रामचरितमानस के अंग्रेजी अनुवाद का उद्देश्य या प्रयोजन दो प्रमुख अनुवादों में स्पष्ट नहीं किया गया है। अलबत्ता यह जरूर है कि पश्चिमी जगत इस महाकाव्य की लोकप्रियता एवं स्वीकार्यता से प्रभावित था और यह जानने के लिए अनुवाद किए गए कि आखिर एक पुस्तक इतने बड़े लोकमानस को किस प्रकार प्रभावित कर सकती है। लिहाजा यह देखना दिलचस्प है कि जो संदर्भ सहित शब्द हैं, उन्हें किस प्रकार अनूदित किया गया है। बालकाण्ड में जब संगति की विशेषता पर तुलसीदास लिखते हैं-
सठ सुघरहिं सत्संगति पाई, पारस परस कुधातु सुहाई
बिधि बस सुजन कुसंगति परहिं, फनी मानी सम निजगुन अनुरहिं
अर्थात दुष्ट भी सत्संग पाकर सुधर जाते हैं जैसे पारस पत्थर के छू जाने से लोहा, सुंदर धातु (सुवर्ण) बन जाता है। दैवयोग से सज्जन कुसंग में पड़ते हैं तब वे सर्प की मणि के समान अपने गुणों का अनुकरण करते हैं।

दोनों प्रमुख अनुवादों अंग्रेजी के स्थानीयकरण और रामचरितमानस के विदेशीकरण का उदाहरण हैं। इसमें पारस पत्थर को दार्शनिक का पत्थर बताया गया है। इसे इस तरह कह सकते हैं कि पारस पत्थर की अवधारणा पूर्णतया भारतीय अवधारणा है एवं मणि की अवधारणा भी भारतीय अवधारणा है। अत: उन्होंने इसे ‘ज्वेल’ के तौर पर लिया है। यह बदलाव दोनों ही विद्वानों ने अंग्रेजी पाठकों के हिसाब से किया है।

इसी तरह जब चार फलों अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की बात सामने आती है तो भी अनुवाद में वे स्थानीयकरण करते दिखते हैं। बालकाण्ड में ही तुलसीदास कहते हैं-
सुनि समुझाहिं जन मुदित मन, मज्जहिं अति अनुराग
लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग

गौरतलब है कि ‘प्रयाग’ का नाम जब इनका अनुवाद हुआ तब तक ‘इलाहाबाद’ हो गया था, तो अनुवादकों को भी प्रयाग का अर्थ खोजना पड़ा होगा। हिंदी में जब इसे समझते हैं तो पाते हैं कि तुलसीदास प्रयाग राज की महिमा कहते हुए लिखते हैं कि जो साधु समाज प्रयाग के उपदेश को मुदित मन से स्वीकारता है वह चारों फल अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है। ऐसे में बहुत संभव है कि रामकथा में जो तुलसीदास कहना चाह रहे हैं वह भाव स्वरूप में अंग्रेजी में पहुंचे।

दिलचस्प है कि दो प्रमुख अनुवादों में फल का अर्थ ‘रिवार्ड्स’ लिया गया है। क्या यह इसलिए कि इससे यह समझ में आ सके कि प्रयाग नामक जो तीर्थ है उसमें स्नान करने से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं। वहीं ‘मुदित’ के लिए ‘जॉयफुल’ शब्द का प्रयोग किया गया है। शायद मुदित का सटीक अर्थ अंग्रेजी में प्राप्त नहीं हो पाया है इसलिए अर्थ का संप्रेषण करने के लिए ‘जॉयफुल’ का प्रयोग किया है। एक और बात दोनों अनुवादों में रोचक है कि जहां एक ने साधु समाज के लिए ‘होलीमैन’ शब्द का प्रयोग किया है तो वहीं दूसरे अनुवाद में ‘फेदफुल’ का प्रयोग किया गया है।

आगे जाकर जब रामकथा सुनाने को लेकर पार्वर्ती जी का आग्रह है शिव जी से, तो उसमें एक दोहे में कामदेव का उल्लेख है। यह तथ्य है कि कामदेव को शिव ने ही भस्म किया था। जहां तुलसी ‘हिय हरषे कामारि तब, संकर सहज सुजान’ कहते हैं तो ‘द होली लेक आफ राम’ में शिव को ‘लवर्स एनेमी’ कह दिया गया गया है तो वहीं ‘द रामायण आफ तुलसीदास’ में शंकर को काम का सीधे-सीधे शत्रु बता दिया गया है।

यह अनुवाद सही नहीं है। शिव की आराधना भारत में स्त्रियां प्रेम के देवता के रूप में करती हैं। जिन्हें एकदम भिन्न संस्कृति में प्रेमियों का शत्रु ही घोषित कर दिया गया है। यह बड़ी चूक है। यहां अनुवादक ने संदर्भ को समझा नहीं है। कामदेव को जीतने वाले शंकर थे। वे कामदेव के शत्रु नहीं थे। इस प्रकार इस अनुवाद ने पूरी भारतीय संस्कृति के प्रति एक भ्रम सा उत्पन्न कर दिया है। हो सकता है कि अनुवादक की मंशा कोई भ्रम उत्पन्न करने की न हो, पर यह भाव आने से एक प्रश्नचिह्न तो भाव और उसके अनुवाद पर लग ही गया है।