अरविंद कुमार मिश्रा

अपने आसपास की सड़क और गली-मोहल्ले में नजर दौड़ाएं, तो आवारा कुत्ते, बेसहारा गाय और छुट्टा सांड़ नजर आ जाएंगे। घर से निकलते ही इस बात का डर बना रहता है कि कोई आवारा कुत्ता, सांड़ या बंदर अचानक हमला न कर दे। देश में हर दिन पांच हजार से अधिक लोग कुत्तों के हमले का शिकार होते हैं। ग्रामीण इलाकों में नीलगाय इस समस्या को और विकराल रूप दे रही हैं। उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश और बिहार समेत कई राज्यों में छुट्टा जानवर खड़ी फसलों को चौपट कर रहे हैं। देश के कई हिस्सों में आवारा पशु और जानवरों की वजह से खेत परती पड़े हैं। नीलगाय की वजह से कई राज्यों में किसानों को फसल चक्र बदलना पड़ा है। कई बार तो झुंड में आने वाले ये जानवर देखते-देखते खड़ी फसल को तहस-नहस कर देते हैं। किसान को इस पर न तो मुआवजा मिलता और न ही लागत की भरपाई होती है।

रेबीज से होनी वाली मौतों में 36 फीसद भारत में होती हैं

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक रेबीज से होनी वाली मौतों में 36 फीसद भारत में होती हैं। इनमें से अधिकांश पीड़ित बच्चे हैं। 2019 की पशु गणना के मुताबिक देश में अकेले आवारा कुत्तों की संख्या छह करोड़ से अधिक है। एक रपट के मुताबिक 22 फीसद सड़क हादसों की वजह बेसहारा पशु हैं। पिछले तीन वर्षों में हाथियों के हमले से 1579 लोगों को जान गंवानी पड़ी है। उत्तराखंड में गुलदार और जंगली सूअर घरों में घुसकर लोगों को शिकार बना रहे हैं। संसद और विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं में यह मुद्दा समय-समय पर उठता रहा है। कुत्तों के बढ़ते आतंक का मुद्दा तो कई राज्यों के उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच चुका है।

कर्मचारियों की कमी से बेसहारा पशुओं पर नहीं हो पा रहा नियंत्रण

बेसहारा पशुओं के लिए समय-समय पर स्थानीय प्रशासन द्वारा अभियान चलाए जाते हैं। यह मुहिम अलग-अलग पशुओं और जानवरों के मुताबिक होती हैं। इनमें टैगिंग, बंध्याकरण, जुर्माना, आश्रय स्थल और गौशालाओं के विकास जैसे अभियान प्रमुख हैं। हालांकि यह मुहिम तभी शुरू होती है, जब स्थानीय स्तर पर मुद्दा गरम होता है। बेसहारा पशुओं पर नियंत्रण की सबसे बड़ी चुनौती नगरीय प्रशासन और पशुपालन विभाग के पास कर्मचारियों की कमी है। इसी तरह जुर्माने की रकम भी बढ़ाने की जरूरत है।

मानकों पर खरी नहीं उतरती हैं देश की अधिकतर गौशालाएं

बेसहारा पशुओं के पुनर्वास के लिए बनी कई गौशालाएं इतनी खस्ताहाल होती हैं कि वहां पशुओं को रखना नई मुसीबत को दावत देना है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आइसीएआर) के मुताबिक सौ गायों की गौशाला के लिए एक एकड़ तथा पांच सौ गायों के लिए 4.5 एकड़ जमीन की उपलब्धता होनी चाहिए। इसी तरह क्रमश: पंद्रह और पचहत्तर एकड़ जमीन चारे के उत्पादन के लिए जरूरी है। सवाल है कि देश की कितनी गौशालाएं इन मानकों पर खरी उतरती हैं। राज्य सरकारें बेरोजगारी भत्ता और मुफ्त की रेवड़ी बांटने के बजाय अगर गौशालाओं को प्रोत्साहित करें तो इससे दूध, खाद समेत चमड़े का उत्पादन बढ़ेगा। रोजगार सृजन के साथ फसलों की बर्बादी रुकेगी।

पशु गणना के मुताबिक देश में उन्नीस करोड़ पालतू मवेशी हैं

बीसवीं पशु गणना के मुताबिक देश में उन्नीस करोड़ पालतू मवेशी हैं। इनमें 35 फीसद (4.7 करोड़) नर हैं। 2012-2019 के बीच मवेशियों की संख्या में 0.8 फीसद की वृद्धि हुई है। इससे पहले 2007-12 में चार फीसद की गिरावट देखने को मिली। इसकी सबसे बड़ी वजह नर पशुओं की जगह खेती में मशीनरी का इस्तेमाल बढ़ना था। नीति आयोग के आकलन के मुताबिक 53 लाख आवारा मवेशी हैं। पशुधन के विकास के साथ आवारा पशुओं की समस्या के समाधान में गौशालाएं उपयोगी साबित होंगी। आयोग की ओर से गौशालाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए कार्यबल का गठन किया गया था। इस कार्यबल ने कई अहम सुझाव दिए।

आर्थिक आत्मनिर्भरता का जरिया बन सकता है उर्वरक उत्पादन

गौशालाओं की सेहत सुधारने के लिए उन्हें सार्वजनिक और निजी भागादारी आधारित माडल में लेकर आना होगा। गैरसरकारी संगठनों के साथ स्थानीय समाज की सक्रिय भागीदारी से गौशालाओं के संचालन में पारदर्शिता आएगी। जैव ऊर्जा के उत्पादन और वितरण का काम इन गौशालाओं को दिया जाना चाहिए। गौशालाएं और डेयरी सिर्फ दुग्ध उत्पादों तक केंद्रित रहने के बजाय बायो सीएनजी, बायोफर्टिलाइजर और वर्मीकंपोस्ट के उत्पादन से जुड़ें। देश में जैविक ऊर्वरक और खाद का इस्तेमाल सिर्फ एक फीसद फसलों में होता है। वहीं सकल फसली क्षेत्र के हिसाब से प्रति हेक्टेयर 161 किग्रा रासायनिक ऊर्वरकों का उपयोग किया जा रहा है। ऐसे में गौशालाओं के लिए उर्वरक उत्पादन आर्थिक आत्मनिर्भरता का जरिया बन सकता है। इससे देश में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा मिलेगा।

रासायनिक खाद का उपयोग बढ़ने से मिट्टी का कटाव, भूजल स्तर में गिरावट और जैव विविधता का संकट पैदा हुआ है। इस समय देश के ग्यारह राज्यों में 6.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में प्राकृतिक खेती हो रही है। गाय, भैंस, बकरियां प्राकृतिक खेती का अभिन्न अंग रही हैं। 2025 तक हमें देश का दस फीसद कृषि योग्य भूमि को जैविक कृषि के अंतर्गत लाना है। देश में 150 से 180 करोड़ लीटर गौमूत्र (सभी गौजातियों द्वारा उत्सर्जित) और 30 लाख टन गोबर सृजित होता है। मगर इसका बहुत कम हिस्सा उपयोग में आ पाता है। दूध के अलावा गौजातीय पशुओं द्वारा उत्सर्जित गोबर और पेशाब से उर्वरक, कीटनाशक, दीये, ईंट और औषधियां बनाई जा सकती हैं।

देशभर में इस समय पांच हजार गौशालाएं हैं। इनमें 1837 पशु एवं जीव-जंतु कल्याण बोर्ड (एडब्ल्यूबीआइ) के अधीन हैं। पिछले तीन दशक में सकल दुग्ध उत्पादन और प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता क्रमश: 4.45 और 2.85 फीसद बढ़ी है। एक अध्ययन के मुताबिक देश में 81 फीसद गौशालाएं निजी प्रतिष्ठानों द्वारा संचालित हैं। अभी अधिकांश गौशालाएं दान के भरोसे चलती हैं।

पशुओं की देखभाल का मुद्दा राज्यों की विषय सूची का है। केंद्रीय पशुपालन एवं डेयरी विभाग ने पशु जन्म नियंत्रण के लिए नीति बनाई है, इसके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी नगरीय निकायों की है। भारतीय जीव-जंतु कल्याण बोर्ड चिह्नित गौशालाओं, पशु कल्याण संगठनों, गैरसरकारी संगठनों और स्थानीय निकायों को आर्थिक मदद भी करता है। पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 के अंतर्गत केंद्र सरकार ने पशु जन्म नियंत्रण (कुत्ता) 2001 को खत्म कर पशु जन्म नियंत्रण नियम 2023 अधिसूचित किया है। नियमों के मुताबिक पशु जन्म नियंत्रण कार्यक्रम भारतीय जीव-जंतु कल्याण बोर्ड में पंजीकृत संस्थाओं द्वारा ही किया जाए।

बोर्ड की वेबसाइट में ऐसी संस्थाओं के पते दिए जाएं। 1960 में पशु क्रूरता निवारण कानून के तहत भारतीय जीव जंतु कल्याण बोर्ड का गठन किया गया था। पशुओं के पुनर्वास, देखभाल, उपचार, चरागाहों और गौशालाओं के विकास जैसे विषयों पर बोर्ड को व्यापक अधिकार हैं। एडब्ल्यूबीआइ बनाम ए नागराज मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश हैं कि बोर्ड उन सभी विभागों पर कार्रवाई करेगा, जो न्यायालय के निर्देश और बोर्ड के सुझाव नहीं मानेंगे। मगर बोर्ड समय-समय पर परामर्श जारी करने की खानापूर्ति करता ही दिखता है।

बेसहारा पशु खासकर गाय, समाज के दोहरे चरित्र को उजागर करती हैं। बड़ी संख्या में सड़कों पर घूमने वाली गाएं जब तक दूध देती हैं, उनका खूब लालन-पालन होता है, लेकिन इसके बाद उन्हें अक्सर आवारा छोड़ दिया जाता है। पशुओं को बेसहारा छोड़ना उनके प्रति समाज में बढ़ती क्रूरता की निशानी है। पशुओं की मानवीय बस्तियों में मौजदूगी बढ़ने की एक वजह उनका सिकुड़ता आवासीय परितंत्र है। चरागाहों से लेकर वन परिक्षेत्र विकास के नाम पर मानवीय गतिविधियों की भेंट चढ़ रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने चरागाहों को संरक्षित करने का निर्देश दिया है। आवारा पशुओं के मुद्दे को मानवीय और पशु अधिकार दोनों ही नजरिए से हल करने की आवश्यकता है।