प्राकृतिक संसाधनों को हथियाने की होड़ में लगी वैश्विक ताकतों की निगाहें आर्कटिक के खनिजों पर जा टिकी हैं। हालांकि यह क्षेत्र अत्यंत दुर्लभ है और यहां से धातुओं का दोहन बहुत कठिन है। आर्कटिक में ऐसी दुर्लभ खनिज संपदा है कि वे जिस देश के हाथ लग जाएगी, वह आर्थिक और सामरिक रूप में समृद्ध हो जाएगा। अभी भी आर्कटिक क्षेत्र से रूस के जरिए विश्व का चालीस फीसद पैलेडियम, 20 फीसद हीरे, 15 फीसद प्लैटिनम, 11 फीसद कोबाल्ट, दस फीसद निकल और आठ फीसद जिंक का उत्पादन होता है। इसलिए इस क्षेत्र की जरूरत आर्थिक रूप से संपन्न देशों को हो रही है। अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए अमेरिका, रूस और चीन आर्कटिक पर कब्जे की होड़ में शामिल हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण आर्कटिक महासागर का जलस्तर घट रहा है
दरअसल, इस क्षेत्र में खनिजों के दोहन की होड़ इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण आर्कटिक महासागर का जलस्तर घट रहा है। यह उत्तरी ध्रुव के चारों ओर एक वृत्त में घिरा हुआ, दुनिया का सबसे छोटा और उथला महासागर है। इसलिए ये देश आर्कटिक क्षेत्र में संसाधनों की तलाश में उत्खनन बढ़ाने में लगे हैं। जलवायु परिवर्तन के संकेत साफ दिखने लगे हैं। नए शोध बताते हैं कि आर्कटिक से हिमनद तो टूट ही रहे हैं, वायुमंडल का तापमान बढ़ने के कारण बर्फ भी तेजी से पिघल रही है। जलवायु बदलाव का बड़ा संकेत संयुक्त अरब अमीरात में भी दिख चुका है। बीते 75 वर्षों में यहां सबसे अधिक बारिश दर्ज की गई। चौबीस घंटे में दस इंच से ज्यादा हुई इस बारिश ने रेगिस्तान के बड़े भू-भाग को दरिया में बदल दिया था।
आर्कटिक पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर शोध एवं अध्ययन लगातार सामने आ रहे हैं। ये अध्ययन विशाल आकार के हिमनदों के पिघलने, टूटने, पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के खिसकने, ध्रुवीय भालुओं के मानव आबादियों में घुसने और सील मछलियों में कमी को उजागर करते हैं। ये ऐसे प्राकृतिक संकेत हैं, जो पृथ्वी के बढ़ते तापमान का आर्कटिक पर प्रभाव बता रहे हैं। पर्यावरण विज्ञानी इस बदलाव को समुद्री जीवों, जहाजों, पेंगुइन और छोटे द्वीपों पर आबादी के लिए एक बड़े खतरे के रूप में देख रहे हैं। बीते एक दशक के भीतर ऐसी खबरें ज्यादा आई हैं। विशेष तौर से उत्तरी ध्रुव की स्थिति की जानकारी देने के लिए सजग प्रहरी के रूप में अनेक उपग्रहों की तैनाती कुछ देशों ने की है।
2014 में ही उत्तरी ध्रुव के 32.90 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में बर्फ की परत पिघली
अमेरिका के ‘नेशनल स्नो एंड साइंस डाटा सेंटर’ के अध्ययन के मुताबिक, वर्ष 2014 में ही उत्तरी ध्रुव के 32.90 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बर्फ की परत पिघली है। यह क्षेत्रफल लगभग भारत-भूमि के बराबर है। इस संस्थान के अनुसार, 1979 में उत्तरी ध्रुव पर बर्फ जितनी कठोर थी, अब उतनी नहीं रह गई है। इसके ठोस हिमतल में 40 फीसद की कमी आई है। हिमतल में एक वर्ष में इतनी बड़ी तरलता, इस बात की द्योतक है कि भविष्य में इसके पिघलने की गति और तेज हो सकती है।
उधर, साधन संपन्न देश इस जलवायु परिवर्तन को वरदान मान कर चल रहे हैं, क्योंकि यहां पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस और अन्य खनिजों के व्यपाक भंडार हैं। इसीलिए अमेरिका इस क्षेत्र में रणनीतिक दृष्टि से सैन्य ताकत बढ़ा रहा है, ताकि चीन के बढ़ते प्रभाव को चुनौती दी जा सके। अमेरिकी भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार, इस क्षेत्र में दुनिया के तेरह फीसद तेल और तीस फीसद गैस भंडारों के साथ अनेक दुर्लभ खनिज उपलब्ध हैं। अमेरिका इसीलिए ग्रीनलैंड में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। रूस पहले से ही इस क्षेत्र का बड़ा खिलाड़ी रहा है। उसने यहां अपनी सैन्य और आर्थिक उपस्थिति बढ़ाई है। रूस यहां सुविधाजनक स्थिति में इसलिए है, क्योंकि उसके भू-भाग का पांचवां हिस्सा आर्कटिक में है। आर्कटिक तटीय सागर की आधी से ज्यादा लंबाई रूसी क्षेत्र में आती है। रूस यहां की प्राकृतिक संपदा का दोहन कर उसका उत्तरी समुद्री मार्ग से कारोबार करने की कोशिश में जुटा हुआ है। हालांकि, अभी भी रूस की अर्थव्यवस्था में दस फीसद के बाद की भागीदारी आर्कटिक की खनिज संपदा के दोहन पर ही निर्भर है।
चीन खुद को आर्कटिक का निकटतम देश बताकर दावेदारी करता है
चीन आर्कटिक क्षेत्र का नया खिलाड़ी है। उसने इस क्षेत्र में बुनियादी संरचना और परियोजनाओं में निवेश शुरू कर दिया है। चीन दूसरे देशों के बढ़ते दखल के कारण स्वयं को अब आर्कटिक का निकटतम देश बताकर अपनी दावेदारी मजबूत करने के प्रयास में है। जबकि वह न तो इस क्षेत्र के निकट है और न ही आर्कटिक से जुड़ा उसका कोई समुद्री तट है। वह आर्कटिक परिषद का देश भी नहीं है। चीन यहां अपने परमाणु ऊर्जा चालित जहाजों को भेजने की कोशिश में है। अमेरिका के लिए चीन की यह नई चुनौती है। यहां बर्फ पिघलने को चीन अपने लिए अनुकूल स्थिति इसीलिए मान कर चल रहा है, क्योंकि तेजी से बर्फ पिघलने से उत्तरी समुद्री मार्ग खुलते जा रहे हैं। स्वेज नहर की तुलना में व्यापार के लिए यह नया मार्ग अधिक सुरक्षित माना जा रहा है।
सुदूर आर्कटिक परिषद में कुल आठ देश, कनाडा, फिनलैंड, डेनमार्क, आइसलैंड, नार्वे, स्वीडन, अमेरिका और रूस शामिल हैं। अमेरिका ने ग्रीनलैंड में शीत युद्ध के आरंभ में ही सैन्य ठिकाना बना लिया था। इसे पहले थुले नाम से जाना जाता था, लेकिन अब पिटुफिक स्पेस बेस के नाम से जाना जाता है। इस ठिकाने पर एक अत्यंत शक्तिशाली रडार अमेरिका ने तैनात किया हुआ है, जो यहां की जानकारी उसे तुरंत देता है। यह रडार इतना सतर्क है कि अंतरिक्ष में सक्रिय किसी गेंद जैसी वस्तु को भी यह देखने में सक्षम है। यानी परमाणु हथियार ले जा रही बैलिस्टिक मिसाइल अगर इस क्षेत्र से गुजरती है तो वह रडार की पकड़ में आसानी से आ सकती है। कोयले का भी इस क्षेत्र में अकूत भंडार है। औद्योगिक विकास के वास्ते खनिज संपदा के लिए यहां व्यापारिक गतिविधियां तेज हुई हैं। इस कारण यहां पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ाने लगा है।
इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के अनेक दुष्परिणाम दिखाई दे रहे हैं। इनमें से एक उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव क्षेत्रों में पृथ्वी पर बढ़ते तापमान के कारण बर्फ का पिघलना भी है। अत्यधिक गर्मी या सर्दी का पड़ना भी इसके कारक माने जा रहे हैं। वैज्ञानिकों की यह चिंता तब और ज्यादा बढ़ गई, जब आर्कटकि में फ्रांस से भी बड़े आकार के हिमनद ‘टाटेन’ के पिघलने की जानकारी अनुमान से कहीं ज्यादा निकली। यानी अभी तक जो अनुमान लगाए गए थे, उसकी तुलना में यह विशालकाय हिमनद कहीं अधिक तेजी से पिघल रहा है।
इससे समुद्र का जलस्तर बढ़ने की भी आशंका जताई जा रही है। सेंट्रल वाशिंगटन विवि के पाल बिनबेरी की एक रपट के मुताबिक, ‘अध्ययन से पहले लगता था कि ‘टाटेन’ हिमनद की बर्फ स्थिर है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के असर के कारण इसकी स्थिरता में बदलाव देखा गया है और यह तेजी से पिघल रहा है। यदि आर्कटिक में उत्खनन की गतिविधियां बढ़ती हैं, तो निश्चित रूप से विश्वस्तर पर जलवायु परिवर्तन का संकट गहराएगा।