देश के विभिन्न हिस्सों में हाथियों के हमले बढ़ रहे हैं। बीते दिनों झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और बिहार में गुस्सैल हाथियों के उपद्रव की कई घटनाएं सामने आईं, जिनमें करीब दस लोगों की जान चली गई। आए दिन हाथी और इंसानों के बीच टकराव की घटनाएं देखी जा रही हैं। इसकी बड़ी वजह कहीं न कहीं हमारी बढ़ती लालसा है। आधुनिकीकरण के नाम पर हमने उनके आशियाने उजाड़ दिए हैं। जंगल सिमटने लगे हैं। यही वजह है कि हाथी अपनी भूख-प्यास मिटाने के लिए रिहाइशी इलाकों में आ रहे हैं। 2020-21 में हाथियों ने 545 लोगों की जान ले ली।

बीते वर्ष हाथियों की नाराजगी के चलते 605 लोगों की गई जान

बीते वर्ष हाथियों की नाराजगी के चलते करीब 605 लोगों को अपने प्राण गंवाने पड़े। ऐसा नहीं कि इन हमलों में केवल इंसानों की जान गई, पिछले तीन वर्षों के आंकड़ों पर गौर करें तो करीब तीन सौ हाथियों की जान इंसानों ने ले ली। यह स्थिति तब है जब हाथियों को राष्ट्रीय धरोहर पशु घोषित किया जा चुका है। ‘डब्लूडब्लूएफ इंडिया’ की ‘द क्रिटिकल नीड आफ एलिफेंट’ रपट के मुताबिक इस समय दुनिया में हाथियों की संख्या मात्र पचास हजार है, जिसमें साठ फीसद हाथियों का निवास भारत में है। दुनिया भर में हाथियों के संरक्षण के लिए गठित आठ देशों के संगठन में भी भारत शामिल है। बावजूद इसके, हाथियों पर संकट मंडरा रहा है।

तेरह सालों में भारत के जंगलों में 1357 हाथियों की मौत हो चुकी है

हाथी पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता के लिए महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं, मगर एक आरटीआइ के जवाब में पर्यावरण मंत्रालय ने बताया कि पिछले तेरह सालों में भारत के जंगलों में 1357 हाथियों की मौत हो चुकी है। इसका अर्थ है कि देश में हाथी संकट में हैं और कहीं न कहीं यह संकट मानवीय है। ऐसे में, सोचने वाली बात है कि हमारे देश में पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों को पूजने की परंपरा रही है, तो अब क्यों हम पशु-पक्षियों से दूर होते जा रहे हैं? इसका जवाब है कि मानवीय संवेदना तेजी से क्षरित होती गई है। इंसान का बढ़ता लालच और विकास की चाह इस हद तक बढ़ गई है कि मानव अपने ही विनाश की वजह बनता जा रहा है। बढ़ती आधुनिकता और भौतिकतावाद मानव को क्रूर और निर्दयी बनाने को आतुर है।

इंसान के स्वार्थी हो जाने की सजा न सिर्फ वन्यजीव भुगत रहे हैं, बल्कि इससे पारिस्थितिकी असंतुलन भी पैदा हो रहा है। इसका दुष्परिणाम अब इंसानों को भी भुगतना पड़ रहा है। बीते दिनों केरल के वायनाड जिले में एक जंगली हाथी का घर में घुसकर इंसान की जान लेने का मामला मीडिया की सुर्खियां बना था। यह हादसा मानव-पशु संघर्ष की स्थिति बयान करता है। केरल वन विभाग की ताजा रपट में मानव-पशु संघर्ष की करीब नौ हजार घटनाएं दर्ज हुई हैं। इनमें चार हजार से ज्यादा मामले जंगली हाथियों से जुड़े हैं। 2018 में केरल में हाथियों के हिंसक होने को लेकर ‘पेरियार टाइगर कंजर्वेशन फाउंडेशन’ ने एक अध्ययन किया। उसमें निष्कर्ष निकला कि जंगलों में अब पारंपरिक पेड़ नष्ट हो गए हैं और उनके स्थान पर बबूल और नीलगिरी जैसे पेड़ लगाए जा रहे हैं। पेड़ों की ये किस्में जमीन से पानी भी अधिक सोख रही हैं।

रपट के अनुसार बीते तेरह वर्षों में 898 हाथी बिजली के तारों में उलझ कर मारे गए। इसके अलावा, हाथियों की मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण ट्रेनों की चपेट में आ जाना है। बढ़ते आधुनिकीकरण और लगातार बढ़ते नगरीकरण की वजह से अब रेल की पटरियां दुर्गम क्षेत्रों तक बिछ गई हैं। यही वजह है कि बड़ी संख्या में हाथियों की मौत ट्रेन की चपेट में आने से होती है। आरटीआइ से मिली जानकारी के मुताबिक, पिछले तेरह वर्षों में 191 हाथियों की मौत शिकारियों के हाथों हुई। शिकारी हाथी दांत की चोरी के लिए हाथियों को मार देते हैं।

इससे हाथियों के लिए भोजन और पानी दोनों का संकट पैदा हो रहा है। अपनी भूख-प्यास मिटाने के लिए हाथी उग्र और हिंसक हो रहे हैं। इसके लिए हम निरीह जानवर को जिम्मेदार मानते हैं, जबकि हकीकत यह है कि इस संघर्ष के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक, देश में हाथियों की संख्या करीब तीस हजार है। आंकड़े बताते हैं कि 2014 से 2019 के बीच देश में पांच सौ हाथियों की अकाल मौत हो गई। वहीं 2012 से 2017 के बीच हाथियों की संख्या में दस फीसद तक कमी दर्ज की गई है। अगर हर पांच वर्ष में दस फीसद हाथी कम होते रहे, तो तीस हजार के करीब हाथियों की विलुप्ति में ज्यादा समय नहीं लगने वाला। जबकि गौर करने वाली बात है कि पर्यावरण मंत्रालय ने हाथियों की मौत की जो रपट आरटीआइ के माध्यम से दी, वह प्राकृतिक मौत नहीं है।

कुछ समय पहले मलप्पुरम में एक गर्भवती हथिनी की निर्मम हत्या ने मीडिया जगत में खूब सुर्खियां बटोरी थी। कुछ लोगों ने उस हाथी को जानबूझ कर पटाखों से भरे फल खिलाकर मौत के घाट उतार दिया था। वह कोई पहली घटना नहीं थी, जब नागरिकों ने जानवरों की हत्या की। आंकड़ों के मुताबिक, 191 नर हाथियों को जानबूझ कर मार दिया गया। इस पर वनरक्षक खामोश रहे, तो कई सवाल उठने स्वभाविक हैं। वैसे तो जंगलों से गुजर रही रेल लाइनों का विद्युतीकरण और गाड़ियों की तेज रफ्तार हाथियों की आकस्मिक मौत की बड़ी वजह हैं।

हाथियों के संरक्षण के लिए केंद्र सरकार ने बासठ नए ‘एलिफेंट कारिडोर’ को मंजूरी दी है। अब एलिफेंट कारिडोर की संख्या बढ़कर 150 हो गई है। यह वन्यजीव संरक्षण की दिशा में महत्त्वपूर्ण पहल है। चूंकि हाथी हमारा ‘राष्ट्रीय विरासत पशु’ है और तीन राज्यों- झारखंड, कर्नाटक और केरल सरकार ने हाथी को ‘राजकीय पशु’ की मान्यता दी है, इसके संरक्षण के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए। वरना, मानव-वन्यजीव टकराव का सबसे भयावह प्रभाव झेलने को हमें तैयार रहना होगा।

इसका एलान मानव-वन्यजीव सह-अस्तित्व पर जारी ‘वर्ल्ड वाइल्ड फंड’ और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की संयुक्त रपट में पहले ही किया जा चुका है। वैसे भी देखा जाए तो संविधान सिर्फ मानव को जीवन जीने की स्वतंत्रता नहीं देता, बल्कि अनुच्छेद 48 (ए) में कहा गया है कि राज्य का दायित्व है कि वह पर्यावरण संरक्षण तथा उसको बढ़ावा देगा और देश भर में जंगलों और वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए काम करेगा। इसके अलावा अनुच्छेद 51(ए) कहता है कि जंगल, तालाब, नदियों, वन्यजीवों सहित सभी तरह की प्राकृतिक पर्यावरण संबंधी चीजों की रक्षा करना और उनको बढ़ावा देना हर भारतीय नागरिक का कर्तव्य है। फिर अधिकार के लिए आंदोलित होने वाला मानव समाज क्यों अपने कर्तव्यों के निर्वहन से दूर भागता है? यह अपने आप में बड़ा सवाल है, क्योंकि जब तक सह-अस्तित्व की भावना नहीं होगी, मनुष्य और वन्यजीवों के बीच टकराव कम नहीं होने वाला।