मनोज मोक्षेंद्र-

जब रंजन बाबू और रेहाना के सिर कलम करने के लिए शहर के इमाम का फतवा जारी हुआ और हिंदू मठाधीशों द्वारा दोनों को पकड़ते ही जिंदा जला देने की घोषणा आई तो मोहले को मन ही मन बेहद खुशी हुई, जबकि मारिया की रूह कांप उठी। बेशक, उसके दिल में रेहाना और रंजन बाबू के प्रति हमदर्दी थी।

सिर के आगे के बाल उड़े हुए और पीछे के रूई के फाहे जैसे, आपस में उलझे और गर्दन के नीचे तक लहराते हुए- ऐसा लगता है कि उन्हें बचपन से लंबे बाल रखने का शौक रहा होगा, जो अभी तक कायम है। बेशक, यही सच है। मोहल्लेवाले बताते हैं कि उन दिनों वे रोमांटिक कविताएं भी लिखा करते थे, पर शादी के बाद वह रोमानी लौ की लपट गुल हो गई और कविताई उनके मन के किसी कोने में दफ्न हो गई। फिर, जब पत्नी की अकाल मृत्यु हुई तो उन पर अचानक बुढ़ापा तारी होने लगा।

विधुर होने के बाद वे जरूरत से ज्यादा चिड़चिड़े हो गए थे। उनमें आई इस तब्दीली की कई वजहें हो सकती हैं। पत्नी की मौत के कोई साल भर बाद वे पेंशनभोगी होकर घर पर ही रहने लगे थे। लेकिन कुल मिला कर तीन साल भी बहू-बेटों का सुख नहीं भोग पाए थे। उन्होंने पता नहीं क्यों एक वृद्धाश्रम में आकर शरण ले ली। हो सकता है कि दोनों बहुओं ने उनके खिलाफ अपने-अपने पतियों के कान भरे हों और फिर उनके बेटों ने उन्हें निकाल बाहर किया हो। ऐसा ही रहा होगा, क्योंकि जब कभी उनके बहू-बेटों के बारे में कुछ पूछा जाता तो उनकी भौंहें तन जातीं और आवेश में बदन कांपने लगता था। थे भी वे बड़े स्वाभिमानी किस्म के, किसी की उपेक्षा उन्हें बर्दाश्त नहीं होती थी।

एक बार वे आश्रम के प्रबंधक मोहित मोहले पर ही लाल-पीले हो उठे। बात सिर्फ इतनी थी कि मोहलेजी ने उनके बाहर बारिश में बैठने पर एतराज जताया था- ‘रंजन बाबू! बेहतर होगा कि आप कमरे में जाएं। आजकल वायरल बुखार का प्रकोप है; जानते ही हैं कि डॉक्टर जैन ने अब मुफ्त में हमारे आश्रम के बुजुर्ग बीमारों को देखने से साफ मना कर दिया है। अब उन्हें बेसहारा लोगों से भी पैसे की तलब लग गई है।’
मोहलेजी की बातों पर रंजन बाबू की भृकुटियां तन गई थीं। फिर, जब मोहलेजी छाता लेकर उन्हें खुले आसमान के नीचे से छाए में लेने आए तो वे उन पर बरस पड़े- ‘आप क्या समझते हैं कि मैं अनाथ-अकिंचन हूं?

मुझे किसी के सहारे की जरूरत है? या, मुझे एक लावारिस की तरह इस आश्रम में निपटाया गया है? अरे, आप कान खोल कर सुन लो; मैं रईस आदमी हूं, शहर में मेरी दो-दो कोठियां हैं। मेरे दोनों बेटे सरकारी महकमों में क्लास-वन अफसर हैं। बहुएं भी मल्टी नेशनल कंपनियों में अच्छा-खासा कमाती हैं। पोते शिमला के महंगे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं। सो, आप समझ लो कि मैं किस हैसियत का आदमी हूं। मैं तो अपनी खुशी से यहां रहता हूं। मस्त-मौला मिजाज का आदमी हूं। बस, आजाद रहना चाहता हूं। हां, मैं बूढ़ा कतई नहीं हूं। मैं तेज रफ्तार से टहल लेता हूं और दौड़ कर बस और ट्रेन भी पकड़ लेता हूं। अरे, मैं जवान हूं जवान। मुझे निरीह और बेचारा समझने की भूल कतई मत करना। मैं तो यहां अपने मन से रहता हूं। मुझे मेरे घर वालों ने खदेड़ा नहीं है। मैं खुद यहां आया हूं। आप अपना यह आश्रम संभालो, मैं तो चला अपने घर- अपने बच्चों और पोतों के साथ मौज करने।…’

मोहलेजी को पहली बार लगा कि उन्होंने रंजन बाबू से इस तरह बात करके बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। फिर जब रंजन बाबू तेजी से आंगन लांघते हुए अपने कमरे की ओर लपके तो उनकी तुनकमिजाजी से परिचित आश्रम के कई बुजुर्गों ने उन्हें घेर लिया। उनसे मिन्नतें करने लगे कि उनके जाते ही वृद्धाश्रम की रौनक खत्म हो जाएगी। वे सभी उन्हें आश्रम में रहने के लिए मान-मनौव्वल करने लगे। फिर भी वे इतनी आसानी से कहां मानने वाले थे? यह कहिए कि उसी वक्त रेहाना वहां आ धमकी और उसने रंजन बाबू के दोनों हाथ पकड़ कर आंखों में आंखें डाल कर बोली- ‘अच्छा तो ऐसे ही निभाओगे मेरे साथ याराना। मैंने तुमसे पहले भी कहा है कि तुम ऐसे ताव खाकर बात मत किया करो। और हां, फिर कभी ऐसे निकल भागने की कोशिश की तो तुम मेरा मरा मुंह देखोगे।…’
रेहाना के इस तरह बात करने से वहां मौजूद लोग भौंचक रह गए- ऐसी डांट तो किसी मर्द को उसकी लुगाई ही लगा सकती है।
रेहाना से आगे फिर कुछ कहते नहीं बना। वह जज्बाती होकर फफक उठी। रंजन बाबू किसी के आगे खामोश रहने वाले कहां थे? पर, उन्होंने रेहाना के आगे अपना सिर झुका दिया। वे वापस अपने कमरे में चले गए।

चुनांचे, उस दिन के बाद से आश्रम में अजीब-सा माहौल बन गया। रेहाना-रंजन के बीच संबंध को लेकर कानाफुसियों और अटकलबाजियों का। बहरहाल, उस दिन के बाद से रंजन बाबू ने आश्रम में अपना गुस्सा और नखरा दिखाने से भी तौबा कर लिया। पहले की तरह सबके साथ उठने-बैठने लगे- जैसे कुछ हुआ ही न हो। उन्होंने अगले दिन ही मैदान में रोज की तरह मजमा लगा लिया- अपने चहेतों को सबक देते हुए, चुटकुले सुनाते हुए, मसखरेबाजी करते हुए और कुछ शेरो-शायरी सुनाते हुए। सब तो उनके दीवाने पहले से थे।

पर, आश्रम में एक दिन नागवार वाकया पेश आया। वह शनिवार का दिन था। कोई दस बजे तक जब रंजन बाबू अपने कमरे से बाहर नहीं आए तो आश्रम में खुसुर-फुसुर होने लगी- इतनी देर तक तो रंजन बाबू सोते ही नहीं। तब, मोहलेजी ने खिड़की से झांक कर उनके कमरे का मुआयना किया। फिर, उढ़के हुए दरवाजे को आहिस्ता से खोल कर अंदर नजर दौड़ाई- रंजन बाबू नदारद थे! तभी उनको सूचना मिली कि रेहाना भी अपने कमरे में नहीं है। दोनों अपने कमरों से गायब थे। घंटों उनकी छान-बीन होती रही- बाग में, पार्क में, झाड़ियों में, गलियारों में और सामने सड़क पर भी। किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि दोनों एक साथ आश्रम छोड़ गए हैं। पर, वे गए होंगे तो साथ ही। वे यह भी कयास लगा रहे थे कि कहीं रंजन बाबू शरारत करने की गरज से कोई नौटंकी तो नहीं खेल रहे हैं और कहीं से अभी प्रकट होकर आश्रमवालों की बेचैनी पर ठहाके लगाने लगेंगे।…
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मगर दोनों ने भाग कर शादी कर ली थी। आश्रमवालों के लिए यह घटना किसी दुस्वप्न जैसी थी। सरवन वृद्धाश्रम में ऐसी घटना पहले कभी नहीं हुई। जिले के सभी अखबारों में आश्रम से बुजुर्ग प्रेमी-युगल के इस तरह पलायन की खबर को खूब नमक-मिर्च लगा कर पेश किया गया था। सभी शहरियों की जबान पर रंजन-रेहाना प्रेम-प्रसंग की चर्चाएं लतीफों के रूप में कही-सुनी जा रही थीं। प्रबंधक मोहलेजी तो आपे से बाहर हुए जा रहे थे। आखिर क्यों न हों, उनके वृद्धाश्रम की बदनामी जो हो रही थी। उन्हें यह डर भी खाए जा रहा था कि बुजुर्गों की मदद के लिए उन्हें जो सरकारी अनुदान मिल रहा है, वह कहीं बंद न हो जाए।
आश्रम के बुजुर्गों को भी इस बात का बिल्कुल अंदेशा नहीं था कि ऊंचे सामाजिक मूल्यों की बात करने वाले रंजन बाबू इतनी ओछी हरकत कर जाएंगे। बुढ़ापे में इश्क का बुखार उतारने के लिए किसी बुढ़िया को भगा ले जाएंगे। पर, उन्होंने इस काम को बड़े ऐलानिया ढंग से अंजाम दिया था। अपने कमरे में आश्रम के प्रबंधक के नाम जो पत्र छोड़ गए थे, उसमें उन्होंने साफ-साफ ऐलान किया था कि वे और रेहाना इस काम को पूरे होशो-हवास में कर रहे हैं और उनके इस कृत्य को वैवाहिक सूत्र में बंधने के रूप में स्वीकार किया जाए।
ताज्जुब है कि रंजन बाबू ने ऐसा गलत कदम कैसे उठाया? वृद्धाश्रम में उनके गुणों के सभी कायल थे। बड़े पढ़ाकू किस्म के सज्जन व्यक्ति थे वे और आश्रम में आने वाले सभी अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं का कोना-कोना चाट जाते थे। अंगूठाछाप रेहाना तो उनके इस पढ़ाकू स्वभाव पर ही लट््टू थी। रंजन बाबू रेहाना के चंचल स्वभाव पर फिदा थे और उसके हर सवाल का जवाब मुस्कराते हुए देते। वे रेहाना की बातों में ज्यादा दिलचस्पी रखते और उसकी आंखों में आंखें डाल कर, बार-बार मूछें सहलाते हुए तब तक सफाई देते रहते जब तक कि रेहाना की जिज्ञासा शांत न हो जाती।
जब दूसरे बुजुर्ग कलेवा करने के बाद अपने बिस्तरों में लेटे रहते तो गरमी की दुपहरी की चिलचिलाती धूप में या सर्दियों की शाम कुहरे से ढंकी ठंड में रेहाना और रंजन बाबू को ज्यादातर पीपल के नीचे बतियाते हुए देखा जा सकता था। लोग फिकरे कसते- छोड़ो, इन लप्पेबाज मनचले बूढ़े-बुढ़िया को!
रेहाना के बगल वाले बिस्तर पर चौबीसों घंटे आराम फरमाने वाली मारिया अकेले में उसके साथ चुटकियां लेती। पिछले सोमवार को तो हद ही कर दी उसने। मारिया ने रेहाना की कमर में हाथ डालते हुए उसके माथे पर बिखरे बालों को पीछे की ओर समेटा और बोल पड़ी- ‘रुहू, तेरे बात-व्यवहार और जिस्मानी डील-डौल से ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि तू बेसहारा बुढ़िया है, जिसे उसके घरवाले रेलवे प्लेटफार्म पर छोड़ गए थे। अच्छा यह बता कि तेरा रंजन बाबू से कैसा रिश्ता है? मैं तेरी आंखों में झांक कर अच्छी तरह ताड़ चुकी हूं कि दोनों के बीच कुछ ऐसा-वैसा चल रहा है। पर, इस बुढ़ापे में इश्कियाना हरकतें करने से क्या फायदा मिलने वाला है?…’
जवाब में रेहाना तुनक उठी- ‘तुम्हें क्या पता, इश्क का बुखार चढ़ते ही इंसान क्या हो जाता है? हां, सातवें आसमान पर उड़ने लगता है। उम्र, मजहब और जात-पांत को तो लात मारो। ये सब बकवास है। मेरी बात मान लो; तुम भी किसी से टांका भिड़ा लो- यहीं किसी रंजन बाबू किस्म के रसिया आदमी के साथ। सच कहती हूं, तुम भी मेरी तरह जवान हो जाओगी।’
मारिया को आश्चर्य नहीं हुआ कि रेहाना ने अपनी मुहब्बत कबूल कर ली थी।
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यह खबर जंगल की आग की तरह पूरे शहर में फैल चुकी थी। शाम को रंजन बाबू और रेहाना के घरवाले आश्रम में आ धमके और उन्होंने इस घटना पर प्रबंधक के सामने सख्त एतराज दर्ज कराया। मोहलेजी ने उन्हें आश्वस्त किया- ‘जैसे ही दोनों के बारे में कोई जानकारी मिलेगी, आप लोगों को तत्काल इत्तला कर दिया जाएगा।’
पर, रेहाना के घर वाले बगावत पर उतारू थे। वे इस बात पर बवाल कर रहे थे कि आखिर, एक हिंदू मर्द ने किसी मुसलमान औरत के साथ रिश्ता कैसे कायम कर लिया। बहरहाल, किसी तरह उन्हें समझा-बुझा कर वापस भेजा गया।
लिहाजा, रंजन बाबू से चिढ़े हुए आश्रम के कुछ बुजुर्गों ने पुलिस को यह खबर पहुंचा दी कि सरवन वृद्धाश्रम में कुछ गैर-कानूनी गतिविधियां चल रही हैं, जिनसे आश्रम के बुजुर्गों के चरित्र पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। शाम को जब पुलिस ने आकर पूछताछ शुरू की तो प्रबंधक मोहले के गुस्से का पारावार नहीं रहा। वे पुलिसवालों के आगे रपट लिखाते-लिखाते बेचैन हुए जा रहे थे और जब पुलिसवाले लौट गए, तो उन्होंने वहां मौजूद सारे बुजुर्गों की जम कर खबर ली और फिर शाम के कोई आठ बजे उन्हें एक मीटिंग में हाजिर होने का फरमान भी जारी कर दिया।
रेहाना-रंजन प्रेम-प्रसंग ने मजहबी रंग ले लिया। सरवन वृद्धाश्रम के चारों ओर पुलिस के घेराव की खबर भी सुर्खियों में आ गई, क्योंकि दंगाइयों ने सांप्रदायिक कारणों से आश्रम को बम से उड़ाने का एलान कर रखा था। ऐसे में, प्रबंधक मोहले- रंजन बाबू और रेहाना बेगम को चुन-चुन कर गालियां दे रहे थे। आश्रम के बुजुर्गों ने जनानियों से खास दूरियां बना ली थीं, जबकि मारिया को इस बदले माहौल में बड़ा मजा आ रहा था। वह पूरे आश्रम में घूम-घूम कर इश्क के गाने गा रही थी और बार-बार खुशमिजाज नसीर मियां के कमरे के सामने खड़ी होकर उनसे बातें करने लगती थी। दीपू दद्दा भुनभुना रहे थे- लगता है, जल्दी ही एक और प्रेम-प्रपंच से दो-चार होना पड़ेगा। मारिया के इस आचरण पर प्रबंधक मोहले दांत पीस कर रह जाते, क्योंकि आश्रम के बुजुर्गों पर सख्ती किए जाने की वजह से उनकी मानवतावादी छवि धूमिल पड़ रही थी। मगर जब रंजन बाबू और रेहाना के सिर कलम करने के लिए शहर के इमाम का फतवा जारी हुआ और हिंदू मठाधीशों द्वारा दोनों को पकड़ते ही जिंदा जला देने की घोषणा आई तो मोहले को मन ही मन बेहद खुशी हुई, जबकि मारिया की रूह कांप उठी। बेशक, उसके दिल में रेहाना और रंजन बाबू के प्रति हमदर्दी थी।
आश्रम के लोगों में भी दोनों के प्रति सहानुभूति उमड़ने लगी। मारिया रंजन बाबू के कुछ शुभचिंतकों को लेकर प्रबंधक के कार्यालय में जा पहुंची और उसने उनसे दर्ख्वास्त किया कि ये उनकी नैतिक जिम्मेदारी है कि वह दोनों को सुरक्षित आश्रम में लाने के लिए हर संभव प्रयास करें। पर, वह तो गुरूर में ऐंठे हुए थे। उन्होंने कहा- ‘रंजन-रेहाना को अब कोई भी नहीं बचा सकता, क्योंकि उन्हें अपनी करनी का फल भुगतना ही होगा।’
मारिया ने कहा- ‘रंजन बाबू और रेहाना की मुहब्बत जिस्मानी तो थी ही नहीं कि इसे बुरी नजर से देखा जाए। दरअसल, उनका प्रेम आत्मिक था। इसके अलावा, बुढ़ापे में किसी विधुर और विधवा को जीवनसाथी मिल जाए तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है? बच्चों ने उन्हें वृद्धाश्रम में लावारिस छोड़ दिया था। यह आश्रम बेसहारा बुजुर्गों को आत्मनिर्भर बनाने का दावा करता है और जब दो बुजुर्ग सचमुच आत्मनिर्भर हो गए, तो इसमें हमें खुशी होनी चाहिए। उन्होंने इस आश्रम को भी अपने प्रति जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया है। मेरा तो मानना है कि हमें दूसरे बुजुर्गों को भी उसी राह पर चलने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, जिस पर रंजन-रेहाना गए हैं। दरअसल, उन्होंने तो अपने इस कृत्य से अपने स्वार्थी और भावना-शून्य बहू-बेटों के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ा है। देखिए, जब उन्हें लगा कि उनके बूढ़े मां-बाप के कारण उनकी बदनामी हो रही है तो वे यहां शिकायत करने आ गए। लेकिन, जब वे इस आश्रम में कई बार डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर और चिकनगुनिया के कारण मौत के मुंह में जाते-जाते बचे तो वे उन्हें देखने तक नहीं आए। मैं तो समझती हूं कि रंजन बाबू ने रेहाना से विवाह जानबूझ कर किया है, ताकि वे अपने मतलबी परिवारवालों को एक सबक सिखा सकें।’
उस वक्त, प्रबंधक मोहले का मन भी डोल गया; उनको मारिया की बातें सौ फीसद जायज लगीं। मन के एक कोने से आवाज आई- ठीक ही तो कह रही है मारिया। वे आत्ममंथन करते हुए जड़वत से हो गए। फिर, कुछ सोचते हुए उनकी पलकें भींग गर्इं। शायद उन्हें अहसास होने लगा था कि रेहाना और रंजन बाबू के प्रति उन्हें मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
अगले दिन, जब आश्रम में अखबार की सुर्खियों में फिर रंजन बाबू और रेहाना के बारे में छपी खबर पढ़ी गई तो माहौल में आई मनहूसियत की सीलन समाप्त हो गई और खुशी की बयार बहने लगी। प्रबंधक मोहले चीत्कार कर उठे- ‘भई, मान लिया रंजन बाबू के दिमाग का लोहा। लो, अब तो उन्होंने हिंदू-मुसलमान दोनों के मुंह पर जोरदार तमाचा जड़ दिया है। अब बलवाइयों के दंगा-फसाद करने की कोई वजह ही नहीं बनती।’
खबर थी कि आश्रम से निकलते ही रंजन बाबू सीधे बौद्ध मठ गए थे। वहां वे रेहाना समेत बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए। बौद्ध बनने के बाद ही उन्होंने शादी की। शहर में दंगा करने पर आमादा हिंदू और मुसलमान दोनों संप्रदायों का मुंह शर्म से झुक गया।
मोहलेजी सरवन आश्रम के बाहर जायजा लेने आए तो देखा कि आश्रम के चारों ओर से पुलिस गश्त उठा ली गई थी। माहौल से चैन-सुकून की खुशबू आ रही थी। ०