बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने लालू प्रसाद यादव के दोनों बेटों-तेज प्रताप और तेजस्वी यादव को बड़ा झटका दिया है। तेज प्रताप अपनी सीट महुआ हार गए, जबकि तेजस्वी पूरे बिहार में राजनीतिक तौर पर लगभग साफ हो गए। लेकिन इन परिणामों के बीच एक बात बेहद दिलचस्प है-हार के बाद भी तेज प्रताप उतने मायूस नहीं दिखे।
महुआ में हार के बाद तेज प्रताप ने अपने प्रदर्शन को लेकर तो ज़्यादा कुछ नहीं कहा, लेकिन भाई तेजस्वी की हार पर उन्होंने खुलकर तंज कसे। महागठबंधन की पराजय पर उन्होंने तुरंत मोदी–शाह की जमकर तारीफ़ की और कहा- हमारी हार में भी जनता की जीत छिपी है। आज के परिणामों को मैं स्वीकार करता हूं। अब परिवारवाद की राजनीति नहीं चलेगी। सुशासन और शिक्षा की बात होगी। यह जयचंदों की करारी हार है।
तेज प्रताप का यह बयान यह समझने के लिए काफी है कि उनका निशाना सीधे अपने ही परिवार पर था। वह अपनी हार से ज़्यादा इस बात से खुश दिखाई दिए कि तेजस्वी बुरी तरह परास्त हुए। तेजस्वी ने भले ही अपनी राघोपुर सीट बचा ली हो, लेकिन पूरे बिहार में वे बुरी तरह पिछड़ गए। राजद सिर्फ़ 25 सीटों तक सिमट गई- यह तेजस्वी के नेतृत्व में पार्टी का निराशाजनक प्रदर्शन है।
अब तेज प्रताप के लिए इस चुनाव में ज्यादा कुछ खोने के लिए नहीं था। परिवार ने तो वैसे भी अलग कर दिया था, उनके सामने तो सिर्फ खुद को साबित करने की, सम्मान की लड़ाई लड़ने की बात थी। इसी वजह से उन्होंने खुद की पार्टी बनाई- जन शक्ति जनता। 44 सीटों पर उन्होंने अपने प्रत्याशी और 43 पर जमानत जब्त हुई। हर लिहाज से नतीजे अप्रत्याशित हैं, इन पर गहन मंथन की जरूरत है, लेकिन अगर तेज प्रताप के उदेश्यों को समझा जाए तो उनका अपनी हार से ज्यादा छोटे भाई की हार पर मजे लेना जायज लग सकता है।
थोड़ा पीछे चलने की जरूरत है, लालू प्रसाद यादव ने दोनों ही बेटों को साल 2015 में लॉन्च किया था। नीतीश कुमार साथ थे, ऐसे में दोनों ही बेटों ने पहले ही चुनाव में जीत हासिल की, तेजस्वी डिप्टी सीएम बन गए तो तेज प्रताप मंत्री। अब यह तेज प्रताप के सम्मान पर पहला आघात था, बड़े भाई वे थे, खुद को कृष्ण बताते थे, लालू जैसी बोलने वाली शैली ने भी लोकप्रिय कर दिया था, लेकिन फिर भी जब डिप्टी सीएम बनाने की बात आई तो जिम्मेदारी बड़े बेटे को नहीं छोटे को दी गई। यहां से तेज और तेजस्वी के बीच तकरार शुरू हो गई थी, सामने तो तब इतनी नहीं आई, लेकिन सम्मान पर चोट पहुंच चुकी थी।
पिछले कुछ सालों में सार्वजनिक मंचों पर चाहे दोनों भाई साथ दिखे हों, लेकिन एक सियासी अदावत भी रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में जब करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था, एक वक्त ऐसा आया था जब तेजस्वी पिक्चर से आउट से हो गए थे और तेज प्रताप ने ‘तेज सेना’ बनाने का ऐलान कर दिया था। बिहार के युवाओं को साधने के लिए वे अलग मंच तैयार कर रहे थे।
इससे पहले ‘लालू-राबड़ी मोर्चा’ भी तेज प्रताप ही शुरू कर चुके हैं, आरजेडी के खिलाफ उम्मीदवार तक उतार रखे हैं। ऐसे में छोटे भाई तेजस्वी से आगे निकलने की चाह उनमें हमेशा से रही है, उनके प्रयास भी दिखे हैं, लेकिन क्योंकि असल पावर हमेशा लालू ने अपने पास रखी, ऐसे में तेज प्रताप के भी कोई भी दांव सफल नहीं हो पाए।
तेज प्रताप और तेजस्वी की अनबन की खबरें 2021 में भी सामने आई थीं। तारापुर में उपचुनाव होना था, कांग्रेस ने महागठबंधन को चुनौती देने के लिए अपना प्रत्याशी उतार दिया था। उस समय निर्दलीय संजय कुमार को तेज प्रताप ने अपना समर्थन दे दिया। यहां तक कहा था कि वे प्रचार करेंगे। लेकिन देखते ही देखते बाजी पलटी और तेजस्वी ने निर्दलीय संजय कुमार को आरजेडी में शामिल करवा दिया,तेज प्रताप का एक दांव फेल रहा। ऐसे में जितनी बार भी तेज प्रताप ने आगे निकलने की कोशिश की, लालू के आशीर्वाद से तेजस्वी भारी पड़े।
अब एक तरफ तेज-तेजस्वी में तल्खी थी, दूसरी तरफ बड़े बेटे के विवाद भी बढ़ते जा रहे थे। बात चाहे निजी जीवन की हो, वैवाहिक रिश्ते की हो या फिर सिर्फ ऊटपटांग हरकतों की, लालू परिवार तंग आ चुका था, बचाव करते-करते पार्टी की किरकिरी होने लगी थी। तभी तो जानकार कहने से बच नहीं रहे कि तय रणनीति के तहत ही तेज प्रताप को परिवार से अलग कर दिया गया।
अब पार्टी से अलग हुए तेज प्रताप ने नई पार्टी बनाई। जानते वे भी थे ज्यादा कुछ नहीं होने वाला है, लेकिन भाई तेजस्वी की सीट पर दो बार प्रचार करने चले जाना काफी था। अपने ही छोटे भाई को निशाने पर लेना बता रहा था कि महुआ से ज्यादा राघोपुर में खेल करना तेज प्रताप का मकसद था। अब पसीने तो तेजस्वी के छूट गए, कई राउंड में पीछे रहने के बाद वे कुछ लीड के साथ वो सीट जीत पाए। अपनी सीट तो बचा ले गए, लेकिन बिहार में खेल हो गया। 143 सीटों राजद के उम्मीदवार उतरे और जीते सिर्फ 35। चुनाव लड़ा था तेजस्वी के चेहरे पर, सीएम फेस घोषित हो चुके थे, ऐसे में अप्रत्याशित हार ने पराजय का सेहरा भी उनके सिर बंधा।
वो सेहरा ही तेज प्रताप को खुश करने के लिए काफी है। छोटे भाई के साथ प्रतिष्ठा की लड़ाई तो कई सालों से चल ही रही है, कुछ साल पहले तक तो लालू सक्रिय थे तो तेजस्वी पर ज्यादा जवाबदेही नहीं थी। लेकिन इस बार पूरी तरह अपने नेतृत्व में चुनाव लड़ा और बुरी तरह हार गए। तेज प्रताप इसी बात से मुस्काए दिख रहे हैं, उन्हें लग रहा है कि लालू जिस छोटे बेटे को लगातार अपना आशीर्वाद दे रहे थे, वो उस काबिल नहीं था।
अब तेज प्रताप की असली लड़ाई शुरू होती है, सिर्फ तेजस्वी की हार से वे खुश नहीं हो सकते हैं। नई पार्टी बनाई है तो उसको मजबूत भी करना होगा। जानकार तो इस चुनाव में ही कहने लगे थे कि परिवार की परछाई से अलग होते ही तेज प्रताप ज्यादा संजीदा दिखाई देते हैं। ऐसे में उसी स्टाइल को आगे बढ़ा अगर तेज प्रताप अपनी भाषण वाली शैली को बरकरार रखें, बड़े भाई पर भी लालू परिवार शायद गर्व कर पाएगा।
