अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) क्या एक अल्पसंख्यक संस्थान है, इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने एस. अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में दिए गए अपने 1967 के फैसले को पलट दिया। अजीज बाशा वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने 4-3 के बहुमत से फैसला सुनाया। असहमति जताने वाले तीन जजों के नाम जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एससी शर्मा हैं। जबकि सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा ने अपने फैसले में कहा कि AMU का अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रहेगा। 

हालांकि अब एक छोटी बेंच यह फैसला करेगी कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं।

सुप्रीम कोर्ट के जिन तीन जजों की बेंच ने AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर असहमति जताई है उनमें जस्टिस दीपांकर दत्ता ने स्पष्ट रूप से कहा कि एएमयू अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान नहीं है।

असहमति जताने वाले जजों का मानना था कि 1981 में दो जजों की बेंच द्वारा दिया गया आदेश, जिसमें एस. अजीज बाशा बनाम भारत संघ (1967) का हवाला दिया गया था, गलत था। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि इस आदेश में कई गड़बड़ियां थी।

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पहले समझना होगा कि 1981 वाला मामला क्या है। यह मामला अंजुमन-ए-रहमानिया बनाम जिला विद्यालय निरीक्षक का है। इस मामले में अदालत ने कहा था कि यह मामला चीफ जस्टिस के सामने कम से कम 7 जजों की बेंच के जरिये सुना जाना चाहिए जिससे एस. अजीज बाशा मामले में दिए गए फैसले पर भी विचार किया जा सके।

जस्टिस सूर्यकांत ने क्या कहा?

जस्टिस सूर्यकांत ने अपने फैसले में कहा कि दो जजों की बेंच के पास किसी मामले को 7 जजों की बेंच के सामने भेजने का अधिकार नहीं है, बल्कि ऐसी बेंच सिर्फ यह सुझाव दे सकती है कि यह मामला एक बड़ी बेंच के सामने लाया जाए। किसी बड़ी बेंच को बनाने का फैसला भारत के चीफ जस्टिस के पास है, जो Master of the Roster हैं या बेंच बनाने का फैसला करते हैं।

AMU मामले में बेंच ने बहुमत से माना कि एक अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान को यह दिखाने की जरूरत नहीं है कि उसका प्रशासन अल्पसंख्यक समुदाय के हाथों में है। वहीं, जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि अल्पसंख्यक दर्जा हासिल करने के लिए यह साबित करना जरूरी है कि उस शिक्षण संस्थान का प्रशासन अल्पसंख्यक समुदाय के पास है।

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जस्टिस दत्ता ने इस बात पर चिंता जताई कि इस तरह की प्रैक्टिस की इजाजत देने के क्या नतीजे होंगे और इससे एक खतरनाक मिसाल कायम हो सकती है। जस्टिस दत्ता ने कहा, “कल को दो जजों की बेंच कह सकती है कि उसे बेसिक स्ट्रक्चर पर संदेह है और इसे 15 जजों की बेंच के पास भेज दिया जाए और अगर हम बहुमत की राय को स्वीकार करते हैं तो वास्तव में ऐसा ही होगा।” जस्टिस दत्ता ने स्पष्ट रूप से कहा कि AMU एक अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान नहीं है।

जस्टिस शर्मा ने क्या तर्क दिए?

जस्टिस एससी शर्मा ने कहा कि यह फैसला उनकी “व्यक्तिगत राय” है और यह “न तो सहमति है, न असहमति”। उन्होंने कहा कि 1981 में इस मामले को सीधे 7-जजों की बेंच को नहीं भेजा जाना चाहिए था। जस्टिस शर्मा ने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि AMU के लिए अल्पसंख्यक दर्जा “अल्पसंख्यक छात्रों के लिए सुरक्षित स्थान” के रूप में काम करने के लिए जरूरी था। उन्होंने कहा कि एएमयू जैसे राष्ट्रीय महत्व के संस्थान “हमेशा अल्पसंख्यकों के हितों की हिफाजत करते हैं और सीखने के केंद्र हैं”।

जस्टिस शर्मा ने कहा कि यह निर्धारित करने के लिए कुछ “ब्रॉड पैरामीटर्स” होने चाहिए कि क्या कोई संस्थान अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित किया गया था। उन्होंने यह भी कहा कि संस्थान को अल्पसंख्यक समुदाय के हितों की सेवा के मकसद से बनाया जाना चाहिए और सभी प्रशासनिक मामलों में “अंतिम अधिकार” अल्पसंख्यक समुदाय के पास होना चाहिए।