IPC की धारा 377 क्या है, Section 377 in Hindi: सुप्रीम कोर्ट ने IPC की धारा 377 को लेकर ऐतिहासिक फैसला दिया है। इस सेक्शन में भारत में समलैंगिक संबंधों को अपराध करार दिया गया था, जिसे मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने निरस्त कर दिया है। ब्रिटिश काल के समय वर्ष 1860 में अमल में आए धारा 377 में बेहद सख्त सजा का प्रावधान किया गया था। इसके तहत दोषी पाए जाने पर 14 साल जेल से लेकर आजीवन कारावास तक की व्यवस्था की गई थी। इस धारा में सजा के साथ ही जुर्माने का भी प्रावधान किया गया था। आईपीसी की इस धारा में अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने को दंडनीय अपराध माना गया था। इसमें स्पष्ट तौर पर लिखा है, ‘कोई भी व्यक्ति जो अपनी इच्छा से पुरुष, महिला या पशुओं के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाता है तो उसे दंडित किया जाएगा।’ पिछले कुछ वर्षों के आईपीसी की इस धारा को खत्म करने की मांग बढ़ गई थी। LGBT समुदाय के अलावा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी इसके खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी थी, जिसके बाद इसे कोर्ट में चुनौती दी गई थी। बाद में यह लड़ाई देश की सबसे बड़ी अदालत में पहुंच गई, जहां अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे इस प्रावधान को खत्म कर दिया गया।
CJI दीपक मिश्रा के अलावा संविधान पीठ में जस्टिस आरएफ. नरीमन, जस्टिस एएम. खानविलकर, जस्टिस डीवाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल थे। मालूम हो कि आईपीसी की धारा 377 के तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध ठहराने वाले प्रावधान को खत्म कराने की दिशा में LGBT समुदाय को पहली बार वर्ष 2009 में बड़ी सफलता मिली थी। दिल्ली हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला देते हुए धारा 377 को मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करार दिया था। कुछ धार्मिक संगठनों ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने वर्ष 2013 में हाई कोर्ट के फैसले को निरस्त करते हुए समलैंगिक संबंधों को अपराध ठहराने वाले प्रावधान को फिर से बहाल कर दिया था। साथ ही कहा था कि कानून को खत्म करना संसद का काम है। इस साल जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के लिए संविधान पीठ गठित करने की बात कही थी। बाद में CJI अपनी ही अध्यक्षता में 5 सदस्यीय संविधान पीठ का गठन कर इस पर सुनवाई शुरू की थी। इस मामले को सुरेश कुमार वर्सेस नाज फाउंडेशन (2013) के नाम से जाना जाता है।