उत्तर प्रदेश के इटावा जिले की चंबल घाटी में संरक्षण के अभाव में ऊंटों की संख्या बडेÞ पैमाने पर सिमट कर रह गई है। अगर किसी ने ऊंटों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है तो वह है, इस इलाके में पाए जाने वाले विलायती बबूल ने। यदि विलायती बबूल का कांटा ऊंट के पांव में चुभ जाए और उसका ढंग से ध्यान न रखा जाए तो ऊंट का पांव गलना शुरू कर देता है।
इटावा के मुख्य पशु चिकित्साधिकारी डा. एससी गुप्ता ने गुरुवार को यहां बताया कि 2012 की पशु गणना के मुताबिक इटावा के चकरनगर तहसील में मात्र 66 ऊंट रह गए हैं जबकि 2007 में 131 और 2003 में 1366 ऊंट थे। वर्ष 2003 से पशुओं की गणना की जा रही है जिसे राजस्व विभाग के कर्मी और अफसर करते हैं लेकिन अब सितंबर 2017 से पशु गणना का काम खुद पशु पालन विभाग अपने ही स्तर से करेगा।
यमुना, चंबल, सिंधु, क्वारी और पहुज जैसी पांच नदियों के संगम पंचनदा के बीच बसे चकरनगर क्षेत्र में वतर्मान में रेगिस्तान का जहाज कहे जाने वाले ऊंटों की संख्या घटती जा रही है। चकरनगर क्षेत्र में पूर्व में ऊंटों को पालने का प्रचलन इसलिए भी ज्यादा था क्योंकि क्षेत्र में यातायात का कोई साधन नहीं था। तब ग्रामीण ऊंट की पीठ पर पलान लगा कर वजन ढुलाई का काम करते थे। इससे ऊंट पालकों को अच्छा धनार्जन होता था। उस दौर में एक-एक ऊंट पालक के पास करीब तीन-तीन दर्जन ऊंट हुआ करते थे।
ऊंट पालक रामनरेश गूर्जर बताते है कि चकरनगर इलाके में बेतहाशा उगे बिलायती बबूल के कारण ऊंटों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। कारण यह है कि ऊंट का पैर गद्दीदार होता है जिसमें कांटा चुभने का खतरा हमेशा बना रहता है। ऐसे में जोलीफ्लोरा की अधिकता ने ऊंट पालकों को चिंतित कर दिया है। जोली फ्लोरा (विलायती बबूल) का कांटा जिस जगह लग जाता है, वहां पर जरा सी भी असावधानी बरतने पर उस स्थान पर गलाव की स्थिति पैदा हो जाती है। यही वजह है कि ऊंट पालने या इनसे व्यवसाय करने से लोग अब किनारा करने लगे हैं।
बरैला गांव के ऊंटपालक करन सिंह ने बताया उन्हें ऊंट पालने का शौक बचपन से ही है।
उन्हें ऊंट पालना आज भी पसंद है। पहले ऊंट का चारा आसानी से मिल जाता था। आमतौर पर कठबेरी, झरबेरी के पौधे बहुतायत पाए जाते थे। ऊंटों का एक चारा जबासा भी है जो नदियों के किनारे तराई वाले इलाके में पाया जाता है। इसकी शाखाओं की खास विशेषता ये होती है जैसे-जैसे लपट तेज होती है जबासा उतना ही हरा-भरा दिखाई पड़ता है। वर्षा होने पर इसी जबासा की शाखाएं उसी तरह सूख जाती हैं, जैसे पाला पड़ने पर आलू आदि सूख जाता है। 75 साल के वीरेन्द्र सिह राजावत का कहना है कि महंगाई के दौर में ऊंट रख पाना चुनौतीपूर्ण है। उन्होंने बताया कि जोलीफ्लोरा (विलायती बबूल) की बहुतायत ने ऊंटों पर बुरा असर डाला है।
ऊंट बीमार पड़ जाते है तो उनका कोई इलाज भी संभव नहीं होता है। डाक्टर भी इलाज के मामले में हाथ खड़े कर लेते हैं। बीमार ऊंट का इलाज मुख्यता उसे दागना होता है और अब दगेरों की भी कमी हो गई। नई पीड़ी इस विशालकाय भारी भरकम शरीर वाले ऊंट को पालने के लिए तैयार नहीं है। शायद यही वजह है कि हजारों ऊंटों वाली इस भूमि पर अब ऊंटों की संख्या 66 रह गई है।
चकरनगर क्षेत्र के प्रतापपुरा, बल्लों की गढ़िया एवं कुंदौल गांव में रहने वाले ऊंट पालने के शौकीनों ने बताया कि अब ऊंट पालना उनके लिए घाटे का सौदा हो रहा है। ऐसी स्थिति में कोई भी उनके ऊपर रुपए लगाना नहीं चाहता है।
ऊंटों के पारंपरिक चिकित्सक बुजुर्ग हो गए हैं। वह ऊंटों के इलाज के लिए जगह-जगह नहीं जा सकते हैं। ऐसे में बीमार ऊंटों को इन पारंपरिक चिकित्सकों तक लाने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। ऊंटों का रखान चुनौतीपूर्ण बनता जा रहा है। नई पीढ़ी तो यह भी नहीं जान पाएगी कि रेगिस्तान का जहाज कहे जाने वाले ऊंट कभी इटावा जनपद की शान हुआ करते थे और बहुतायत में पाए जाते थे।