Allahabad High Court : इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि याचिकाकर्ता के वकील के कोर्ट में ना होने पर जमानत की अर्जी खारिज नहीं की जानी चाहिए और ऐसी स्थिति में न्याय मित्र की नियुक्ति कर मेरिट पर मामले का निर्णय किया जाना चाहिए।
यह टिप्पणी करते हुए न्यायमूर्ति अजय भनोट ने मंगलवार को कहा, ‘‘जमानत की अर्जी पर सुनवाई के दौरान वकील के अनुपस्थित रहने से बंदी-याचिकाकर्ता की स्वतंत्रता दांव पर रहती है और वह मुकदमे के नतीजों को प्रभावित करने की सभी क्षमताओं से वंचित हो जाता है।’’
कोर्ट ने और क्या कहा ?
जमानत के मामलों में वकीलों की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए अदालत ने कहा कि जमानत की याचिकाओं में वकीलों को विशेष सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि याचिकाकर्ता जेल में होता है और अदालत में वकील उसका एकमात्र प्रतिनिधि होता है। यह मायने नहीं रखता कि उस वकील की फीस दी गई है या नहीं लेकिन उसे इस मामले में सतर्क रहना चाहिए।
याचिका में क्या था ?
इस मामले में याचिकाकर्ता मनीष पाठक ने अनुरोध किया था कि उसे 2019 में आजमगढ़ के बरदाह पुलिस थाना में भारतीय दंड संहिता की धारा 307 के तहत दर्ज मामले में जमानत दी जाए। वह 20 मार्च, 2019 से जेल में है। हालांकि अदालत ने न्याय मित्र की नियुक्ति करने और दलीलें सुनने के बाद उसकी जमानत की अर्जी मंजूर की।
अदालत ने कहा, ‘‘भले ही फीस और खर्चों का भुगतान नहीं किया गया लेकिन वकील को इस मामले में बहस करने से इनकार नहीं करना चाहिए था। प्रत्येक वकील का यह याद रखना जरूरी है कि अदालत के प्रति विशेषकर आपराधिक मामले में जहां नागरिक की स्वतंत्रता शामिल हो, उसकी यह ज़िम्मेदारी है और भले ही उसकी फीस या खर्चों का भुगतान नहीं किया गया हो, उसे इस मामले में बहस करनी चाहिए और सही निर्णय पर पहुंचने के लिए अदालत का सहयोग करना चाहिए था।