महाराष्ट्र की राजनीति में एनसीपी प्रमुख शरद पवार के एक बयान ने सियासी भूचाल ला दिया है। पार्टी मीटिंग में पवार ने ऐलान किया है कि वे जल्द ही अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे देंगे। उनके इस एक बयान ने पार्टी को ही असमंजस की स्थिति में ला दिया है। अभी भी एनसीपी शरद पवार के अलावा किसी दूसरे चेहरे को अध्यक्ष कुर्सी पर नहीं देख सकती है, अभी भी बिना पवार के एनसीपी की कल्पना करना मुश्किल रहता है। लेकिन शरद पवार अपने फैसले पर अडिग दिख रहे हैं, ऐसे में पार्टी को आगे की रणनीति पर विचार करना पड़ेगा।

अजित ने पहले किया खेल, क्या फिर कुछ होने वाला है?

वैसे इस समय एनसीपी में जो स्थिति चल रही है, जानकार इसके लिए कहीं ना कहीं अजित पवार को भी जिम्मेदार मानते हैं। कहने को ये मीडिया अटकलें रहीं, लेकिन दावा हुआ था कि अजित एक बार फिर बीजेपी से हाथ मिलाना चाहते हैं। वे महाराष्ट्र में बड़ा सियासी खेला करने की तैयारी कर रहे हैं। उनके पास कई एनसीपी विधायकों का समर्थन है जिनके साथ वे बीजेपी से दोस्ती कर सकते हैं। इन दावों पर मीडिया के सामने जरूर शरद पवार ने खुलकर कुछ नहीं बोला और अपने भतीजे अजित पवार का भी बचाव किया, लेकिन पार्टी के अंदर हलचल तेज थी। इसी वजह से अब जब शरद पवार अध्यक्ष पद छोड़ने की बात कर रहे हैं, राजनीतिक जानकार इसे चाचा-भतीजे की रस्साकशी से जोड़कर देख रहे हैं। वैसे चाचा-भतीजे की रस्साकशी भारतीय राजनीति का एक अहम हिस्सा रही है।

राज ठाकरे का जिक्र करना क्यों जरूरी?

असल में बात जब भी चाचा-भतीजे की होती है, तब शिवसेना संस्थापक बाला साहेब ठाकरे और उनके भतीजे राज ठाकरे का जिक्र जरूर करना पड़ता है। बाला साहेब ठाकरे और राज ठाकरे एक समय साथ मिलकर शिवसेना की सियासत को संभालते थे। कोई भी रैली हो, बड़ी मीटिंग हो या फैसले लेने हों, राज ठाकरे, बाल ठाकरे के सबसे करीबी माने जाते थे। लेकिन पुत्रमोह कहिए, राजनीति कहिए या कुछ और, बात जब शिवसेना के अगले अध्यक्ष चुनने की आई, बात जब शिवसेना की बागडोर देने की हुई, तो बाल ठाकरे ने अपने भतीजे राज ठाकरे को नजरअंदाज कर दिया और बेटे उद्धव को राजनीति में सक्रिय कर दिया। अब राजनीति का ये किस्सा अपने आप में काफी नाटकीय है।

जब चाचा-भतीजे का एक अंदाज, दिल क्यों नहीं मिले?

इसकी शुरुआत 90 के दशक से हो गई थी जब बाल ठाकरे महाराष्ट्र की राजनीति में पूरी तरह रम चुके थे,कह सकते हैं कि शिखर पर पहुंच गए थे। उन्हीं की तूती बोलती थी, उन्हीं के इशारों पर काम होता था और मुंबई में तो पूरी तरह उनका बोलबाला चल रहा था। अब उस समय अगर बाल साहेब ठाकरे सियासी शिखर पर थे तो उनके भतीजे राज ठाकरे भी राजनीति के दांव-पेच सीख लिए थे। चाचा जैसा पहनावा, वैसी ही बोली,वैसी ही शैली, हर मायने वे बाल ठाकरे के ही दूसरे रूप दिखाई पड़ते थे। तब जानकार तो ऐसी बात करते ही थी, शिवसेना के अंदर भी राज ठाकरे को लेकर कोई असमंजस की स्थिति नहीं थी। सभी के लिए बाल ठाकरे के बाद राज ही सही उत्ताधिकारी दिखाई पड़ रहे थे। ये वो समय था जब उद्धव ठाकरे राजनीति में सक्रिय तो छोड़िए, ज्यादा दिलचस्पी भी नहीं दिखाते थे, यानी कि राज ठाकरे का सियासी रास्ता बिल्कुल क्लियर था।

उद्धव की सियासी एंट्री और अकेले पड़ गए राज

अब उद्धव को शायद राजनीति में उतनी दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन बाल ठाकरे अपने बेटे को राजनीति में देखना चाहते थे। कहने को उनके बेटे का अंदाज शिवसेना से इतर शांत दिखाई पड़ता था, कहने को उनका व्यक्तित्व आक्रमक नहीं था, लेकिन फिर भी बाल ठाकरे के लिए उद्धव सबकुछ थे। इसी वजह से 2002 में जब बीएमसी के चुनाव हुए तो शिवसेना के प्रबंधन की जिम्मेदारी उनके सिर दे दी गई। उद्धव उस परीक्षा में पास हो गए, पार्टी ने शानदार प्रदर्शन भी किया और शिवसेना में उद्धव की सक्रियता भी बढ़ गई। अब एक तरफ उद्धव सक्रिय हुए तो राज ठाकरे अपनी ही पार्टी में अलग-थलग पड़ने लगे। इसका अंदाजा तो उन्हें 1997 में ही हो जाना चाहिए था जब उनके कई समर्थकों के टिकट बीएमसी चुनाव में काट दिए गए थे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और राज ठाकरे अपनी उम्मीदों के साथ पार्टी के साथ खड़े रहे। उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आ रही थी, पार्टी मानकर चल रही थी कि बाल ठाकरे, जल्द ही राज को अपने उत्तराधिकारी के रूप में घोषित कर देंगे।

राज ठाकरे ने क्या सोचकर बनाई थी नई पार्टी?

लेकिन इस नाटकीय राजनीति में बाल ठाकरे ने एक और अध्याय जोड़ते हुए उद्धव ठाकरे को शिवसेना का अगला अध्यक्ष घोषित कर दिया, यानी कि पार्टी की कमान उस नेता को दी गई जो 40 साल की उम्र तक राजनीति से दूर चल रहा था, जिसे सियासत से ज्यादा फोटोग्राफी में मजा आता था। इस एक ऐलान से पार्टी हैरानी, लेकिन उससे भी ज्यादा हैरान और दुखी राज ठाकरे थे। जिस चाचा से उन्होंने राजनीति की एबीसीडी सीखी थी, उन्होंने ही एक तरह से सियासी रूप से उन्हें खत्म करने का काम कर दिया। लेकिन राज को ये सियासी हार मंजूर नहीं थी, उन्होंने बड़ा फैसला करते हुए 2006 में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन कर दिया। उन्होंने अपने चाचा की पार्टी शिवसेना को छोड़ दिया। अब रास्ता जरूर बदला था,लेकिन उनके मन में था कि शिवसेना के कई कार्यकर्ता उन्हें ही उत्ताधिकारी के रूप में देखते हैं।

राज ठाकरे की शुरुआती लोकप्रियता और फिर गिरता ग्राफ

ऐसे में जब राज ठाकरे शिवसेना से अलग हुए, उन्होंने ये कह दिया कि इस वाली शिवसेना ने अपनी विशेषता खो दी है। उनका तंज उद्धव पर था जो स्वभाव से नरम और शैली से एकदम शांत थे। अलग पार्टी बनाने के बाद राज ठाकरे और उनकी एमएनस को कुछ शुरुआती फायदे तो जरूर हुए। 2009 के विधानसभा चुनाव में पहली बार उनकी पार्टी उतरी और 13 सीटें जीतने में कामयाब हो गई। लेकिन उस एक सफलता के बाद से उनका अर्श से सियासी फर्श पर आने का सफर शुरू हो गया। राज ठाकरे अपने बयानों की वजह से चर्चा में तो जरूर बने रहते, लेकिन शिवसेना का विकल्प बनने की जो वे कोशिश कर रहे थे, उसमें फेल हो गए।

क्या बाल ठाकरे की तरह ‘पुत्रमोह’ की ओर शरद पवार?

अब ये थी चाचा बाल ठाकरे और भतीजे राज ठाकरे की सियासी कहानी जहां पर कई नाटकीय मोड़ देखने को मिले, उतार-चढ़ाव हुए और बाद में राहें भी अलग हो गईं। सवाल ये उठता है कि क्या अजित पवार भी राज ठाकरे वाली राह पर चलने वाले हैं? क्या वे भी एनसीपी का दामन छोड़ सकते हैं? क्या वे एनसीपी के अंदर ही बगावत कर कई विधायकों को तोड़ सकते हैं? सवाल कई सारे हैं, लेकिन अभी तक शरद पवार ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं। उन्होंने तो सिर्फ एक सियासी बम फोड़ा है। उस पर अजित पवार की प्रतिक्रिया भी आई है, उन्होंने जोर देकर कहा है कि नए नेतृत्व को मौका मिलना चाहिए। पवार साहब चाहते हैं कि नई पीढ़ी नेतृत्व करे। हमें उनका समर्थन मिलता रहेगा। नया नेतृत्व पवार की अगुवाई में काम करेगा। सभी फैसले शरद पवार की सहमति से ही होंगे। बार-बार फैसला वापस लेने को न कहें। शरद पवार साहब ने पार्टी नहीं छोड़ी है, पद छोड़ा है।

अब जिस समय एनसीपी के दूसरे नेता शरद पवार के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं, अजित कुछ अलग अंदाज में दिखाई पड़ रहे हैं। वे इस कदम को सही बताते हुए नए नेतृत्व को मौका देने की बात कर रहे हैं। लेकिन एनसीपी का अगला अध्यक्ष होगा कौन? क्या पवार परिवार का ही कोई सदस्य पार्टी बागडोर संभालने वाला है? क्या शिवसेना की तरह यहां भी शरद पवार अपनी बेटी सुप्रिया सुले को आगे करने वाले हैं? क्या राज ठाकरे की तरह अजित पवार के साथ भी सियासी खेला हो सकता है? सवाल अनेक हैं, अटकलें कई हैं, लेकिन फैसला आने वाले कुछ दिनों में ही साफ हो पाएगा।