सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को उत्तर प्रदेश सरकार को जमकर सुनाया। कोर्ट ने प्रसिद्ध बांके बिहारी मंदिर के मैनेजमेंट को लेकर लाए गए अध्यादेश को लागू करने को ‘अत्यधिक जल्दबाजी’ करार दिया है। कोर्ट ने मैनेजमेंट के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना संबंधी अध्यादेश पर सवाल उठाए और संकेत दिया कि वह इस धार्मिक स्थल का प्रशासन एक रिटायर्ड जज की अध्यक्षता वाली समिति को सौंप देगा।
‘भगवान कृष्ण पहले मीडिएटर थे’
नवंबर 2023 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को तीर्थयात्रियों की सुविधाओं को बढ़ाने के लिए पवित्र मंदिर के चारों ओर एक कॉरिडोर विकसित करने की अनुमति दी थी, लेकिन इसके लिए देवता के बैंक खाते से धन का उपयोग करने पर रोक लगा दी थी। ट्रस्ट वाले मामले पर कोर्ट ने कहा कि भगवान कृष्ण पहले मीडिएटर थे और कृप्या आप भी मीडिएशन से इस मसले को सुलझाएं।
15 मई 2025 को ब्रज क्षेत्र में मंदिरों के प्रशासन और सुरक्षा से संबंधित एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने राज्य द्वारा दायर एक अंतरिम आवेदन को स्वीकार कर लिया। कोर्ट ने राज्य सरकार को कॉरिडोर परियोजना के लिए मंदिर के धन का उपयोग उसके आसपास 5 एकड़ भूमि खरीदने के लिए करने की भी अनुमति दी, लेकिन निर्देश दिया कि इसके लिए खरीदी जाने वाली प्रस्तावित भूमि देवता/(मंदिर) ट्रस्ट के नाम पर होगी।
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अध्यादेश लाने की इतनी जल्दी क्या थी?
26 मई को राज्य सरकार ने उत्तर प्रदेश श्री बांके बिहारी जी मंदिर न्यास अध्यादेश, 2025 जारी किया, जिसके तहत मंदिर के मैनेजमेंट के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की गई। सोमवार को दो जजों की पीठ की अध्यक्षता करते हुए जस्टिस सूर्यकांत ने राज्य की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के.एम. नटराज से पूछा, “अध्यादेश लाने की इतनी जल्दी क्या थी?”
15 मई के आदेश और अध्यादेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने आश्चर्य जताया कि जब वर्तमान में इसका प्रबंधन करने वाले लोग सुनवाई में पक्षकार नहीं थे, तो एक अंतरिम आवेदन पर यह आदेश कैसे आ सकता है। जस्टिस सूर्यकांत ने पूछा, “जब वे पक्षकार नहीं थे, तो आप अदालत के निर्देश को कैसे उचित ठहरा सकते हैं?”
अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि बांके बिहारी एक सार्वजनिक मंदिर है और जिन लोगों ने अध्यादेश और 15 मई के आदेश को चुनौती दी थी, उनका कोई अधिकार नहीं बनता क्योंकि वे इसके प्रबंधन का हिस्सा नहीं हैं। नटराज ने कहा, “ये पक्ष प्रबंधन समिति नहीं हैं। बहुत से लोग दावा करते हैं, लेकिन कोई मान्यता प्राप्त प्रबंधन समिति नहीं है। ये सभी अनधिकृत लोग हैं।”
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने इसका विरोध करते हुए कहा कि एक प्रबंधन है। अदालत ने बताया कि जिस मामले के कारण 15 मई का आदेश आया, वह बांके बिहारी मंदिर के बारे में नहीं था और एक सार्वजनिक नोटिस जारी किया जा सकता था।
जस्टिस ने क्या पूछा?
जस्टिस सूर्यकांत ने पूछा, “क्या अदालत द्वारा नियुक्त कोई रिसीवर था? यह नो मैन्स लैंड का मामला नहीं था। मंदिर की ओर से किसी की सुनवाई होनी थी। अगर सिविल जज निगरानी कर रहे थे, तो सिविल जज को नोटिस जारी किया जा सकता था। मंदिर के धन का उपयोग तीर्थयात्रियों के लिए किया जाना चाहिए, इसे निजी व्यक्तियों की जेब में नहीं डाला जा सकता। अगर राज्य कोई विकास कार्य करना चाहता था, तो कानून के अनुसार उसे ऐसा करने से किसने रोका था? जमीन निजी है या नहीं, इस मुद्दे पर अदालत फैसला सुना सकती है।”
जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि बुनियादी सुविधाएं प्रदान करना राज्य की ज़िम्मेदारी है। जस्टिस सूर्यकांत ने अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के आसपास के क्षेत्र के विकास का हवाला दिया। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा, “मैंने पहले भी कहा है कि स्वर्ण मंदिर और उसके आसपास के क्षेत्र के लिए राज्य द्वारा अच्छी पहल की गई है। विधायी शक्ति आदि का उपयोग करने के बजाय इस तरह की पहल की जा सकती है।”