पूर्व वित मंत्री पी. चिदंबरम ने हाल में प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक सवाल के जवाब में कहा कि सलमान रुश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेज पर बैन गलत था। उनका यह भी कहना था कि यह सवाल अगर उनके सामने 20 साल पहले लाया जाता तो भी उनका जवाब यही होता। जिस समय रुश्दी की यह किताब छपी थी, उस समय राजीव गांधी के सामने कांग्रेस सहित तमाम पार्टियों के मुस्लिम नेता अपना सख्त विरोध दर्ज करा रहे थे। यह विरोध मेरठ के हाशिमपुरा और आसपास के इलाकों में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों को लेकर था। इन दंगों में न केवल बड़े पैमाने पर हत्याएं हुई थीं, बल्कि कई लोगों को अंधा भी कर दिया गया था। अयोध्या में राम मंदिर को लेकर चलाए जा रहे उग्र आंदोलन के चलते माहौल और भी गर्म था। ऐसे ही माहौल में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पास एक सूचना पहुंची। इसमें बताया गया कि चूंकि सैटेनिक वर्सेज भारत में नहीं छपी है, इसलिए बड़े पैमाने पर लोग इसे आयात करने की अनुमति मांगने वाली अर्जियां प्रधानमंत्री के पास भेज रहे हैं। राजीव गांधी ने अपने सूचना सलाहकार जी. पार्थसारथी को बुलाया। पार्थसारथी ने सलाह दी कि यह मामला गृह मंत्रालय के पास विचार के लिए भेज दिया जाए, क्योंकि ‘कानून-व्यवस्था’ से जुड़े मामलों की जिम्मेदारी इसी मंत्रालय की है।
कुछ दिन बाद प्रधानमंत्री ने दूरदर्शन पर खबर सुनी की सैटेनिक वर्सेज का आयात बैन कर दिया गया है। पार्थसारथी के आरएएक्स फोन की घंटी बज उठी। फोन प्रधानमंत्री ने किया था। उन्होंने पूछा- क्या आपने दूरदर्शन पर खबर देखी? आखिर सैटेनिक वर्सेज पर बैन का ऑर्डर जारी कैसे हो गया? जवाब तुरंत मिल गया। तब काफी चर्चित गृह सचिव रहे सी.जी. सोमैया ने स्पष्ट किया कि सरकार के रूल्स ऑफ बिजनेस के मुताबिक कानून-व्यवस्था से जुड़े मामलों पर निर्णय लेने की ड्यूटी उनकी है। उन्होंने कहा कि रुश्दी की पूरी किताब पढ़ने के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचे कि अगर यह किताब भारत में आने दी गई तो कानून-व्यवस्था की स्थिति न केवल खराब हो जाएगी, बल्कि खतरनाक स्तर में पहुंच जाएगी। लिहाजा गृह मंत्रालय ने जरूरी निर्णय ले लिया।
राजीव गांधी ने सोचा कि चलो अब यह मामला खत्म हो गया। लेकिन जल्द ही उन्हें अहसास हुआ कि यह तो मामले की शुरुआत थी। बैन के बाद फिर से राजीव के पास अनेक चिट्ठियां आईं। इनमें से कुछ में बैन का पुरजोर विरोध किया गया था तो कुछ में बैन को सही समय पर लिया गया सही फैसला भी बताया गया था। एक चिट्ठी बड़ी खास थी। यह ईमेल के रूप में सलमान रुश्दी ने राजीव गांधी को लिखा था। इस चिट्ठी का न तो कोई जवाब भेजा गया और न इसके पाने की पुष्टि की गई। सरकारी भाषा में इसे ‘फाइल’ भर कर दिया गया। रुश्दी ने इसे राजीव गांधी द्वारा जले पर नमक छिड़कने जैसा माना। सो, उन्होंने लंदन में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और उसमें राजीव के साथ-साथ भारत की भी निंदा की। बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ने इसे खासा कवरेज दिया। इसके तुरंत बाद ईरान के सुप्रीम लीडर इमाम खोमैनी ने फतवा जारी कर दिया कि रुश्दी मौत का हकदार है और जो कोई उसे मारेगा उसको इनाम दिया जाएगा। उस समय तक रुशदी और उनकी किताब बड़ा अंतरराष्ट्रीय मसला बन गए थे। दो धुर विरोधी समूह भारत को कोसने के लिए एक हो गए थे। अभिव्यक्ति की आजादी के पहरूए रुश्दी की किताब को बैन करने के लिए और इस्लामी कट्टरपंथी सैटेनिक वर्सेज में लिखी बातों को ईशनिंदा नहीं करार देने के लिए भारत की आलोचना करने लगे।
ये क्या हो रहा है? इस चिंता के साथ राजीव गांधी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के साथ राज्य के दौरे करने में व्यस्त थे। जब विदेश मंत्रालय ने उनके सूचना सलाहकार के जरिए उन्हें यह खबर भेजी कि सऊदी मीडिया में मुस्लिम विरोधी दंगों को लेकर काफी तीखा छपा है, तब भी वह यूपी में विमान में ही थे। मैसेज सुनने के बाद राजीव ने अपने सूचना सलाहकार से कहा कि यही बात यूपी के मुख्यमंत्री को बताइए। इस पर वीर बहादुर सिंह ने जो जवाब दिया वह काफी रूखा और कैजुअल था। सूचना सलाहकार ने यह जवाब जस का तस पीएम को सुना दिया। उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन कुछ ही महीने के भीतर मुख्यमंत्री बदल दिया गया।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)