Chandrayaan-3 Mission: इसरो ने 14 जुलाई को चंद्रयान-3 मिशन लांच किया। महज 17 मिनट में चंद्रयान-3 धरती से निकल कर पृथ्वी के ऑर्बिट में पहुंच गया था। चंद्रयान-3 पृथ्वी के ऑर्बिट में लगातार आगे बढ़ रहा है। 23 अगस्त को चंद्रयान-3 चांद के दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग करने की कोशिश करेगा। चंद्रयान-3 मिशन को चांद पर पहुंचने में करीब 40 दिन का समय लगेगा। हालांकि नासा का अपोलो मिशन चांद की सतह पर सिर्फ 3 दिन में ही पहुंच गया था। जानने की कोशिश करते है की अपोलो मिशन में इतना कम समय क्यों लगा।

अपोलो 3 दिन में चांद पर कैसे पहुंचा?

नासा ने अपोलो-11 मिशन आज से तकरीबन 50 साल पहले लॉन्च किया था। इसे चांद की सतह पर पहुंचने में सिर्फ 3 दिन का समय लगा था। वहीं इसरो के चंद्रयान-3 को चांद की सतह पर पहुंचने में 40 दिन से अधिक समय लगेगा। आपको बता दें कि अपोलो मिशन ने 16 जुलाई 1969 को केप कैनेडी से उड़ान भरी थी। यह महज 3 दिन में ही चांद पर पहुंचने में कामयाब हो गया था। अपोलो मिशन को सैटर्न-5 रॉकेट ने लेकर उड़ान भरी थी। सैटर्न-5 रॉकेट एक शक्तिशाली रॉकेट है इसका पेलोड भी काफी अधिक होता है। सैटर्न-5 ने पहले अपोलो-11 को पृथ्वी के ऑर्बिट में सफलपूर्वक पहुंचाया और इसके बाद सिंगल इंजन बर्न करके सीधा चांद के ऑर्बिट में अपोलो को पहुंचा दिया।

चंद्रयान-3 को क्यों लगेगा इतना समय?

चंद्रयान-3 को चांद की सतह पर पहुंचने में 40 दिन का वक्त लगेगा। चंद्रयान-3 सीधा चंद्रमा के ऑर्बिट में नहीं जाएगा। पहले चंद्रयान-3 पृथ्वी के ऑर्बिट में गया है। यहां से वह धीरे-धीरे अपनी स्पीड बढ़ा रहा है और जब पृथ्वी और चांद के बीच दूरी सबसे कम होगी उस वक्त पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का प्रयोग कर सफलता से चांद पर पहुंचने की कोशिश करेगा। इसरो प्रमुख ने बताया है कि 5 अगस्त को चंद्रयान-3 चांद के ऑर्बिट में पहुंचेगा। इसरो के मुताबिक हमारे पास इतना शक्तिशाली रॉकेट मौजूद नहीं है जो चंद्रयान-3 को सीधे चन्द्रमा के ऑर्बिट में भेज सके।

चंद्रयान-3 को एलवीएम-3 रॉकेट से लॉन्च किया गया है। इस रॉकेट को बाहुबली रॉकेट भी कहते है लेकिन यह रॉकेट भी इतना शक्तिशाली नहीं है कि यह चंद्रयान-3 को सीधा चांद के ऑर्बिट में पहुंचा सके। इसलिए चंद्रयान-3 में गुलेल तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। इस तकनीक के तहत पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का प्रयोग कर चांद के ऑर्बिट में पहुंचने की कोशिश की जाएगी। इस तकनीक के प्रयोग से कम ईंधन और कम पैसे में चांद पर पहुंच पाएंगे। लेकिन इस प्रक्रिया की सबसे बड़ी खामी यह है कि चांद पर पहुंचने में काफी समय लग जाता है और मिशन को एक जटिल प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इस तकनीक को लूनर ट्रांसफर ट्राजेक्टरी कहते है। इसी तकनीक का प्रयोग करके मंगलयान को मंगल ग्रह के ऑर्बिट में भेजा गया था।