पिछले कुछ वर्षों से देश का बाजार परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। उत्पादों की विविधता बढ़ी है। विक्रय विधियों, नीतियों तथा व्यूह रचनाओं में परिवर्तन के साथ-साथ उपभोक्ता की क्रय आदतों, क्रय निर्णयों, आवश्यकताओं, रुचियों आदि में भी व्यापक परिवर्तन आया है। कंपनियों के आक्रामक विज्ञापन तथा विक्रय संवर्धन योजनाओं के माध्यम से उपभोक्ताओं को आकर्षित करने का निरंतर प्रयास होता रहता है।
उपभोक्ता वस्तुएं, जिन्हें खुदरा वस्तुएं भी कहा जाता है, में शामिल गैर-टिकाऊ उत्पाद तीन साल से कम समय में खपत हो जाने वाले माने जाते हैं। डिब्बाबंद भोजन और पेय पदार्थ, कपड़े धोने का पाउडर, साबुन आदि हजारों प्रकार की वस्तुएं इसी श्रेणी में आती हैं।
उपभोक्ता उत्पादों में टिकाऊ उपभोक्ता उत्पाद भी शामिल हैं, जिनका जीवनकाल तीन वर्ष से अधिक होता है और जिनका बार-बार उपयोग किया जाना संभव होता है तथा जो लंबे समय तक चलते हैं। टीवी, लैपटाप, मोबाइल फोन, फ्रिज, वाशिंग मशीन, बाइक, कार आदि को टिकाऊ उपभोक्ता उत्पाद की श्रेणी में रखा जाता है।
कुछ विशिष्ट उपभोक्ता वस्तुएं भी होती हैं जो दुर्लभ श्रेणी की होती हैं और अक्सर इन्हें विलासितापूर्ण माना जाता है। स्पोर्ट्स कार और ललित कला, एंटिक सामान, पुराने डाक टिकट, सिक्के आदि विशिष्ट उपभोक्ता वस्तुओं के उदाहरण हैं। इनका सीमित मात्रा में उत्पादन किया जाता है। इनका मूल्य अक्सर आम आदमी की पहुंच के बाहर होता है।
अब परंपरागत हाट-बाजारों के स्थान पर बड़े-बड़े माल और शापिंग कांप्लेक्स लेते जा रहे हैं। अगर ग्राहक बाजार जाकर खरीदारी न करना चाहे, तो उसके लिए उपलब्ध ‘होम डिलीवरी’ सेवाओं ने भी बाजार स्वरूप को बदल दिया है। ई-कामर्स क्षेत्र ने अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है। आज देश में ई-कामर्स क्षेत्र से जुड़ा व्यापार करीब पच्चीस अरब डालर का है।
अनुमान है कि अगले दस वर्षों में यह व्यापार करीब दो सौ अरब डालर का हो जाएगा। मेडिकल, रिटेल, बैंकिंग, शिक्षा, मनोरंजन जैसी सुविधाएं आनलाइन होने से लोगों की सहूलियतें बढ़ी हैंं। इससे वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति में तीव्रता आती है और ग्राहकों की संतुष्टि का ध्यान भी रखा जाता है।
मगर यह भी उल्लेखनीय है कि आनलाइन खरीदारी को लेकर उपभोक्ता के मन में कई बार संदेह का भाव बना रहता है। इस क्षेत्र में विभिन्न रूपों में ठगी के बहुत से मामले सामने आते रहते हैं। वस्तुओं के पैकेट पर अंकित अधिकतम खुदरा मूल्य यानी ‘एमआरपी’ भी एक विवाद का विषय रहा है। दवाइयों, सौंदर्य प्रसाधन सहित अधिकांश उत्पादों की ‘एमआरपी’ उपभोक्ता के साथ ठगी का माध्यम बनता जा रहा है।
बहुत से व्यवसायी अंकित एमआरपी पर वस्तु बेचते हैं, जबकि वस्तु का वास्तविक मूल्य और लागत में बहुत आधिक अंतर होता है। दवाइयों के मामले में तो यह अंतर दस से बीस गुना तक देखा जा सकता है। निर्माता मनमाने ढंग से इसका निर्धारण कर देते हैं। ‘एमआरपी’ निर्धारण का उचित आधार होना और उसका खुलासा करना उपभोक्ता हित की दृष्टि से जरूरी है।
कुछ समय पहले तक मूल्य और मात्रा इस प्रकार से निर्धारित की जाती थी कि ग्राहक को वस्तु की प्रति इकाई या प्रति ग्राम की गणना समझ में नहीं आती थी। अब पैकेजिंग पर मूल्य और मात्रा के साथ-साथ उसकी प्रति ग्राम या प्रति इकाई मूल्य छापने के प्रावधान से ग्राहकों को गणना करने और दूसरे ब्रांडों के मूल्य और मात्रा से तुलना करने की सुविधा हो गई है।
बदलते बाजार परिदृश्य में ग्राहक के क्रय निर्णय में वस्तु की गुणवत्ता तथा टिकाऊपन के स्थान पर उसके रंग रूप, आकार और प्रचलित फैशन को अधिक प्राथमिकता मिलने लगी है। जो वस्तु आकर्षक विज्ञापन तथा तड़क-भड़क वाले रंग-रूप में उपस्थित है वह उसे ही खरीदता है, चाहे वह देशी हो या विदेशी।
बाजार में उपलब्ध ऋणदाताओं तथा शून्य ब्याज वाली योजनाओं ने उपभोक्ताओं की गैर-जरूरी आवश्यकताओं को तेजी से बढ़ाया है। अब उपभोक्ता के लिए अपनी पसंद की कार, स्कूटर, टीवी, फ्रिज, मोबाइल आदि के लिए पैसे जोड़ने की जरूरत नहीं है। बहुत कम ब्याज के साथ जो वित्त योजनाएं उपलब्ध हैं, उनमें दबे-छिपे तरीके से बहुत से खर्च जोड़ दिए जाते हैं, जो ब्याज जितने ही पड़ जाते हैं।
इन आकर्षक योजनाओं के कारण व्यक्ति अपनी क्षमता से बाहर की बहुत-सी वस्तुओं का उपयोग करने लगा है। इस कारण लोगों की ऋणग्रस्तता बढ़ी है। वर्तमान बाजार परिवर्तन के दौर में जहां ग्राहकों में जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है, वहीं उत्पादकों और विक्रेताओं के लिए अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए अपनी वस्तुओं और सेवाओं की गुणवत्ता में निरंतर सुधार की भी जरूरत है।