मनुष्य के जीवन में कई बार ऐसे क्षण आते हैं, जब वह अचानक किसी घटना या व्यवहार से अचंभित हो उठता है। अचंभा दरअसल बाहरी परिस्थितियों से जुड़ा होता है। जब कोई असंभव-सा कार्य पूरा हो जाए या अप्रत्याशित घटना घट जाए, तब मनुष्य का मस्तिष्क कुछ क्षण के लिए शून्य हो जाता है और प्रतिक्रिया नहीं दे पाता। यही अचंभा है।

यह अनुभव क्षणिक होता है और समय के साथ समाप्त भी हो जाता है। इसके विपरीत, आश्चर्य का संबंध मनुष्य के भीतर से है। यह मन की गहराई में जन्म लेता है और स्थायी रहता है। वास्तव में अचंभा ही आश्चर्य की भूमि तैयार करता है। जब कोई अचंभित करने वाली घटना हमें सोचने, समझने और जिज्ञासु बनने की दिशा में प्रेरित करती है, तभी वह आश्चर्य का रूप लेती है।

अचंभा केवल चौंकाता है, जबकि आश्चर्य हमें आत्मचिंतन और परिपक्वता की ओर ले जाता है। आश्चर्य मनुष्य की जिज्ञासा को जगाता है और उसे नई दृष्टि देता है। यह आंतरिक अनुभव हमें ज्ञान, सौंदर्यबोध और रचनात्मकता की ओर अग्रसर करता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अचंभा क्षणिक प्रतिक्रिया है, जबकि आश्चर्य स्थायी अनुभूति।

अचंभित होना जीवन की यात्रा का प्रारंभिक पड़ाव

अचंभित होना जीवन की यात्रा का प्रारंभिक पड़ाव है और उसी के सहारे मनुष्य गहरे आश्चर्य तक पहुंचता है। आखिर यही आश्चर्य हमें नई ऊर्जा और व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करता है।

जब कोई मनुष्य लंबी जीवन-यात्रा से गुजरता है, तभी वह अपनी गहराई तक पहुंच पाता है। इस यात्रा में खोजने की प्रवृत्ति जन्म लेती है और यही प्रवृत्ति उसे आश्चर्य की अनुभूति कराती है। यह आश्चर्य मनुष्य को निरंतर खोज, गहन अध्ययन और जानने की इच्छा की ओर अग्रसर करता है। जब मनुष्य किसी सत्य से परिचित होता है, तो उसे आश्चर्य होता है, और उसी से प्रसन्नता की अनुभूति भी होती है। मगर कभी-कभी कोई दुखद घटना भी घट जाती है। इस तरह, सुख और दुख- दोनों भावों की तीव्रता से आश्चर्य की उत्पत्ति होती है।

खुशी से उपजा आश्चर्य मस्तिष्क पर अंकित हो जाता है

खुशी से उपजा आश्चर्य मस्तिष्क पर अंकित हो जाता है। वहीं से भावनाओं का आवेग, ढकी-छिपी यादें और आत्मचिंतन की प्रक्रिया आरंभ होती है। अचानक प्राप्त हुई खुशी शरीर की स्थिति तक को प्रभावित कर देती है- कभी आंसुओं के रूप में, तो कभी हृदय की धड़कनों की गति बढ़ाकर। ऐसे क्षण शब्दविहीन हो जाते हैं, पर मन की गहराई तक पहुंचते हैं। यही खुशियां धीरे-धीरे हमारे भीतर समा जाती हैं, जिन्हें हृदय और मस्तिष्क से अलग करना कठिन हो जाता है।

मनुष्य का अचंभित या आश्चर्यचकित होना केवल किसी व्यक्तिगत घटना तक सीमित नहीं रहता। यह उसके अनुभवों, स्मृतियों और परिवेश से भी गहराई से जुड़ा होता है। जब कोई सुंदर परिदृश्य हमारी आंखों के सामने आता है, या कोई घटना घटती है, या कोई मधुर गीत और संगीत हमारे कानों को छूता है और हृदय को स्पर्श करता है, तब भी मन में वही आश्चर्य और भावनाओं का संयोग उत्पन्न होता है। यह अनुभव हमारे दृष्टिकोण को विस्तारित करता है, भावनात्मक संवेदनाओं को गहरा करता है और जीवन के छोटे-बड़े अनुभवों के प्रति हमारी समझ और सहानुभूति को बढ़ाता है।

जैसे ईश्वर की प्रार्थना, समाज-सेवा, आध्यात्मिक खोज, ध्यान और योग- ये सब कारक एक आस्थावान व्यक्ति को प्रसन्नता का भाव देते हैं। इन्हीं के माध्यम से उसे उस आंतरिक ऊर्जा का अनुभव होता है, जो ब्रह्मांड निरंतर सब तक पहुंचा रहा है। यह अनुभूति स्वयं में आश्चर्यजनक होती है और व्यक्ति को आगे खोजने की प्रवृत्ति तथा कार्य करने का उत्साह देती है। परिणामस्वरूप जीवन सकारात्मक दिशा की ओर बढ़ने लगता है।

अचानक आया दुख भी मनुष्य को आश्चर्य में डाल देता है

इसके विपरीत, अचानक आया दुख भी मनुष्य को आश्चर्य में डाल देता है। सुख और दुख दोनों ही आश्चर्य मस्तिष्क पर समान रूप से असर डालते हैं। आंसू वहां भी निकलते हैं, और हृदय की धड़कन वहां भी तेज हो जाती है। फर्क बस इतना है कि दुख का आश्चर्य मनुष्य को भीतर आत्मसात करने के बजाय बाहर की ओर धकेल देता है। यह नकारात्मकता उत्पन्न करता है, और इसी कारण कोई भी दुख की खोज नहीं करना चाहता।

इसलिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने अंतर्मन में उतरकर दोनों प्रकार के आश्चर्यों में संतुलन बनाए। जीवन चक्र में सुख और दुख दोनों ही विस्मित करने वाले भाव होंगे और दोनों ही हमारे अनुभवों का हिस्सा होंगे। पर सच्ची खुशी तभी प्राप्त होती है, जब हम इन दोनों से ऊपर उठकर ध्यान, योग, अध्यात्म और प्रकृति से जुड़ते हैं। जब हम किसी भी विद्या से संबंध बनाकर अपने भीतर के कलुषित भावों को दूर करते हैं, छोटे-बड़े का भेद मिटाकर जिम्मेदारियों को पूर्ण रूप से निभाते हैं, तब हम सच्ची आंतरिक प्रसन्नता को पा सकते हैं।

बहुत कुछ छोड़कर ही सब कुछ पाया जा सकता है

आखिर जब मनुष्य त्याग और धैर्य के साथ जीता है, तब वह देखता है, आश्चर्य करता है कि बहुत कुछ छोड़कर ही सब कुछ पाया जा सकता है। यही भाव मनुष्य को आश्चर्य से भर देता है और आत्मानुभूति के अंतिम पड़ाव तक पहुंचा देता है।

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