लेकिन सोमवार को राजधानी दिल्ली के पूर्वी नगर निगम की साधारण सभा की बैठक में जो हुआ, उससे यही लगता है कि जनता के हित की बात करने वाले प्रतिनिधियों को इस बात की शायद फिक्र नहीं है कि बैठक में उनके आचरण को किस तरह देखा जाएगा।

गौरतलब है कि पार्षद कोष की हेराफेरी और केंद्र सरकार की ओर से लाए गए नए कृषि कानूनों के मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष के बीच पहले जम कर हंगामा हुआ, फिर बात बढ़ती गई। दोनों पक्षों के बीच जूते-चप्पल भी चले। हालत यह थी कि जब आम आदमी पार्टी के पार्षदों ने किसान आंदोलन के दौरान जिन किसानों की मौत हो गई, उन्हें श्रद्धांजलि देने का प्रस्ताव रखा तो सत्ता पक्ष के पार्षदों ने इसका तीखा विरोध किया और इस पर भी काफी हंगामा हुआ।

जाहिर है, पहले हंगामा और फिर हिंसक रवैया अख्तियार करने वाले लोगों को सदन के साथ-साथ अपनी मर्यादा की भी चिंता नहीं है। वरना अगर उनके बीच किसी मसले पर मतभेद या विवाद था तो उसे संवाद के जरिए सुलझाया जा सकता था। मगर सवाल है कि जिन मुद्दों पर सदन में यह अप्रत्याशित स्थिति खड़ी हुई, क्या वे ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर जनता का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले लोग ऐसे बेलगाम आचरण पर उतर आएं!

अगर कोई वित्तीय गड़बड़ी हुई या किसी आंदोलन को मुद्दा आधारित समर्थन देने की बात है तो क्या इस मसले पर नेताओं के बीच मतभेद या विरोध इतना तीखा हो सकता है कि उनमें से कुछ लोग आपस में जूते-चप्पल चलाने लगें? निश्चित रूप से यह सदन की मर्यादा के विरुद्ध है और अगर इस तरह के आचरण पर रोक नहीं लगाई गई तो जन-प्रतिनिधियों के बीच विचार-विमर्श और बहस के लिए निर्धारित जगहों की छवि बुरी तरह प्रभावित होगी।

हालांकि अवांछित हरकत के लिए दो पार्षदों को अगले पंद्रह दिनों तक के लिए निलंबित किया गया है, लेकिन जरूरत इस बात की है कि सदन की बैठकों में ऐसा आचरण न हो, इसके लिए सभी पक्ष आपस में सहमत हों, एक व्यवस्था कायम की जाए।

यों किसी सदन में हाथापाई या ऐसे आक्रामक व्यवहार की यह कोई पहली घटना नहीं है। कुछ राज्यों की विधानसभाओं में हिंसक टकराव की अनेक खबरें आ चुकी हैं। लेकिन हैरानी की बात है कि ऐसी हर घटना के बाद सदन की छवि पर पड़ने वाले बेहद नकारात्मक असर को लेकर सभी सदस्य चिंता तो जताते हैं, लेकिन उसमें सुधार के लिए अपने या अपने पक्ष के सदस्यों को नियंत्रित नहीं कर पाते हैं। बल्कि होना तो यह चाहिए कि सदन में ऐसी स्थिति के न पैदा होने को लेकर सभी पक्ष खुद सचेत रहें।

ऐसी जगहों पर किसी मुद्दे पर असहमति, मतभेद या विवाद तक भी चल सकता है, लेकिन हिंसा या अमर्यादित व्यवहार किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि कोई भी सदन जनहित से जुड़े मुद्दों पर विचार-विमर्श की जगह है और आम जनता की नजर में इसके प्रति सम्मान का भाव होता है। इसके अलावा, यह सदन के साथ-साथ सदस्यों की अपनी गरिमा से जुड़ा प्रश्न भी है। इस सम्मान और गरिमा को बनाए रखने की जिम्मेदारी आखिर वहां जनता की नुमाइंदगी करने वाले नेताओं पर ही होती है।