नगर निगम उपचुनाव में पांच सीटें जीतकर दिल्ली की राजनीति में वापसी करने वाली कांग्रेस के नेता इन दिनों आपस में ही लड़ रहे हैं। पार्टी के कई बड़े नेता पार्टी नेतृत्व पर उन्हें नजरअंदाज करने का आरोप लगा रहे हैं। जिन शीला दीक्षित को दिल्ली कांग्रेस का तारणहार माना जाता था, उनके पुत्र व पूर्वी दिल्ली के पूर्व सांसद संदीप दीक्षित भी आज उनसे जुड़े लोगों की उपेक्षा का आरोप लगा रहे हैं। वहीं जिन जय प्रकाश अग्रवाल ने प्रदेश अध्यक्ष रहने के दौरान शीला दीक्षित से संवादहीनता बनाए रखी, वही आज उनके साथ बताए जा रहे हैं।
ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि पूर्व पार्षद जितेंद्र कोचर के साथ इस मुद्दे पर जो लोग कांग्रेस के दिल्ली प्रभारी पीसी चाको से मिले उनमें ज्यादातर अग्रवाल के करीबी थे। पार्टी नेतृत्व की ओर से अभी कोई अधिकृत बयान नहीं आया है जिसके कारण दिल्ली का भी कोई नेता खुलकर बोलने को तैयार नहीं है। ज्यादातर नेता यही कहते हैं कि फिलहाल चुनौती कांग्रेस को फिर से खड़ा करने की है। गुटबाजी तो कांग्रेस की नियति है, लेकिन इस समय जब कांग्रेस अपना वजूद तलाश रही है, ऐसे में कुछ भी बोलने पर पार्टी की जगहंसाई ही होगी।
15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रहने के दौरान शीला दीक्षित ने अलग तरह की राजनीति की। कांग्रेस के परंपरागत गुट कमजोर पड़ गए, लेकिन खत्म नहीं हुए थे। दीक्षित के करीबी माने जाने वाले अजय माकन, डॉक्टर अशोक कुमार वालिया, अरविंदर सिंह लवली उनके विरोधी हो गए। चौधरी प्रेम सिंह, सज्जन कुमार और सुभाष चोपड़ा जैसे नेता विरोधी थे ही। एचकेएल भगत, दीपचंद बंधु, जगप्रवेश चंद्र, महिंद्र सिंह साथी और रामबाबू शर्मा के न रहने से उनकी जगह दूसरों ने ले ली। जय प्रकाश अग्रवाल प्रदेश अध्यक्ष बनने के समय तक तो दीक्षित के साथ थे, लेकिन कई मुद्दों पर मतभेद होने के बाद दोनों के संबंध खराब हो गए।
एक समय ऐसा आया जब कहा जाने लगा कि इन दोनों नेताओं को लड़ाकर कांग्रेस नेतृत्व खुद पार्टी को खत्म करने में लग गया है। शीला दीक्षित जब तीसरी बार दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं, तो उनकी लोकप्रियता घटने लगी और लोगों से दूरी बढ़ने लगी। उन पर यह आरोप लगने लगा कि वे कुछ खास लोगों से ही घिर गई हैं। यह भी कहा जाने लगा कि अगर तीसरी बार उनके बजाए कोई और मुख्यमंत्री बना होता तो 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति न होती। 2015 के चुनाव में तो मुसलमानों ने भी आम आदमी पार्टी (आप) को वोट दिया जिसके कारण कांग्रेस को इतिहास में पहली बार दस फीसद से भी कम वोट मिले।
यह पहली बार है, जब विधानसभा में कांग्रेस का एक भी सदस्य नहीं है। हार के बाद जिस तरह से शीला दीक्षित के अपने बेगाने हुए, उससे यह तय हो गया कि अब दिल्ली में उनका कोई राजनीतिक भविष्य नहीं है। शीला दीक्षित के दम पर ही उनके पुत्र संदीप दीक्षित की दिल्ली में तूती बोलती थी, लेकिन अब उन्हीं संदीप दीक्षित पर कार्यकर्ताओं की उपेक्षा के आरोप लग रहे हैं। वहीं कांग्रेस नेतृत्व को जब यह महसूस हुआ कि शीला दीक्षित की उपयोगिता अब दिल्ली से ज्यादा उत्तर प्रदेश में है तो उन्हें उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया।
मई में नगर निगमों की 13 सीटों पर हुए उपचुनाव में पांच सीटें जीतने के बाद दिल्ली में कांग्रेस की वापसी के संकेत मिलने लगे हैं। वहीं गैर-कानूनी ढंग से संसदीय सचिव बनाए गए आप के 21 विधायकों की सदस्यता रद्द करने के मामले में चुनाव आयोग में सुनवाई चल रही है। अगर विधायकों की सदस्यता रद्द होती है, तो दिल्ली में फिर उपचुनाव होंगे। ऐसे में कांग्रेस के आपसी झगड़े से इसकी तैयारी पर तो असर पड़ ही रहा है, साथ ही पार्टी का मजाक भी बन रहा है। एक तरफ कांग्रेस अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है, वहीं दूसरी ओर कुछ नेता अपनी उपेक्षा का रोना रो रहे हैं। इनमें ऐसे लोग भी शामिल है जिन्होंने सत्ता में रहते हुए खुद वही काम किया।

