देश के पहले मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला समेत 6 सूचना आयुक्तों ने केंद्र की तरफ से सूचना का अधिकार कानून, 2005 में संशोधन को लेकर सरकार की मंशा पर सवाल खड़े किए हैं। इन लोगों ने बुधवार को सरकार के इस कदम की आलोचना की। लोकसभा इस संशोधन वाले बिल को 22 जून को ही पारित कर चुका है।
इसमें केंद्र सरकार द्वारा केंद्र व राज्यों के सूचना आयुक्तों का कार्यकाल व उनका वेतन तय करने का अधिकार देने की बात है। इस संशोधन को ‘केंद्रीय सूचना आयोग को जब्त करना’ बताते हुए हबीबुल्ला ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने यह बार-बार कहा है कि सूचना का अधिकार एक मौलिक अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है।
यह कहना बेतुका है कि सीआईसी मुख्यालय का कोई संवैधानिक दर्जा हासिल नहीं है।’ पूर्व सूचना आयुक्त यशोवर्धन आजाद ने जल्दबाजी में आरटीआई में संशोधन करने के लिए सरकार की मंशा पर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि सरकार ने इसमें लोगों से रायशुमारी भी नहीं की है। वह पूछते हैं कि क्या अलग-अलग सूचना आयुक्तों का कार्यकाल अलग हो सकता है। क्या उनका सेवा काल नियुक्ति के बाद बदला जा सकता है।
बिल कहता है कि सूचना आयुक्त की सेवा शर्ते केंद्र सरकार तय करेगी। वर्तमान में सूचना आयुक्त का कार्यकाल 5 साल या 65 वर्ष तक की आयु जो भी पहले हो, तक का होता है। इन अधिकारियों को कोई भी इनके पद से नहीं हटा सकता है। इन्हें सिर्फ नैतिक पतन या विक्षिप्त होने की सूरत में ही हटाया जा सकता है।
पूर्व सीआईसी दीपक संधू ने 2017 को याद करते हुए कहा कि मोदी सरकार ने 19 वैधानिक इकाइयों के प्रमुखों के वेतन में बढ़ोतरी की थी। इसमें केंद्रीय सतर्कता आयोग और आर्म्ड फोर्स ट्रिब्यूनल के प्रमुख भी शामिल थे। ऐसा वेतन में समानता लाने के लिए किया गया था। वे तर्क देती हैं कि सरकार सीआईसी की शक्तिओं को कम कर इनके संबंध में भी ऐसा किया जा सकता है। शैलेष गांधी कहते हैं कि सरकार को संसद में सही तथ्य रखने चाहिए।
सीआईसी का लिया गया निर्णय आखिरी होगा और इसके खिलाफ किसी भी अदालत में अपील नहीं की जा सकती है। गांधी ने इस संदर्भ में केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह के उस बयान का हवाला दिया था जो उन्होंने इस संशोधन संबंधी बिल को संसद में रखने के दौरान दिया था। सिंह ने कहा था कि चूंकि सीआईसी के निर्णय को हाईकोर्ट में चुनौती दी जा सकती है तो यह पद सुप्रीम कोर्ट के जज के समान नहीं हो सकता है।