.6 अरब होने का अनुमान है, जिसमें लगभग 32 फीसद हिस्सेदारी साठ साल से अधिक आयु वर्ग के लोगों की होगी। यानी 2075 में देश का हर तीसरा व्यक्ति वरिष्ठ होगा।

वर्तमान में भारत की आबादी की औसत आयु उनतीस वर्ष बताई जाती है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2021 में देश में पंद्रह से उनतीस वर्ष आयु के मध्य के युवाओं की कुल संख्या 37.14 करोड़ थी, जो कुल जनसंख्या की लगभग 28 फीसद है। इसके अलावा, पैंतीस साल से कम उम्र के युवाओं की भागीदारी 65 फीसद से भी अधिक थी, लेकिन अब इसमें गिरावट आने लगी है। अनुमान है कि वर्ष 2036 में देश की आबादी में युवाओं की भागीदारी घट कर लगभग 22.7 फीसद रह जाएगी। इस तस्वीर का साफ संकेत है कि युवा आबादी घटने से देश के जन-बल और कार्यबल में कमी आएगी।

दरअसल, पिछले दो दशकों से देश में बच्चों की आबादी भी तेजी से घट रही है। जबकि दूसरी तरफ चिकित्सा सुविधा तथा जीवन स्तर में सुधार के कारण आम आदमी की जीवन प्रत्याशा लगातार बढ़ रही है। आम आदमी की औसत आयु में वृद्धि तक तो बात ठीक है, लेकिन नवजातों की जन्म दर में कमी चिंता का विषय है। यह प्रवृत्ति इस कारण भी चिंता का विषय है कि बच्चों की जन्म दर में गिरावट आकस्मिक नहीं, बल्कि ऐच्छिक और सुविचारित भी है।

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इस समस्या का एक बड़ा कारण है शादियों में विलंब तथा युवा पीढ़ी का अपने दायित्वों से पलायन। अब से लगभग चार दशक पहले शादियां औसतन पच्चीस-छब्बीस वर्ष की आयु तक हो जाया करती थीं। मगर करिअर का दबाव, जीवनशैली में बदलाव तथा सुरक्षित भविष्य की अनिश्चितता के कारण आज तीस-बत्तीस की उम्र शादी की सामान्य उम्र बन चुकी है। अधिकांश मामलों में तो यह उम्र पैंतीस या उससे भी ऊपर पहुंच चुकी है। वैवाहिक विज्ञापनों में नब्बे फीसद से अधिक युवा तीस वर्ष से अधिक आयु के होते हैं।

चिकित्सा विज्ञान के अनुसार, महिलाओं की प्रजनन क्षमता बीस से सत्ताईस वर्ष की आयु के दौरान चरम पर होती है। तीस वर्ष की उम्र के बाद प्राकृतिक रूप से आने वाले बदलाव की वजह से इसमें कमी आने लगती है। इसी प्रकार, पुरुषों में भी उम्र के मुताबिक कई तरह के कुदरती बदलाव आते हैं। यही कारण है कि समाज में निस्संतान दंपतियों की संख्या बढ़ रही है, जिससे अंतत: युवा आबादी कम हो रही है।

एक और विसंगति यह है कि आज की युवा पीढ़ी विवाह को लेकर अरुचि दिखाने लगी है। कुछ युवा इस मामले में भय और विरक्ति का शिकार भी हो रहे हैं। सहजीवन के चलन से इस प्रवृत्ति को और अधिक बढ़ावा मिल रहा है। न सिर्फ इतना, बल्कि विवाहित जोड़ों में भी एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो विवाह के बावजूद बच्चे पैदा करने तथा उसका पालन-पोषण करने की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हैं।

विशेष रूप से जहां पति और पत्नी दोनों नौकरी में हैं, वहां बच्चा पैदा करना एक अवांछित बोझ माना जाने लगा है। हालांकि इसमें घरेलू कार्य का बंटवारा एक बड़ा कारक है। संयुक्त परिवारों के विघटन ने इस सोच को और अधिक बल दिया है।

एक विरोधाभास यह है कि जहां देश में औसत मृत्यु दर में कमी आई है, वहीं दूसरी तरफ युवाओं की मृत्यु दर में वृद्धि हुई है। अध्ययन बताते हैं कि आत्महत्या तथा दुर्घटना युवाओं की मृत्यु के प्रमुख कारण बन रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार युवाओं की मौत की बड़ी वजह आत्महत्या है। पारिवारिक जिम्मेदारी, मानसिक तनाव, असुरक्षित भविष्य, नशे की लत तथा नौकरी और पढ़ाई का दबाव आदि वे कारण हैं जो युवाओं को संकट की तरफ धकेल रहे हैं।

युवाओं की आबादी के इस रुख के पीछे एक बड़ा कारण सरकार की परिवार नियोजन की नीति भी है। पंद्रह फरवरी 2000 को घोषित भारत की जनसंख्या नीति का उद्देश्य वर्ष 2045 तक देश की जनसंख्या दर को स्थिर करना है। हालांकि अपने देश में परिवार नियोजन को लेकर सख्ती नहीं है। फिर भी विविध माध्यमों से इसे प्रोत्साहन अवश्य दिया जा रहा है।

पड़ोसी देश चीन इस तरह की सख्ती का दुष्परिणाम भुगत चुका है। चीन में वर्ष 1979 से 2015 तक एक बच्चा नीति बहुत सख्ती के साथ लागू की गई। इस का नतीजा यह निकला कि चीन में न सिर्फ वृद्धों की संख्या बढ़ गई, बल्कि समाज में स्त्री-पुरुष का अनुपात भी गड़बड़ा गया।

हार कर चीन सरकार ने 2016 में दो बच्चे पैदा करने की छूट दी। उससे भी बात बनती नहीं दिखी तो मई 2021 में तीन बच्चों तक की अनुमति दी गई। अंतत: 26 जुलाई 2021 से चीन सरकार ने परिवार नियोजन संबंधी सारे प्रतिबंध हटा लिए।

हमें चीन की इस असहज स्थिति से सबक लेना चाहिए। देश की घटती युवा शक्ति भविष्य के लिए खतरे की घंटी है। लिहाजा अपने देश में युवाओं की घटती संख्या को अब गंभीरता से लिया जाए और भविष्य में भारत को बुजुर्गों का देश होने से बचा लिया जाए।