Supreme Court on Aravalli Rule: अरावली की पहाड़ियों के संबंध में 13 अक्टूबर को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने पर्वतमाला के लिए 100 मीटर की नई परिभाषा तय की थी और इसकी सिफारिश सुप्रीम कोर्ट के पास भी की थी। कोर्ट ने सरकार के इस प्रस्ताव को जल्द ही स्वीकार भी कर लिया था लेकिन खास बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट की ही समिति ने इस प्रस्ताव का विरोध किया था।
जानकारी के मुताबिक, सरकार के प्रस्ताव के ठीक अगले दिन सर्वोच्च न्यायालय की केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (CEC) ने पीठ की सहायता कर रहे एमिकस क्यूरी को पत्र लिखकर बताया कि उन्होंने इस सिफारिश की जांच या अनुमोदन नहीं किया है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर को मंत्रालय की 100 मीटर वाली सिफारिश को स्वीकार कर लिया।
सीईसी के पत्र में किया था?
सीईसी की बात करें तो ये सुप्रीम कोर्ट का ही एक निकाय है, जिसकी स्थापना कोर्ट द्वारा 2002 में पर्यावरण और वनों से संबंधित आदेशों की निगरानी और अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए की गई थी। सीईसी के 14 अक्टूबर के पत्र में इस बात पर जोर दिया गया कि अरावली पहाड़ियों और उसके क्षेत्र की पारिस्थितिकी की सुरक्षा और संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) द्वारा तैयार की गई परिभाषा को अपनाया जाना चाहिए।
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FSI ने राजस्थान के 15 जिलों में 40,481 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को अरावली पर्वतमाला के रूप में चिह्नित किया है, जो न्यूनतम ऊंचाई से ऊपर स्थित है और जिसकी ढलान कम से कम 3 डिग्री है। इस परिभाषा के अनुसार निचली पहाड़ियों को भी अरावली पर्वतमाला के रूप में संरक्षित किया जाएगा। एफएसआई ने यह कार्य वर्ष 2010 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद किया था।
क्या सीजेआई को CEC के विरोध के बारे में पता था?
इस दौरान यह पूछा गया कि क्या अरावली की 100 मीटर की परिभाषाके खिलाफ सीईसी का रुख उस वक्त के सीजेआई बीआर गवई की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ को बताया गया था, तो इस पर एमिकस क्यूरी के पर्मेश्वर ने किसी भी तरह की टिप्पणी करने से साफ इनकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में अरावली पर्वतमाला की नई परिभाषा के निहितार्थ और खामियां शीर्षक से एक पावरपॉइंट प्रस्तुति में एमिकस क्यूरी ने मंत्रालय की 100 मीटर की परिभाषा का विरोध करने के लिए एफएसआई सामग्री पर बहुत अधिक भरोसा किया था।
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समिति ने किया था प्रस्ताव का विरोध
एमिकस क्यूरी के परमेश्वर ने बताया कि इस 100 मीटर वाली परिभाषा के कारण अरावली की भौगोलिक विशेषता की अखंडता नष्ट हो रही है। उन्होंने कहा कि इससे अरावली का फैलाव होगा और इसकी भौगोलिक विशेषता संरक्षित नहीं होगी। इसके चलते ही निष्कर्ष निकाला गया कि MoEF&CC द्वारा सुझाया गया दृष्टिकोण अस्पष्ट है और इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने दिया था सरकार को आदेश
मई 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने मंत्रालय को अरावली पहाड़ियों को खनन से बचाने के लिए पर्यावरण सचिव के नेतृत्व में एक समिति गठित करने का निर्देश दिया था, ताकि अरावली की एक समान परिभाषा तैयार की जा सके। डॉ. जे.आर. भट्ट ने समिति में मुख्य चुनाव आयुक्त का प्रतिनिधित्व किया था। 14 अक्टूबर को एमिकस क्यूरी को लिखे पत्र में सीईसी के अध्यक्ष और पूर्व महानिदेशक (वन) सिद्धांत दास ने लिखा कि सीईसी ने डॉ. भट्ट से समिति की 3 अक्टूबर की बैठक का लिखिति विवरण उचित जांच और विचारपूर्वक निर्णय लेने के लिए मांगा था।
इस पत्र में कहा गया कि समिति के समक्ष आज तक ऐसी कोई कार्यसूची प्रस्तुत नहीं की गई है और न ही MoEFCC द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट की CEC द्वारा कोई जाँच की गई है। इसलिए MoEF&CC द्वारा दायर हलफनामे में CEC के हवाले से दिए गए विचार वास्तव में डॉ. जे.आर. भट्ट के हैं, न कि CEC के। मंत्रालय द्वारा अपने हलफनामे के हिस्से के रूप में प्रस्तुत की गई रिपोर्ट पर हस्ताक्षर नहीं थे। दरअसल 14 अक्टूबर के पत्र में इस बात पर जोर दिया गया था कि सीईसी की यह राय है कि एफएसआई द्वारा इस्तेमाल की गई परिभाषा को ही अपनाया जाना चाहिए। संपर्क करने पर अध्यक्ष दास ने कहा कि सीईसी को न्यायिक मामलों पर टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है।
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थार के पूर्व की ओर विस्तार की कही गई बात
एफएसआई की परिभाषा के अनुसार निर्धारित अरावली की सीमा दर्शाने वाले मानचित्र का उपयोग करते हुए परमेश्वर ने लिखा कि नीली रेखाएं आधार या तलहटी की रूपरेखा को दर्शाती हैं जहां से पहाड़ी निर्माण शुरू होता है जबकि हरी रेखा अरावली की सीमा को चिह्नित करती है, जिसमें इसका बफर क्षेत्र भी शामिल है। यह देखा जा सकता है कि इस सीमा के भीतर कई छोटी पहाड़ियां स्थित हैं, जो इस पर्वत श्रृंखला में एक सामान्य घटना है और किसी विशिष्ट स्थान तक सीमित नहीं है।
हालांकि, उन्होंने आगे बताया कि यदि प्रस्तावित (100 मीटर) परिभाषा लागू की जाती है, तो ऐसी पहाड़ियों को अरावली पर्वतमाला का हिस्सा नहीं माना जाएगा और परिणामस्वरूप उन्हें खनन के लिए खोला जा सकता है। इससे निस्संदेह गंभीर पारिस्थितिक परिणाम होंगे, जिनमें थार रेगिस्तान का पूर्व की ओर और अधिक विस्तार शामिल है।
FSI ने किया था कुछ बातों का खंडन
परमेश्वर ने निष्कर्ष निकाला कि MoEF&CC द्वारा सुझाया गया दृष्टिकोण अस्पष्ट है और इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। एफएसआई ने कहा कि वह मीडिया के कुछ वर्गों में किए गए उन दावों का स्पष्ट रूप से खंडन करता है कि उसने ऐसा कोई अध्ययन किया है जिससे यह पता चलता है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले के बाद अरावली की 90% पहाड़ियाँ असुरक्षित रह जाएंगी।
बता दें कि 26 नवंबर को एफएसआई द्वारा किए गए एक आंतरिक मूल्यांकन (किसी अध्ययन का नहीं) का हवाला दिया गया था, जिसमें मंत्रालय और सीईसी को यह बताया गया था कि 100 मीटर की परिभाषा राजस्थान के 15 जिलों में फैले 20 मीटर या उससे अधिक ऊंचे 12,081 अरावली पहाड़ियों में से 91.3 प्रतिशत को बाहर कर देगी। हालांकि किसी पहाड़ी के पवन अवरोधक के रूप में कार्य करने के लिए 20 मीटर की ऊंचाई की सीमा महत्वपूर्ण है लेकिन एफएसआई के आंतरिक आकलन के अनुसार, यदि अरावली की सभी 1,18,575 पहाड़ियों पर विचार किया जाए, तो 99 प्रतिशत से अधिक पहाड़ियां 100 मीटर की सीमा को पूरा नहीं करेंगी।
सोमवार को पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने नई दिल्ली में मीडिया को बताया कि संपूर्ण अरावली पर्वतमाला के केवल 0.19 प्रतिशत हिस्से में ही खनन की अनुमति है, जो 1.44 लाख वर्ग मीटर या मात्र 278 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। हालांकि, मंत्रालय के अपने आंकड़ों से पता चलता है कि यह 278 वर्ग किलोमीटर राजस्थान, गुजरात और हरियाणा में स्थित अरावली पर्वतमाला का वह कुल क्षेत्रफल है जहां पहले से ही खनन कार्य चल रहा है। मंत्रालय ने अभी तक अरावली के निचले हिस्सों में खनन और अन्य विकास की संभावनाओं पर कोई विचार नहीं किया है, जब उन्हें 100 मीटर की परिभाषा से बाहर कर दिया जाएगा।
देश में अरावली पहाड़ियों को बचाने को लेकर एक नई बहस छिड़ चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के हालिया एक फैसले के बाद यह मुद्दा फिर से चर्चा में आ गया है। कोर्ट ने कहा है कि अरावली क्षेत्र में 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को जंगल के रूप में क्लासिफाई नहीं किया जाएगा। क्लिक करके पढ़ें पूरी खबर
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