नूतन पांडेय
असम में गुवाहाटी से करीब 40 किलोमीटर दूर ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तरी किनारे पर, बसा एक छोटा सा गांव है सुवालकुची। तकनीकी रूप से अब यह शहर के दर्जे में आता है। यह गांव वस्त्र बुनाई और सिल्क के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। यूं तो पूरा असम सिल्क बुनाई के लिए प्रसिद्ध है लेकिन सुआलकुची एक ऐसा गांव है जहां शायद ही कोई घर होगा जो करघे से नहीं जुड़ा हो। कभी इसे अपने सपनों का नगर बता कर महात्मा गांधी ने कहा था, ‘यहां नारियां हथकरघों पर सपने बुनती हैं’। ब्रह्मपुत्र के किनारे बहुत ही खूबसूरती से बना गांधी-मंडप इस बात का साक्षी है। गांधी के आगमन को यहां के लोगों ने जिंदा रखा है। जिस स्थान पर बैठ कर बापू ने लोगों को संबोधित किया था, वहां चरखा काटते बापू की प्रतिमा आज भी बुनकरों का मनोबल बढ़ा रही है। गांधी की यात्रा का वर्णन यहां के लोग बड़े ही गर्व से करते हैं।
असम की संस्कृति में रेशम व सूत की बुनाई-कताई गहरे तक समाई हुई है। इसे उद्योग के रूप में पूर्णत: साकार करने में पहला नाम सुवालकुची का आता है। असम में सूत व रेशों की रंगाई और बुनाई का पारंपरिक ढांचा आज भी विद्यमान है। प्रागज्योतिषपुर से लेकर असम तक के लंबे कालांतर में कई परिवर्तन हुए पर रेशम उद्योग की परंपरा कायम रही। रामायण काल में असम की भूमि को कोसाकरणम (कुकून उत्पादक भूमि) कहा गया है। अहोम काल में (मुमाई तामुली ने) तो इसे बढ़ाने के लिए घर-घर में बुनाई को अनिवार्य कर दिया गया था। पंद्रहवीं और 16वीं सदी में वैष्णव संत व समाज सुधारक श्रीमंत शंकर देव ने भी कपड़ा बुनाई को बहुत बढ़ावा दिया था।
सूत कातता रेशम नगर का हर घर
सुवालकुची में स्त्री और पुरुष दोनों ही वस्त्र बुनाई का काम करते हैं, जबकि असम के ज्यादातर इलाकों में इस कला पर स्त्रियों ने अधिकार जमा रखा है। संतानों को विरासत में यह कला मिलती है। इस इलाके में प्रवेश करते ही चरखे की चूं-चूं और करघे की खट-खट सुनाई पड़ने लगती है। रेशमी धागों को कातते चरखे, घिर्रियों पर चढ़ती रेशम की चमक, करघे पर तैयार होते रेशमी वस्त्र और करघे के बीच दौड़ती हानिजो (धागे की रील) और इन सब पर नियंत्रण रखने वाली सधी उंगलियां ‘रेशम नगर’ के अस्तित्व का आभास कराती है।
सुवालकुची में असम के अन्य हिस्सों से अधिक रेशम का उत्पादन होता है। असम और साथ ही भारत के अन्य क्षेत्रों के व्यापारी भी यहीं से माल ले जाना पसंद करते हैं। घर-घर में लोग अपने आंगन में खाल लगाते हैं। गृह कार्य निबटाने के बाद थोड़ी देर खाल पर बैठ कर बुनाई या सूत कताई का काम जरूर करते हैं। अपनी जरूरत के अतिरिक्त तैयार कपड़े (माल) या तो व्यापारियों के सुपुर्द कर देते हैं या फिर अपनी छोटी सी दुकान खोल लेते हैं। ज्यादातर घरों के बरामदे दुकान की तरह सजे दिखते हैं।
सेरीकल्चर विभाग की ओर से भी यहां सिल्क का उत्पादन किया जाता है। 1970-71 में असम सरकार की ओर से इस दिशा में कार्य हेतु सुवालकुची में मूंगा और एड़ी उत्पादन के लिए पहाड़ी और जंगल में 1200 बीघा माटी में सुम, सुआलू तथा अंडी (एंडी) इत्यादि के पेड़-पौधे लगाए गए हैं, जिन पर सिल्क के कीड़े पलते हैं। यहां कार्यरत रामेश्वर उजीर ने बताया और दिखाया भी कि सूत निकालने के साथ बुनाई के लिए कई खाल भी हैं जहां उत्पादन होता है। यहां अधिकतर जनजातीय महिलाओं को काम दिया गया है जिनमें कई बोडो महिलाएं करघे पर दिखीं। मूंगा सिल्क के लिए सुनहरे कोकून और अर्द्ध सफेद रंग के एंडी के कोकून बहुत आकर्षक दिखते हैं।
कीमती है अहिंसा सिल्क
असम में मुख्यत: तीन प्रकार के रेशम पाए जाते हैं। सुनहरे रंग के रेशम में सबसे बहुमूल्य मूंगा सिल्क पूर्वोत्तर की मुख्य देन है। मूंगा का वस्त्र हर असमिया परिवार में मिलता है। बिहू नाचोनी भी इसे अपने परिधान के रूप में अपनाती हैं। शुद्ध रेशम का होने के कारण मूंगा से निकला धागा कुछ मोटा होता है जिससे वस्त्र में इसकी खपत भी अधिक होती है। असमिया लोगों का मानना है कि मूंगा के वस्त्र अत्यंत टिकाऊ होते हैं। इसलिए यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सहेज कर दिए जाते हैं।
मूंगा के कपड़े बनाने में अधिक मात्रा में सूत लग जाता है साथ ही उत्पादन के हिसाब से मांग ज्यादा होने के कारण मूल्य अधिक होता है। इसे यहां अहिंसा सिल्क भी कहते हैं क्योकि इसमें से कीड़ा निकल जाता है तभी कोकून का इस्तेमाल होता है। मूंगा उत्पादन की अपनी समस्याएं भी हैं। इसके कीट जंगली प्रवृत्ति के होते हैं तथा कीट कोसा की उत्पत्ति विशेष मौसम के तहत ठंडे घने पहाड़ी क्षेत्रों विशेष कर निचले असम के खासी और गारो पहाड़ी के सीमावर्ती क्षेत्रों में होती है। इसके अलावा सुवालकुची में ही नहीं पूरे असम में पाट सिल्क अर्थात मालवरी के कपड़ों का उत्पादन होता है।
मालवारी मुख्यत: कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और कश्मीर में उपजाया जाता रहा है। असम में विशेष कर सुवालकुची में आज भी हथकरघे का प्रचलन है। कहीं-कहीं लोग पावर लूम लगा रहे हैं पर उसके विरोध में लगातार स्वर उठते रहते हैं और स्थानीय लोग इसकी बुनावट पसंद नहीं करते। उन्हें अपने हाथों के बने कपड़ों पर नाज होता है। आज सुवालकुची को लेकर असम सरकार और असमिया लोग और भी जागरूक हो गए हैं। अब इसे एक पर्यटन स्थल के रूप में भी बढ़ावा दिया जा रहा है। यहां एक सिल्क संग्रहालय भी तैयार किया जा रहा है।