लोगों के जहन में आज भी इमरजेंसी रह रहकर कौंध उठती है तो तब के लोगों को उस समय की राजनीतिक उठापटक का एहसास आज भी होता रहता है। लेकिन किसी को याद नहीं कि जिसने ये फैसला दिया था, वो उससे बाद कहां ओझल हो गया। जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के बारे में ज्यादातर लोगों को उसके बाद पता ही नहीं था।

इसमें कोई सुबहा नहीं कि इंदिरा जैसी ताकतवर शख्सियत के खिलाफ फैसला सुनाना कोर्ट के लिए भी आसान नहीं रहा होगा। रिटायर जगमोहन लाल से ये सवाल किया गया तो उन्होंने जो कहा वो खुद ब खुद सारे हालात को बयां कर देता है। उनका कहना था कि फैसला लिखने के दौरान वो भूमिगत थे। सिन्हा किस मिट्टी के बने थे, यह बात राजनारायण की तरफ से पैरवी करने वाले और बाद में देश के कानून मंत्री बने शांति भूषण की उस बात से सहज ही समझी जा सकती है कि उन्हें इमानदारी और विवेकपूर्ण रवैये से कोई नहीं डिगा सका। इंदिरा गांधी भी नहीं।

जगमोहन लाल राजनीति से कोसों दूर रहे। सेवानिवृत्ति के बाद वो भारत विकास परिषद जैसी संस्था से जुड़े तो बाद में उससे भी अलग हो गए। बाद में वो अपने वकील बेटों और पत्नी के साथ जीवन का लुत्फ उठाते रहे। उनकी दिनचर्या थी सुबह 5 बजे जागना और हर हाल में रात 10.30 बजे नींद के आगोश में चले जाना।

रोजाना छह घंटे अध्ययन करना उनकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा रहा। बतौर जूडिशियल अफसर उनका मूल मंत्र था कि सिर्फ दो लोगों को याद रखिए। जिनके बीच न्याय करना है। वे राजा हो या रंक, उनके बीच संतुलन बनाना है।

जगमोहन लाल सिन्हा का जन्म यूपी के बरेली में हुआ था। 1943 में उन्होंने वकालत शुरू की और उसके बाद 1958 में न्यायिक सेवा में आए। 1971 में वो इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज बने और 1982 में रिटायर हो गए। उनका नाम ऐसे जज के रूप में लिया जाता रहा जिसके ऊपर राजनीति का लेवल कभी नहीं लगा।

उनके समकालीन वकील बताते हैं कि रिटायर होने के बाद भी उन्हें भरमाने की कोशिश हुईं, लेकिन सिन्हा ने किसी को पास फटकने तक नहीं दिया। वो मानते थे कि राजनीति में जाने से बेहतर समाज सेवा करना है। छात्र जीवन में बैडमिंटन के बेहतरीन खिलाड़ी रहे सिन्हा कहते थे कि इमरजेंसी के दौरान भी अदालतें निष्पक्ष होकर काम कर रही थीं। उन्होंने खुद इसे पहले ही साबित कर दिया था।