नौकरियों में बढ़ते तनाव और कार्य संस्कृति में बदलाव की जितनी बातें आज हमारे देश में कही-सुनी जा रही हैं, उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं के साथ तालमेल बिठाने और दुनिया की ताकतवर कंपनियों से आगे निकलने का दबाव भारतीय कंपनियों पर काफी बढ़ गया है। नतीजा यह कि कभी हर हफ्ते न्यूनतम सत्तर घंटे काम करने की जरूरत रेखांकित की जाती हैं, तो कभी तनाव की बात स्वीकार करने पर कर्मियों को काम से ही हटाने का फरमान जारी करने की खबर आती है।
देश-दुनिया में आज ऐसे लोगों की कमी नहीं जो राष्ट्र निर्माण के लिए जुनून की हद तक जुटने के पक्ष में हैं। यह पूरा विमर्श तब और ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है, जब पता चलता है कि सिर्फ आबादी बहुल देशों में ही नहीं, बल्कि अमेरिका तथा ब्रिटेन जैसे विकसित मुल्कों में भी ऐसी ही जुनूनी कार्य संस्कृति की मांग उठ रही है, ताकि अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो सके और रोजगार क्षेत्र में संकट को दूर किया जा सके। हाल में नोएडा की एक कंपनी ने अपने कर्मचारियों के कामकाजी माहौल के बीच तनाव पैदा होने संबंधी सर्वेक्षण कराया। कई कर्मचारियों ने स्वीकार किया कि काम के दबाव के कारण वे तनाव में हैं या उनकी मानसिक स्थिति पर असर पड़ रहा है।
कर्मचारियों में तेजी से बढ़ रहा मानसिक तनाव
सर्वेक्षण में मानसिक तनाव स्वीकार करने वाले सौ कर्मचारियों को नौकरी से निकाल देने की खबर आई। कंपनी के मानव संसाधन विभाग ने अपने कर्मचारियों को पत्र लिखा कि प्रतिक्रियाओं पर गंभीर विमर्श के बाद तनाव की बात कहने वाले कर्मियों को कंपनी से अलग करने का निर्णय किया गया है। उद्देश्य है कि कोई भी कर्मचारी काम के दौरान तनाव में नहीं रहे। हालांकि सोशल मीडिया पर इस फैसले की आलोचना के बाद कंपनी ने सफाई दी कि कर्मचारियों को नौकरी से हटाया नहीं गया, बल्कि सर्वेक्षण का उद्देश्य कार्यस्थल पर दबावों और तनाव से जुड़ी समस्याओं को उजागर करना था। साथ ही, जिन कर्मचारियों ने तनाव की बात कही है, उन्हें यह कंपनी कुछ समय आराम करने के लिए अवकाश और अन्य सहूलियतें दे रही है, ताकि वे नई ऊर्जा के साथ काम में जुट सकें।
यह संभव है कि कंपनी का सर्वेक्षण, कर्मचारियों की प्रतिक्रिया और सोशल मीडिया पर उस कंपनी के प्रति उपजा आक्रोश एक सोची-समझी प्रचार की रणनीति हो। मगर सच है कि भारतीय कंपनियों में यह अवधारणा गहरे तक पैठी हुई है कि उनके देश की कार्य संस्कृति में मूलभूत बदलावों की जरूरत है, ताकि वैश्विक कंपनियों से मुकाबला किया जा सके। उनकी इस सोच के पीछे इस मानसिकता की अहम भूमिका है कि भारतीय कर्मचारी कम पेशेवर होते हैं। इस धारणा के मुताबिक वे आदतन आलसी होते हैं। देश के ज्यादातर सरकारी कार्यालयों में ये दृश्य बेहद आम रहे हैं कि कर्मचारी या तो वक्त पर दफ्तर नहीं आते या फिर पूरे दिन अपनी कुर्सी से गायब रहते हैं। सरकारी दफ्तरों में तो कर्मचारियों को समय पर उपस्थित देखना असंभव-सी बात मानी जाती है। यही वजह है कि अब ज्यादातर सरकारी कार्यालयों और स्कूलों में उपस्थिति दर्ज करने की बायोमीट्रिक प्रणाली लगाई जा रही है। कामकाज के आकलन के लिए सालाना मूल्यांकन व्यवस्था को लागू किया जा रहा है।
निजी कंपनियों में ज्यादा सख्ती का माहौल
बड़ी निजी कंपनियों में इससे ज्यादा सख्ती का माहौल है। कामकाज के वैश्विक मानकों को लागू करने वाली एक आइटी कंपनी के संस्थापक कह चुके हैं कि अगर भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाना है तो युवाओं को हर हफ्ते सत्तर घंटे काम करना होगा। उनके इस कथन का समर्थन हुआ तो विरोध भी। सिर्फ पश्चिमी मुल्क ही नहीं, बल्कि एशिया के ही कई ऐसे देशों की मिसाल दी जाती है कि किस प्रकार वहां की युवा आबादी ने ज्यादा काम कर देश की आर्थिक प्रगति सुनिश्चित की है। मसलन, जापान के बारे में दावा किया जाता है कि वहां कर्मचारी न केवल ज्यादा काम करते हैं, बल्कि वे सालाना नौ दिन की छुट्टियां भी नहीं लेते हैं। जबकि नौकरी की उनकी शर्तों में इससे दोगुने से ज्यादा छुट्टियां मिलती हैं।
पड़ोसी चीन में नियोक्ता अपने कर्मचारियों से ज्यादा काम करने की अपेक्षा करते हैं। चीन में एक मशहूर ई-कामर्स कंपनी के संस्थापक भी कह चुके हैं कि कर्मचारियों को हर दिन सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक काम करने की जरूरत है और पांच कार्य दिवसों वाली परंपरा फिजूल है। दूसरी ओर, एक उदाहरण आस्ट्रेलिया का भी है, जहां दफ्तर से घर आने के बाद फोन या ईमेल का जवाब देने की जरूरत ‘राइट-टू-डिस्कनेक्ट’ के अधिकार के कारण महसूस नहीं की जाती।
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पश्चिमी देशों में कुछ अंतर और भी हैं। जैसे, वहां किसी भी नौकरी या व्यवसाय के तहत काम के घंटों का समायोजन इस प्रकार किया जाता है, जिससे कर्मचारी की निजी और सामाजिक जीवनशैली नकारात्मक रूप से प्रभावित नहीं हो। ‘वर्क-लाइफ बैलेंस’ यानी काम और जिंदगी के बीच संतुलन कायम रखने की नीति के अंतर्गत यूरोपीय-अमेरिकी देशों में सरकारें और निजी कंपनियां यह हिसाब-किताब भी रखती हैं कि कहीं कर्मचारी ने साल में जरूरत से कम छुट्टियां तो नहीं लीं। या फिर कर्मचारी आवश्यकता से अधिक समय दफ्तर में तो नहीं रुक रहा है।
ब्रिटेन-अमेरिका में 34 घंटे काम करने की अपेक्षा
अब एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि भारतीय कर्मचारियों को पहले से ज्यादा काम करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। यह बात तथ्यात्मक रूप से सच है कि भारत में अब कर्मचारियों से पहले के मुकाबले ज्यादा काम करने की अपेक्षा की जा रही है। एक आकलन के अनुसार पचास साल पहले भारतीयों को एक हफ्ते में औसतन उनतालीस घंटे काम करना होता था, लेकिन अब वह औसत बढ़ कर पैंतालीस घंटे हो चुका है।
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दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में तो यह औसत साठ घंटे तक पहुंच चुका है, जबकि ब्रिटेन-अमेरिका आदि विकसित मुल्कों में कर्मचारियों से प्रति सप्ताह सिर्फ चौंतीस घंटे काम करने की अपेक्षा की जाती है। अगर ऐसा सोचा जा रहा है कि बेइंतहा दबाव और तनाव पैदा करने से उत्पादकता में बढ़ोतरी संभव है, तो इस मसले पर किए गए शोध-अध्ययनों पर गौर किया जाना चाहिए। करीब बीस साल पहले के एक शोध का नतीजा यह था कि अगर कर्मचारियों को नए-नए ईमेल भेज कर या फोन से आदेश देकर दबाव और तनावों में उलझाया न जाए, तो वे अपने काम पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर पाते हैं। हालांकि कोई प्रोत्साहन पाकर कर्मचारी खुशी-खुशी ज्यादा दबाव झेल जाते हैं।
अमेरिका में 88 फीसद कर्मचारी अपने काम से खुश
पश्चिमी देशों में श्रमिक हितैषी नीतियों का परिणाम कर्मचारियों की बढ़ती संतुष्टि के रूप में निकला है। दावा है कि इन नीतियों से यूरोप में चौहत्तर फीसद, तो अमेरिका में अठासी फीसद कर्मचारी अपने काम से खुश बताए जाते हैं। उत्पादकता बढ़ाने के लिए तनाव प्रबंधन का यह कौशल भारत में काम कर रहीं कंपनियों को भी सीखना चाहिए, अन्यथा नौकरी में तनाव के सर्वेक्षण और कर्मचारियों के फर्जी निष्कासन के प्रचार की नीतियां उन्हें श्रम बाजार में विश्वसनीयता की कसौटी पर प्रतिगामी ही ठहराएंगी। इससे न तो कर्मचारियों का भला होगा और न ही उत्पादकता में वह इजाफा होगा जो उन्हें पश्चिमी देशों की कंपनियों के मुकाबले में ला खड़ा करे।