रूस और यूक्रेन के बीच लंबे खिंच रहे युद्ध के बीच जापान के प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा भारत आए। अंतरराष्ट्रीय मंच पर यूक्रेन संकट को लेकर भारत और जापान अलग-अलग कूटनीतिक खेमे में हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और किशिदा के बीच यूक्रेन संकट को लेकर चर्चा तो हुई, लेकिन दोनों ने सावधानी भरा रवैया अपनाया और बातचीत हिंद-प्रशांत क्षेत्र की स्थिति पर केंद्रित रही।
दरअसल, जापान ने पश्चिम के देशों की ही तरह रूस को अलग-थलग करने के लिए व्यापक वित्तीय प्रतिबंध लगा दिए हैं। इनमें सेमिकंडक्टरों और दूसरे उच्च तकनीक के उत्पादों के निर्यात पर लगाम शामिल है। दूसरी ओर भारत ने सावधानी भरा रुख अपनाया है, जिससे पश्चिमी देश संतुष्ट नहीं हैं। भारत ने पश्चिमी देशों की तरह रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की आलोचना नहीं की है और संयुक्त राष्ट्र में भी रूस के खिलाफ मतदान से खुद को बाहर रखा है। अमेरिका और यूरोपीय देशों की सरकारें बार-बार भारत से अपना रुख बदलने की अपील कर रही हैं।
कूटनीति के अंतरराष्ट्रीय मंच पर दो संगठनों के रवैए पर दुनिया के अधिकांश देशों की निगाहें लगी हुई हैं। आने वाले दिनों में ये संगठन जो भी कदम उठाएंगे, उनके जरिए अंतरराष्ट्रीय राजनय की दिशा तय होने के संकेत हैं। ये संगठन हैं जी-20 और ओपेक। जी-20 शिखर बैठक अक्तूबर में होने वाली है और इसको लेकर राजनयिक कवायद शुरू हो गई है। दूसरी ओर, कूटनीति के साथ ही अर्थव्यवस्था का रुख तय करने वाली कच्चे तेल की कीमतों को लेकर यूक्रेन संकट में ओपेक देशों के रुख पर भी सभी की निगाहें टिकी हैं।
जी-20 देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में जून में होनी है। एजंडा तय करने के लिए होने वाली इस बैठक में तनाव का असर खुलकर सामने आएगा। इस बार जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन की मेजबानी इंडोनेशिया के पास है। जी-20 दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले 20 देशों का समूह है। इसका अगला शिखर सम्मेलन इंडोनेशिया के टूरिस्ट एन्कलेव नुसा दुआ में होना तय है। रूस भी जी-20 का सदस्य है, जिस पर पश्चिमी देशों ने बेहद सख्त पाबंदियां लगा दी हैं।
इंडोनेशिया के सामने बड़ा सवाल यह है कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को वह औपचारिक आमत्रण भेजे या नहीं। पुतिन से पश्चिमी देशों के रिश्ते जिस हद तक कड़वे हो गए हैं, उसे देखते हुए माना जा रहा है कि पुतिन के शिखर सम्मेलन में आने की स्थिति में 15 देशों के नेता इसका बहिष्कार कर देंगे। उनमें अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भी शामिल हैं। लेकिन अगर पुतिन को नहीं बुलाया गया, तो संभावना है कि चीन और यहां तक कि संभवतया भारत समेत कई देश इसमें अपने प्रतिनिधित्व का स्तर गिरा देंगे।
जहां तक अकेले इंडोनेशिया की स्थिति है, वहां के राष्ट्रपति जोको विडोडो असमंजस में बताए जा रहे हैं। वैसे इंडोनेशिया के भी रूस से एतिहासिक संबंध रहे हैं। यूक्रेन पर हमले के बाद इंडोनेशिया ने जो बयान जारी किया, उसमें बिना रूस का नाम लिए हमले की आलोचना की गई। संयुक्त राष्ट्र में इंडोनेशिया ने रूस की निंदा करने वाले प्रस्ताव के पक्ष में जरूर मतदान किया, लेकिन उसने रूस पर प्रतिबंध लगाने से इनकार कर दिया है।
रूसी कंपनी रोसनेफ्ट इंडोनेशिया के जावा में 1.4 अरब अरब डालर की लागत से एक रिफाइनरी बना रही है। इसके अलावा रूस नार्थ नतुना सागर में तेल और गैस की खोज में भी इंडोनेशिया की मदद कर रहा है। इन संबंधों का असर इंडोनेशिया के रुख पर दिखा है। ऐसे में जी-20 के देश कोशिश में जुटे हैं कि जून के पहले यूक्रेन संकट का कोई हल निकल आए।
रूस पर प्रतिबंध और ओपेक पर निभर्रता
यूक्रेन संकट के बीच दूसरा बड़ा संगठन ओपेक है, जिसका दबदबा बढ़ रहा है। अमेरिका के अलावा, कनाडा, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन समेत कई देशों ने भी रूस से तेल का आयात बंद कर दिया है। दरअसल, अमेरिका और सऊदी अरब के बाद रूस तीसरा सबसे ज्यादा कच्चा तेल उत्पादन करने वाला देश है। ऐसे में तेल उत्पादन करने वाले देशों के ताकतवर संगठन आर्गनाइजेशन आफ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज यानी ओपेक की भूमिका बढ़ रही है। ओपेक में अभी अल्जीरिया, अंगोला, इक्वेटोरियल गिनी, गैबॉन, ईरान, इराक, कुवैत, लीबिया, नाइजीरिया, कांगो, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और वेनेजुएला सहित 13 सदस्य देश हैं।
ओपेक देशों ने 2020 में हर दिन लगभग 19.7 मिलियन बैरल तेल दुनियाभर में निर्यात किया। इसमें से 5.4 मिलियन बैरल चीन को दिया। अगस्त के पहले ओपेक कच्चे तेल की कीमत लगभग 41.47 अमेरिकी डालर प्रति बैरल थी। यह अगस्त 2021 में बढ़कर 65.74 अमेरिकी डालर प्रति बैरल हो गई। भारत अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए 80 फीसद कच्चे तेल का आयात करता है। जबकि, चीन 50 फीसद और दक्षिण कोरिया, जापान 100 फीसद कच्चा तेल आयात करते हैं। ओपेक देश भारत की जरूरत का 60 फीसद आपूर्ति करते हैं। इनमें सऊदी अरब, इराक, ईरान वेनेज़ुएला शामिल हैं। ये सभी देश ओपेक के संस्थापक सदस्य हैं। जाहिर है भारत की तेल जरूरतों का अधिकांश हिस्सा इन्हीं देशों से पूरा होता है। रूस पर प्रतिबंधों के मौजूदा दौर में ओपेक देशों की अहमियत बढ़ गई है।