आधुनिक वैश्विक परिदृश्य में युद्धोन्माद, राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक विषमताएं और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण ने मानवता की नींव को गहरे संकट में डाल दिया है। अर्थशास्त्र और शांति संस्थान की ओर से प्रकाशित वैश्विक शांति सूचकांक 2025 में दर्ज 0.36 फीसद की कमी को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की सबसे गंभीर गिरावट माना जा रहा है। यह मानवीय चेतना के क्षरण और अंतरराष्ट्रीय विश्वास के टूटने का प्रतिबिंब है। यह गिरावट दर्शाती है कि 163 देशों में से अधिकांश संघर्ष और अस्थिरता की बढ़ती तपिश का सामना कर रहे हैं, जबकि कुछ ही राष्ट्र स्थिरता की राह पर खड़े दिखाई दे रहे हैं।

वैश्विक शांति में यह गिरावट केवल समकालीन सैन्य टकराव या सीमा-संघर्ष तक ही सीमित नहीं, बल्कि यह बहुआयामी संरचना का विचलन है, जिसमें शासन की गुणवत्ता, लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं, मानवाधिकारों की सुरक्षा, आर्थिक अवसरों का न्यायसंगत वितरण और सूचना पारदर्शिता शामिल हैं। जब तक ये सभी तत्त्व संतुलित तरीके से मौजूद नहीं होंगे, तब तक शांति केवल एक आकांक्षा ही बनी रहेगी। पिछले सत्रह वर्षों में औसतन 5.4 फीसद की गिरावट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि रणनीतिक समझौते और सैन्य क्षमता निर्माण जैसे पारंपरिक उपाय पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि एक व्यापक बदलाव की आवश्यकता है, जो विश्वास निर्माण, पारस्परिक सम्मान और सहयोग के सिद्धांतों पर आधारित हो।

राष्ट्रीय एकता को व्यक्तिगत और सामूहिक सुरक्षा का पर्याय माना जाए

भारत इस सूचकांक में 115वें स्थान पर है, जिसे इस बार 2.314 अंक मिले हैं। देश में पिछले वर्ष की तुलना में 0.58 फीसद का सुधार दर्शाता है कि आंतरिक सुरक्षा उपायों, सीमा प्रबंधन और राजनीतिक स्थिरता में किए गए प्रयासों का आरंभिक प्रभाव दिखने लगा है। हालांकि, यह सुधार तब तक पर्याप्त नहीं माना जा सकता, जब तक सामाजिक असमानता, जातीय व धार्मिक विभाजन और सूचना संकट जैसी चुनौतियों का मूल रूप से समाधान नहीं किया जाता। विविधता में एकता की हमारी परंपरा तभी सफल हो सकती है, जब हर समुदाय को समान अधिकार, सांस्कृतिक स्वायत्तता दी जाए और राष्ट्रीय एकता को व्यक्तिगत और सामूहिक सुरक्षा का पर्याय माना जाए।

वर्तमान युद्ध उन्माद की जड़ भय और असमानता की मनोवैज्ञानिक संरचना में निहित है। जब कोई व्यक्ति या समुदाय आत्मरक्षा की जरूरत महसूस करता है, तो वह बाहरी खतरों के प्रति बेहद संवेदनशील हो जाता है। इससे न केवल हथियारों की होड़ बढ़ती है, बल्कि आंतरिक रूप से विभाजन और कटुता की दहलीज भी पार हो जाती है। ऐसी स्थिति में नीति-निर्माण केवल तकनीकी या सैन्य विशेषज्ञता के आधार पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक मनोविज्ञान और सामुदायिक संवाद के दृष्टिकोण से भी जरूरी है। जब तक भय की भावना का समाधान नहीं किया जाता तथा सहयोग और आपसी समझ को प्राथमिकता नहीं दी जाती, तब तक शांति की टिकाऊ संरचना का निर्माण संभव नहीं होगा।

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वैश्विक स्तर पर आय, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अवसरों का असंतुलित वितरण समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है और समाज के हाशिये पर स्थित वर्गों में असंतोष के बीज बोता है। यह असंतोष धीरे-धीरे विद्रोह तथा हिंसात्मक आंदोलनों का रूप धारण करता है, जो सामूहिक स्थिरता को कमजोर करते हैं। भारत के संदर्भ में ग्रामीण एवं शहरी असमानताओं के बीच का अंतर, लिंग आधारित भेदभाव एवं सीमांत समुदायों की गरीबी जैसी चुनौतियां प्रभावी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं एवं संवैधानिक अधिकारों के मानकीकरण के माध्यम से ही दूर की जा सकती हैं। सूचना युग में शांति के सामने सूचना संकट एक नया खतरा बन कर उभरा है। जहां मीडिया स्वतंत्रता में 13.4 फीसद की गिरावट हुई है, वहीं सूचना की गुणवत्ता में 6.9 फीसद की कमी ने सामाजिक विश्वास को कमजोर किया है।

असत्यापित सूचनाएं, सोशल मीडिया पर फैलने वाली अफवाहें तथा राजनीति से प्रेरित दुष्प्रचार आज के समय में नागरिकों के बीच अविश्वास की दीवारें खड़ी कर रहे हैं। जब तक नागरिकों की पहुंच सही एवं पर्याप्त जानकारी तक नहीं होगी, तब तक लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक समरसता दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव बना रहेगा। वैश्विक सैन्य व्यय में निरंतर वृद्धि ने शांति के विरोधाभास को और तीव्र कर दिया है। वर्ष 2024 में 2.7 ट्रिलियन अमेरिकी डालर तक पहुंच चुका सैन्य खर्च यह दर्शाता है कि राष्ट्र अपनी समस्याओं का समाधान शक्ति प्रदर्शन से करते रहे हैं। जबकि वास्तविक सुरक्षा तब सुनिश्चित होती है, जब राष्ट्र पारस्परिक विश्वास-निर्माण, क्षेत्रीय सहयोग एवं मानवीय समाधानों को प्राथमिकता देते हैं।

युद्ध प्रणालियों के विस्तार में अप्रत्याशित जोखिम

परमाणु-सशस्त्र एवं प्रौद्योगिकी-आधारित युद्ध प्रणालियों के विस्तार ने अप्रत्याशित जोखिमों को जन्म दिया है, जिसे केवल कूटनीतिक संधियों एवं हथियार नियंत्रण समझौते ही नहीं, बल्कि दीर्घकालिक शांति निर्माण परियोजनाओं से ही नियंत्रित किया जा सकता है। गैर-सरकारी संस्थाओं एवं युवा स्वयंसेवकों द्वारा संचालित शांति कार्यशालाएं, स्थानीय परियोजनाएं एवं सामाजिक उद्यम सामूहिक चेतना के उत्थान में अहम भूमिका निभा सकते हैं। शांति की अवधारणा यह बताती है कि शांति केवल हिंसा की अनुपस्थिति नहीं, बल्कि उन संस्थागत एवं सामाजिक तंत्रों की उपस्थिति है, जो समाज को स्थिर एवं समृद्ध बनाए रखते हैं। इसमें भ्रष्टाचार नियंत्रण, न्यायिक पारदर्शिता, संसाधन वितरण में न्याय तथा मानवाधिकारों का सम्मान शामिल है। आइसलैंड, आयरलैंड एवं न्यूजीलैंड जैसे राष्ट्रों ने अपने प्रशासनिक और सामाजिक माडल में इन सिद्धांतों को संस्थागत रूप दिया है, जिसके परिणामस्वरूप उनके शांति सूचकांक उच्चतम स्तर पर हैं। भारत की सांस्कृतिक विरासत में ‘अहिंसा’, ‘सर्वधर्म समभाव’ एवं ‘वसुधैव कुटुंबकम’ जैसे मूल्य विद्यमान हैं, जिन्हें आधुनिक प्रशासनिक नीतियों एवं सामुदायिक सम्मेलनों के माध्यम से मूर्त रूप में परिवर्तित किया जा सकता है।

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भारत को अपनी विदेश नीति में ‘साझा सुरक्षा’ एवं ‘साझा समृद्धि’ के सम्मिलित दृष्टिकोण को बढ़ावा देना चाहिए, जिससे पारस्परिक सम्मान और विश्वास का आधार तैयार हो। व्यापारिक साझेदारियां, सांस्कृतिक आदान-प्रदान एवं शैक्षणिक अनुसंधान सहयोग भी शांति प्रक्रिया में योगदान दे सकते हैं। युद्ध की भाषा को संवाद से प्रतिस्थापित करना, अविश्वास की दीवारों को पारस्परिक सम्मान से ध्वस्त करना तथा असमानता की खाई को न्यायसंगत नीतियों एवं सार्वभौमिक अवसरों से पाटना समय की जरूरत है।

वैश्विक समुदाय यदि वर्तमान परिदृश्य में चुनौतियों से अनभिज्ञ बना रहेगा, तो केवल हथियार प्रणालियां और सैन्य व्यय बढ़ाने से स्थायी शांति स्थापित नहीं होगी। इसके विपरीत हमें न्याय, समानता, पारदर्शिता एवं करुणा जैसे मूल्यों को व्यावहारिक रूप में संस्थागत करना होगा। प्रत्येक राष्ट्र, समुदाय एवं हर नागरिक का दायित्व है कि वह इन सिद्धांतों के अनुरूप कार्य कर समाज के आधार को मजबूत करे। भारत अपनी ऐतिहासिक परंपराओं और आधुनिक महत्त्वाकांक्षाओं को संतुलित करते हुए न केवल क्षेत्रीय, बल्कि वैश्विक शांति प्रयासों में एक भी प्रेरणास्रोत बन सकता है। हमें सामूहिक प्रयास जारी रखते हुए शांति के बहुमुखी आयामों को अपना कर एक स्थायी, न्यायसंगत एवं समृद्ध भविष्य का मार्ग प्रशस्त करना होगा, जहां मानवता का वास्तविक गौरव केवल शक्ति नहीं, बल्कि सहयोग, सहिष्णुता एवं समानता हो।