India-Pakistan Issue: अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक नहीं बल्कि कई बार दावा कर चुके हैं कि उन्होंने ट्रेड टॉक के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच में लड़ाई बंद करवा दी है। 31 मई को डोनाल्ड ट्रंप ने कहा, ‘हम व्यापार की बात करते हैं और हम कहते हैं कि हम उन लोगों के साथ व्यापार नहीं कर सकते जो एक-दूसरे पर गोली चला रहे हैं। उन्होंने इसे समझा और वे सहमत हुए और यह सब बंद हो गया।’

भारत ने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि ऑपरेशन सिंदूर में हाल ही में किया गया सीजफायर पाकिस्तान के साथ हुई बातचीत के बाद हुआ था। इसमें अमेरिका की कोई भी भूमिका नहीं थी। ट्रंप की बयानबाजी जानबूझकर या अनजाने में भारत और पाकिस्तान को एक साथ जोड़ रही है। इसके खिलाफ भारत काफी लंबे वक्त से लड़ रहा है। जहां तक ​​तीसरे पक्ष की बात है, तो अमेरिका ने कई मौकों पर भारत के बजाय पाकिस्तान के हित में काम किया है।

यूएन में विश्वासघात और हाइफनेशन

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, तीसरे पक्षों के लिए भारत के अविश्वास और हाइफनेशन की हिस्ट्री आपस में जुड़ी हुई है। अगस्त 1947 में आजादी के बमुश्किल दो महीने बाद ही पाकिस्तान से आए घुसपैठियों ने जम्मू -कश्मीर पर हमला कर दिया। वायसराय लॉर्ड लुईस माउंटबेटन ने भारत को यूएन में जाने की सलाह दी। भारत ने यह काम 1 जनवरी 1948 को किया। भारत को उम्मीद थी कि वैध तरीके से उसके द्वारा शामिल किए गए क्षेत्र पर उसके अधिकारों का यूएन में सम्मान किया जाएगा। हालांकि, अंग्रेजों ने भारत का समर्थन नहीं किया। इस को भारतीयों ने विश्वासघात माना।

इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब इंडिया आफ्टर गांधी में जनवरी-फरवरी 1948 के यूएन सेशन के बारे में लिखते हैं, ‘भारत को उस समय एक महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक हार का सामना करना पड़ा जब सुरक्षा परिषद ने एजेंडा आइटम को जम्मू और कश्मीर प्रश्न से बदलकर भारत-पाकिस्तान प्रश्न कर दिया।’ इस तरह से इंटरनेशनल मंचों पर औपचारिक तौर पर एक दूसरे से जुड़ने की शुरुआत हुई।

भारत-पाकिस्तान के बीच सीजफायर को लेकर फिर आया ट्रंप का बयान

भारत पाकिस्तान के क्षेत्रीय आक्रमण का शिकार है और एक लोकतांत्रिक देश और अर्थव्यवस्था के तौर पर भारत की पहचान पाकिस्तान से नहीं जोड़ी जा सकती। नई दिल्ली का मानना ​​है कि दुनिया को भारत के साथ उसके अपने अधिकार के अनुसार जुड़ना चाहिए न कि संघर्ष क्षेत्र के आधे हिस्से के रूप में। यूएन ने भारत को बड़ी शक्तियों को भी इसमें शामिल करने से भी रोक दिया, जबकि पाकिस्तान ने कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करना पसंद किया।

शीत युद्ध के सालों के दौरान पश्चिम ने सोवियत संघ के साथ संघर्ष को पाकिस्तान को एक अहम साथी के तौर पर देखा, वहीं गुटनिरपेक्ष भारत को कम भरोसेमंद माना जाता था। इसके अलावा, ग्लोबल साउथ के नेता के तौर पर उभरने की अपनी क्षमता के साथ भारत यह नहीं मानता है कि अपनी समस्याओं के हल के लिए वह बड़ी शक्तियों पर डिपेंड है।

अमेरिका की भूमिका

अमेरिका की भूमिका को समझने के लिए पिछले चार युद्धों पर गौर करने की जरूरत है। 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अमेरिका यह चाहता था कि भारत और पाकिस्तान अपने मुद्दों को द्विपक्षीय तरीके से सुलझाएं। अमेरिकी विदेश मंत्री ने भारत में मौजूद दूतावास को एक पत्र भेजा था। इसमें कहा गया था, ‘हम यह पसंद करेंगे कि कश्मीर का मुद्दा भारत और पाकिस्तान के बीच सीधी बातचीत से सुलझाया जाए। हालांकि, अगर यूएन के दखल के आग्रह करने वाला प्रस्ताव और खासतौर से कश्मीर में जनमत संग्रह की निगरानी करने का आग्रह करने वाला प्रस्ताव भारत या पाकिस्तान द्वारा पेश किया जाता है और यूनाइटेड किंगडम द्वारा इसका समर्थन किया जाता है, तो अमेरिका के प्रतिनिधिमंडल को भी प्रस्ताव का समर्थन करना चाहिए।’

ऑपरेशन सिंदूर के बाद टूटी दोस्ती की कलई

1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध

1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ खुले तौर पर दिया था। यहां तक ​​कि उसने बंगाल की खाड़ी की ओर वॉरशिप भी भेजे थे। अमेरिकी विदेश विभाग की एक वेबसाइट पर 1971 के युद्ध पर इसके आर्टिकल में कहा गया है कि पाकिस्तान ने हाल ही में अमेरिका और चीन के बीच राजनयिक संबंध शुरू करने में मदद की थी, इसलिए वाशिंगटन ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान का समर्थन करने का फैसला किया, लेकिन पूर्वी पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों के खिलाफ कार्रवाई को खूब प्रचारित किया गया और निंदा की गई, जिससे अमेरिकी सरकार पाकिस्तानी सरकार की मदद करने के लिए तैयार नहीं हुई।

1999 का कारगिल युद्ध

1999 का कारगिल युद्ध में अमेरिका ने भारत के साथ उसके संबंधों को फिर से बेहतर बनाया। रीडेल ने 2019 में लिखा था, ‘जब अमेरिका ने यह तय किया कि पाकिस्तान ने जानबूझकर कारगिल के पास एलओसी का उल्लंघन किया है, तो तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने युद्ध का जोखिम उठाने के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहराने में संकोच नहीं किया। पहली बार, एक अमेरिकी प्रशासन पाकिस्तानी आक्रामकता के खिलाफ भारत के साथ सार्वजनिक रूप से खड़ा था।’

क्लिंटन ने पाकिस्तान को एलओसी के पीछे हटने में अहम भूमिका निभाई। इसके बाद क्लिंटन ने 2000 में उपमहाद्वीप का दौरा किया। वे 20 साल से ज्यादा समय में भारत आने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति थे। उन्होंने भारत में पांच दिन बिताए, जबकि पाकिस्तान में वे सिर्फ कुछ घंटे ही रहे। इन युद्धों के अलावा अमेरिका ने 2001 में संसद हमले और 2008 के मुंबई आतंकवादी हमलों के बाद तनाव को कम करने के लिए भी काम किया है। ट्रंप के सीजफायर वाले बयान पर कांग्रेस ने फिर उठाए सवाल