प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल अपने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर देश को संबोधित करते हुए कहा था, “2022 में भारत का पहला अपना विमान अंतरिक्ष में जाएगा। इसके साथ ही भारत अंतरिक्ष में मानव भेजने वाला चौथा देश बन जाएगा। या तो देश का कोई बेटा या बेटी अपने हाथ में तिरंगा लेकर अंतरिक्ष में जाएगा।” यह तो देखने वाली बात होगी कि इसरो अंतरिक्ष में पुरूष को भेजते हैं या महिला को। लेकिन वह मिशन, जो भारत को एक नई पहचान देगा, की कमान एक महिला वैज्ञानिक डॉ. वीआर ललिथंबिका के हाथों में है। करीब अंतरिक्ष विज्ञान में करीब 30 साल का अनुभव रखने वाली ललिथंबिका महत्वकांक्षी मिशन गगनयान की प्रमुख हैं। ललिथंबिका बचपन से ही घर में रॉकेट लॉन्च देखते हुए बड़ी हुई। 56 वर्षीय ललिथंबिका पिछले साल 15 फरवरी 2017 को रिकाॅर्ड 104 उपग्रह को लॉन्च करने वाली टीम की न सिर्फ एक प्रमुख सदस्य रही हैं, बल्कि उन्होंने 100 से अधिक अंतरिक्ष मिशन के सफलतापूर्वक निष्पादन में एक प्रमुख भूमिका निभाई हैं।
टाईम्स ऑफ इंडिया को दिए एक साक्षात्कार में ललिथंबिका ने इसरो से जुड़े अपने अनुभवों को साझा किया। साथ मानव अतंरिक्षयान से जुड़े पहलुओं पर भी चर्चा की। उन्होंने बताया, “हाल ही में इसरो मुख्यालय में मानव अंतरिक्ष कार्यक्रम निदेशालय स्थापित किया गया है। यहां मेरा पद डीएचएसपी के निदेशक का है। हम मिशन को पूरा करने के लिए इसरो अध्यक्ष के मार्गदर्शन में काम करेंगे।” अंतरिक्ष के बारे में अपनी रूचि बताते हुए वे कहती हैं, मेरे दादा जी एक गणितज्ञ के अलावा खगोलविद और गैजेट निर्माता भी थे। वे घर पर खुद लेंस, दूरबीन और माइक्रोस्कोप बनाते थे। बचपन से ही मैं अपने घर में साइंस और टेक्नोलॉजी से अवगत होती रही। तिरुवनंतपुरम में हमारा घर थंबू रॉकेट परीक्षण केंद्र के बहुत करीब था। मैं घर से रॉकेट लॉन्च देख सकती थी। मेरे दादाजी ने मुझे शाम को होने वाले सभी लॉन्च के बारे में बताते थे और मुझे इसरो के बारे में भी जानकारी दी। इस वजह से बचपन से ही मेरा आकर्षण इसरो की तरफ हो गया। मेरे पिता भी एक इंजीनियर थे और मेरे पति के का भी इंजीयनरिंग बैकग्राउंड है। हमारा परिवार इंजीनियरों का परिवार है।”
ललिथंबिका आगे कहती हैं, “मैंने तिरुवनंतपुरम में इंजीनियरिंग कॉलेज से बी.टेक किया और कॉलेज टॉपर थी। तब मैंने शादी कर ली और बाद में उसी कॉलेज से नियंत्रण इंजीनियरिंग के क्षेत्र में एम.टेक किया। मेरी अधिकांश उपलब्धियां मेरी शादी के बाद मिली। जब मैं 1988 में इसरो के विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर में शामिल हुई, तब मेरा बच्चा दो साल का था। लेकिन मेरी पढ़ाई डिस्टर्ब न हो, इसलिए घर की जिम्मेवारी मेरे पति ने उठा ली। बाद में मेरा एक और बच्चा हुआ। मैं अपने परिवार के सपोर्ट की बदौलत पीएचडी पूरा कर सकी। अपने माता-पिता और पति की बदौलत मुझे इतना समय मिल जाता था कि इसरो के लिए वक्त दे सकूं।”
महिला वैज्ञानिक ने कहा, “इसरो में अपने 30 साल के कार्यकाल में मैंने सफलता और असफलता दोनों का स्वाद लिया। 1988 में इसरो में शामिल होने के करीब 2-3 महीने बाद हमने दूसरे एएसएलवी और उसके बाद पहली पीएसएलवी की असफलता देखी। हांलांकि, इस असफलता से हमने काफी कुछ सीखा। हमने सिमुलेशन पर ध्यान केंद्रित किया। उसके बाद से पीएसएलवी के मामले में हम कभी असफल नहीं हुए। मैं एक योग्य नियंत्रण इंजीनियर हूं। मैंने पीएसएलवी के साथ एक नियंत्रण इंजीनियर के रूप में शुरुआत की और उसके बाद सभी जीएसएलवी एमके II, एमके III और रियूजेबल लॉन्च वाहन मिशनों में शामिल रही। बेंगलुरू में इसरो मुख्यालय में आने से पहले, मैं विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर, तिरुवनंतपुरम में उप निदेशक थी।”