विचित्र संयोग है कि 29 जुलाई 2019 को जब केंद्र सरकार ने लालजी टंडन का तबादला बिहार के राज भवन से मध्यप्रदेश के राज्यपाल के पद पर किया तो उन्होंने वहां की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल से कामकाज संभाला था, जिन्हें भोपाल से उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाकर भेज दिया गया था।
अब टंडन बीमार हुए और उपचार के लिए लखनऊ के मेदांता अस्पताल में भर्ती हुए तो मध्यप्रदेश में सियासी गतिविधियां इतनी तेज हो गई कि वहां के राज भवन का कामकाज अस्थायी तौर पर ही सही उन्हीं आनंदी बेन ने संभाला जो टंडन जी को कामकाज सौंपकर गई थीं।
85 वर्षीय टंडन ने गुरुग्राम की जगह लखनऊ के मेदांता अस्पताल में इलाज कराना इसलिए चुना क्योंकि लखनऊ उनका घर तो था ही, लखनऊ और वे एक दूसरे के पूरक कहलाते थे। लखनऊ के मेदांता अस्पताल में वे 11 जून को भर्ती हुए थे और वहीं 21 जुलाई मंगलवार सुबह करीब पांच बजे उन्होंने अंतिम सांस ली।
टंडन को राजनीति में मर्यादा, धैर्य, पार्टी के प्रति वफादारी, कुशल संगठन क्षमता और निष्ठा व अनुशासन के लिए हमेशा याद किया जाएगा। पद की चाह में उन्होंने कभी मूल्यों से समझौता नहीं किया। अटल बिहारी वाजपेयी से उनकी अदभुत निकटता थी।
अटल जी ने 1991, 1996, 1998, 1999 और 2004 तक लगातार पांच लोकसभा चुनाव लखनऊ से ही लड़े। बेशक उनका कद बड़ा था और लोकप्रियता भी बेजोड़ थी पर वे अपने चुनाव परिणाम को लेकर अगर कभी आशंकित नहीं हुए तो इसकी वजह उनका लालजी टंडन पर भरोसा था। वे वाजपेयी से कहते थे-आप बस नामांकन के लिए लखनऊ आइए। बाकी सब हम संभाल लेंगे। वाजपेयी ने जब सेहत खराब होने के कारण 2009 में लोकसभा चुनाव लड़ने में असमर्थता जताई तो भाजपा ने टंडन को ही उनका उत्तराधिकारी बनाकर लखनऊ की लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाया और वे जीते भी।
बड़े पद पाने की आज के राजनीतिकों की युवा पीढ़ी की उतावली, उसके लिए किसी भी तरह के समझौते और पद न मिलने पर बगावत कर बैठने की प्रवृत्तियों के लिए लालजी टंडन मुंह पर तमाचे की तरह थे। उन्होंने 1960 में अपना राजनीतिक करिअर लखनऊ नगर निगम के पार्षद के रूप में शुरू किया था। लगातार दो बार वे पार्षद रहे। तब जनसंघ का दौर था। संगठन क्षमता, निष्ठा, समर्पण और परिश्रम के बूते ही वे पार्षद से 1978 में विधान परिषद पहुंचे। छह साल परिषद में अपना सियासी हुनर दिखाया।
उसके बाद 1990 में उन्हें पार्टी ने फिर विधान परिषद भेज दिया। एक साल बाद प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा ने पहली बार अपने बूते सरकार बनाई तो टंडन का मंत्री पद का दावा स्वाभाविक था। पर उन्हें मौका नहीं मिला। उनसे कम उम्र वाले कई नेताओं को मंत्री पद मिले। पार्टी के प्रति निष्ठा के चलते ही टंडन ने अपने असंतोष को जुुबां पर नहीं आने दिया।
लालजी टंडन 1996 में लखनऊ पश्चिम विधानसभा सीट से जीतकर पहली बार विधानसभा पहुंचे। कुछ दिन विधानसभा निलंबित रही और फिर भाजपा ने मायावती के साथ नए किस्म का समझौता कर साझा सरकार बनाई। तय हुआ कि पहले छह महीने मायावती मुख्यमंत्री होंगी और अगले छह महीने कल्याण सिंह। मायावती के मंत्रिमंडल में टंडन पहली बार मंत्री बने। मायावती से भाजपा के गठबंधन के पीछे उनकी भी बड़ी भूमिका थी। दलित महिला से रक्षा बंधन पर राखी बंधवाकर टंडन ने सामाजिक समरसता का संदेश तो दिया ही, दोनों परस्पर मुंह बोले भाई-बहन कहलाए और इस रिश्ते को कम से कम टंडन ने जीवन भर मर्यादा पूर्वक निभाया।
मायावती के बाद कल्याण सिंह दूसरी बार सूबे के मुख्यमंत्री बने। लेकिन 1999 में पार्टी ने उनसे इस्तीफा मांग लिया। मुख्यमंत्री की दौड़ में तीन नाम प्रमुख थे-राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र और लालजी टंडन। लेकिन कल्याण सिंह इनमें से किसी के नाम पर रजामंद नहीं थे। आखिर में वे निर्वासन भोग रहे रामप्रकाश गुप्ता के नाम पर पद छोड़ने को तैयार हुए। गुप्ता को भी पार्टी ने एक साल बाद हटा दिया तो मौका राजनाथ सिंह को मिल गया। जबकि अनुभव और वरिष्ठता में दावा टंडन का बनता था। वे कोई बगावत किए बिना चुपचाप पहले की तरह मंत्री पद से ही संतुष्ट हो गए।
राजनाथ सिंह के नेतृत्व में भाजपा 2002 का विधानसभा चुनाव हार गई। उत्तर प्रदेश में किसी को बहुमत नहीं मिला और राष्टÑपति शासन लागू करना पड़ा। राजनीतिक शून्य को भरने में फिर टंडन का कौशल काम आया। मायावती के साथ भाजपा ने उन्हीं के नेतृत्व में साझा सरकार बनाई। साल भर चली इस सरकार में भी टंडन मंत्री थे। कुल सात साल वे मंत्री रहे। मंत्री के रूप में उन पर कभी भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा। उनका कामकाज भी खूब सराहा गया।
टंडन को भाजपा ने 2014 में करारा झटका दिया जब लखनऊ की उनकी लोकसभा सीट छीनकर पार्टी ने राजनाथ सिंह को थमा दी। हालांकि उनके पुत्र आशुतोष टंडन को पार्टी पहले ही विधानसभा में भेज चुकी थी। जो अब योगी सरकार में बतौर मंत्री वही विभाग संभाल रहे हैं, जो उनके पिता का पसंदीदा था। टिकट कटने के बाद भी टंडन खामोश बने रहे।
भाजपा सरकार ने पार्टी के दूसरे लोगों को राज्यपाल बनाना शुरू किया तो भी टंडन ने धीरज नहीं खोया। आखिर सत्यपाल मलिक को जब पटना से श्रीनगर के राजभवन भेजा तब 23 अगस्त 2018 को टंडन बिहार के राज्यपाल बने। वह करीब ग्यारह महीने पद पर रहे।
टंडन के व्यक्तित्व में खूबियां भरपूर थी। बिहार में राज्यपाल बने तो नीतीश की यानि गैर भाजपा सरकार थी। मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार थी। एक बार भी टंडन पर पक्षपात या केंद्र के एजंट की तरह काम करने का वैसा आरोप नहीं लगा जैसा अक्सर राज्यपालों पर आए दिन लगता है।
टंडन ने भले कभी अपनी इस पीड़ा का जिक्र न किया हो पर किसी हद तक खत्री जाति में जन्म लेना उनके सियासी सफर में अवरोध पैदा करता रहा। जात-पात के गुणाभाग से चलने वाली उत्तर प्रदेश की सियासत में एक फीसद से भी कम संख्या वाली जात के नेता को तमाम योग्यताओं के बावजूद भला कौन बनाता मुख्यमंत्री!