केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हाल ही में राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में दो विशेषज्ञों की कैबिनेट की नियुक्ति के संबंध में सार्वजनिक करने से मना कर दिया है। मंत्रालय ने कहा कि ऐसी जानकारी का खुलासा करने से राज्य के “रणनीतिक हित” प्रभावित होंगे। 2 सितंबर, 2019 को, कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग ने एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया था कि कैबिनेट की नियुक्ति समिति ने पर्यावरण मंत्रालय के दो मौजूदा अधिकारियों को NGT में “तीन साल की अवधि तक” के लिए विशेषज्ञ सदस्य के रूप में नियुक्त किया है।

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल एक्ट, 2010 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि NGT के अध्यक्ष, न्यायिक सदस्य और विशेषज्ञ सदस्य पांच साल के लिए नियुक्त किए जाएंगे और एक बार नियुक्त होने के बाद, उन्हें फिर से नियुक्त नहीं किया जा सकता है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं का आरोप है कि NGT के विशेषज्ञ सदस्यों के कार्यकाल को कम करके, केंद्र अपनी स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रहा है।

ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल द वायर ने आरटीआई आवेदन दायर किया जिसमें नियुक्ति प्रक्रिया से संबंधित कई दस्तावेज, पद के लिए आवेदन करने वाले उम्मीदवारों के नाम और उनकी विशेषज्ञता, और शॉर्ट-लिस्ट करने के लिए बनाई गई सर्च कमेटी या नियुक्ति समिति के बैठकों के मिनट्स समेत कई दस्तावेज मांगे थे। हालांकि मंत्रालय ने सभी बिंदुओं जानकारी देने से मना कर दिया।

पर्यावरण मंत्रालय ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा, “एनजीटी में विशेषज्ञ सदस्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया अभी भी चल रही है, यही वजह है कि आरटीआई अधिनियम, 2005 की धारा 8 (1) (ए) के तहत जानकारी प्रदान नहीं की जा सकती क्योंकि इससे राज्य के रणनीतिक हित प्रभावित होंगे।’ कैबिनेट ने एनजीटी में विशेषज्ञों के रूप में वन महानिदेशक सिद्धांत दास और अतिरिक्त महानिदेशक (वन संरक्षण) साईबाल दासगुप्ता की नियुक्ति को मंजूरी दे दी है। केवल नियुक्ति अधिसूचना को भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया जाना बाकी है।

आरटीआई कानून की धारा 8 (1) (आई) की पहली शर्त में लिखा है कि फैसला लेने के बाद, जिस आधार पर फैसला लिया गया है उससे संबंधी सभी दस्तावेज, मंत्री परिषद के निर्णय एवं उनके कारण सार्वजनिक किए जाने चाहिए। हालांकि पर्यावरण मंत्रालय ने नियुक्ति संबंधी कोई जानकारी देने से मना कर दिया है। पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त एम श्रीधर आचार्युलु ने कहा, “एक बार कैबिनेट ने निर्णय लेने के बाद, इससे संबंधित सभी दस्तावेजों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। ऐसा नहीं करना आरटीआई अधिनियम का उल्लंघन है।”

मंत्रालय ने ये नहीं बताया कि किस आधार पर कैबिनेट ने विशेषज्ञ समिति के सदस्यों की नियुक्ति तीन साल करने के लिए मंजूरी दी है, जबकि एनजीटी एक्ट में पांच साल का कार्यकाल निर्धारित किया गया है। इससे पहले 2018 में डॉ. नगीन नंदा की नियुक्ति एनजीटी में बतौर विशेषज्ञ सदस्य के रूप में किया गया और इनका कार्यकाल पांच साल के लिए तय किया गया था। इसी तरह साल 2016 में डॉ. एसएस गर्बयाल की नियुक्ति के लिए जारी किए गए आदेश में लिखा है कि उन्हें पांच साल या 65 वर्ष की उम्र तक, जो भी पहले हो, के लिए नियुक्त किया जा रहा है।

पर्यावरण कार्यकर्ताओं का दावा है कि अगर विशेषज्ञ सदस्यों का कार्यकाल कम हो जाता है, तो यह एनजीटी की स्वतंत्रता के साथ समझौता करने जैसा होगा। वेबसाइट बार एंड बेंच पर प्रकाशित एक लेख में, पर्यावरण के वकील रितविक दत्ता ने लिखा, “हालिया नियुक्तियां एनजीटी दोनों को न्यायिक निकाय और पर्यावरण पर एक विशेषज्ञ निकाय के रूप में नष्ट कर देगी।”

इसके अलावा हाल में जिन दो लोगों की नियुक्ति विशेषज्ञ सदस्य के रूप में हुई है, उन्हें लेकर हितों के टकराव होने के भी आरोप हैं। इनमें से एक सिद्धांत दास वन महानिदेशक हैं, जिनकी नियुक्ति हुई है। वन महानिदेशक वन सलाहकार समिति (एफएसी) का अध्यक्ष होता है, जो वन भूमि को गैर-वन कार्यों के लिए उपयोग में लाने पर फैसला लेता है। अपर वन महानिदेशक  भी एफएसी का सदस्य होता है और नियुक्त किए गए दूसरे शख्स सैबल दासगुप्ता इस समय अवर वन महानिदेशक हैं। एफएसी द्वारा दी गई वन मंजूरी के फैसले के खिलाफ मामलों की सुनवाई एनजीटी में होती है। इस तरह जो दो लोग वन मंजूरी के फैसले में शामिल थे, वही लोग अपने फैसले के खिलाफ अपीलों की सुनवाई कर सकते हैं।