मौजूदा दौर में प्रकृति और पर्यावरण का संकट गहरा रहा है। इसके कारण हमारे सामने एक बुनियादी सवाल उपस्थित है कि मौजूदा आधुनिक-उत्तराधुनिक दौर का अगला चरण क्या होगा? क्या अब कह सकते हैं कि हम ‘हरित सभ्यता’ ( ग्रीन सिविलाइजेशन) के मुहाने पर आ खड़े हुए हैं? बहुत-सी ऐसी परिघटनाएं है, जिनकी ओर ध्यान देंगे, तो पाएंगे कि हमारे समय में हरित सभ्यता के बीज अंकुरित और पल्लवित होने लगे हैं। हमारे समय में जीवन को बचाने का सवाल केंद्र में आ गया है। जीवन को बचाने की चुनौती- विज्ञान, राजनीति और संस्कृति- तीनों के सामने प्रस्तुत है।

अब हम पूछ सकते हैं कि हमारे मौजूदा दौर के आधुनिक-उत्तराधुनिक होने का नतीजा क्या निकला? क्या वह यह नहीं था कि मानवजाति, ईश्वर केंद्रित होने की मध्यकालीन मन:स्थिति से बाहर आकर, पहली दफा ‘मनुष्य केंद्रित’ होने की ओर आगे बढ़ी थी। पर अब जो अगला दौर सामने आने को है, वह ‘मनुष्य’ को भी केंद्र से हटा देगा। अब वह सीधे ‘जीवन’ को केंद्र में लाकर बिठाने की तैयारी करता मालूम पड़ेगा।

सभ्यता के आधुनिक-उत्तराधुनिक विकास चरण ने जब ईश्वर की जगह मनुष्य को अपनी चिंता का केंद्र बनाया, तो वह बात बहुत-सी तब्दीलियों की तार्किक निष्पत्ति थी। हुआ यह कि विज्ञान के अभूतपूर्व विकास के कारण मानवजाति की ‘विश्वदृष्टि’ में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ था। हमारी जो दृष्टि ‘पृथ्वी के इर्द-गिर्द घूमते सूर्य’ से संबंध रखती थी, वह अब ‘सूर्य के इर्द-गिर्द घूमने वाली पृथ्वी’ की दृष्टि के रूप में उलट गई। विज्ञान की आंख से अब हम नए सत्य खोजने निकल पड़े। ‘श्रम’ का महत्त्व पहचाना गया और ‘उत्पादन’ की सामर्थ्य विकास का पैमाना हो गई। ‘मानव की उत्पत्ति’ के ‘दैवी’ होने का मिथक टूट गया।

इससे ‘चेतना’ भी पारलौकिक और दैवी वस्तु न रह गई। उसे जीवन के एक अन्य ‘आयाम’ की तरह देखा जाने लगा। ‘मनुष्य’ को जानने-समझने की कोशिश में हम उसके ‘जीन्स’ तक चले गए। पर ‘जीन्स’ की दुनिया बड़ी जल्दी मनुष्य तक सीमित न रह कर, समग्र जीवन-क्रम की ओर रुख करने लगी। फिर हुआ यह कि सोच की यह तब्दीली सभ्यता के विकास को परिभाषित करने वाले बाकी रूपों पर भी लागू होने से बच न सकी। मनुष्य के विकासशील और प्रगतिशील होने का पैमाना यह हो गया कि वह कितना बेहतर ‘मानव संसाधन’ है। उपभोक्ता उत्पादों की अहमियत के इस हद तक बढ़ जाने का नतीजा यह निकला कि प्रकृति के संसाधनों के अक्षय होने का मिथक खंडित हो गया।

प्रकृति और पर्यावरण के संकटग्रस्त हो जाने की जो स्थिति, इस वजह से सामने आई, वह अभूतपूर्व थी। मनुष्य को पहली दफा यह अहसास हुआ कि अगर उसे एक बुद्धिमान प्रजाति के रूप में पृथ्वी पर बचना है, तो उसे यहां मौजूद तमाम जीवन रूपों की आपसदारी के साथ बचना होगा।

जहां तक मानव जाति के अतीत से संबंधित उसकी बुनियादी जीवन शैली का संबंध है, उसे हमारे उपनिषद ‘आरण्यक काल’ के अवशेष की तरह देखते हैं। पर आज जिसे हम ‘हरित जीवन शैली’ में वापसी कह सकते हैं, वह बहुत अलग तरह की बात है। वह अब मानवजाति की उस कोशिश का पर्याय नहीं रह गई है, जिसका मकसद मानवजाति को बुनियादी कुदरती जीवनशैली में लौटाने से जुड़ा था। तब वह बात खो गए किसी बड़े सच को फिर से पा लेने की बात थी। पर अब वह मनुष्य जीवन के ही संकटग्रस्त होकर खो जाने की आशंकाओं के निस्तारण की बात हो गई है।

हम पहली दफा ‘जीवन के लिए जीवन’ के अर्थ को समझने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। हम समझ पा रहे हैं कि हमारी जीवनशैली, अब प्रकृति और पर्यावरण को बचाने की बात तो है ही, गहरे में वह जीवन को बचाने की बात है। वहां, उसके इस रूप में, वह महानतम सच छिपा है, जिसे हम सृष्टि का प्रयोजन कह सकते हैं।

पृथ्वी पर जीवन के संकटग्रस्त हो जाने के मुख्य कारण क्या हैं? अक्सर इसके लिए पूंजीवादी औद्योगिक क्रांति और नगरीकरण के अंधाधुंध विकास को सीधे निशाने पर रखा जाता है। पर एक अन्य कारण भी है। उसका संबंध हरित क्रांति और हरित राजनीति के आधुनिक और उत्तराधुनिक रूपों से है। कृषि के संकटग्रस्त हो जाने की एक वजह उसके जीवन केंद्रित न बने रह सकने से जुड़ी है। उद्योगीकरण के कृषि क्षेत्र में भी दखल देने से जो हालात पैदा हुए हैं, उनके कारण हरित क्रांति और हरित राजनीति तक, जीवन को बचाने वाली न रह कर, उसे नष्ट करने वाले बाजार तंत्र के खेल में बदल गई है।

हम कृषि संस्कृति और हरित क्रांति तक के संकटग्रस्त हो जाने के समय में जी रहे हैं। इसलिए वनवासी अतीत और मौजूदा दौर की हरित जीवन शैली को विकास की कड़ियों की तरह देखने का वक्त आ गया है।

पर जिसे हम हरित संस्कृति का संकट कह सकते हैं उसका संबंध नगरों से है। उद्योगीकरण के कारण नगर कंक्रीट के जंगलों में बदलते हैं। प्रकृति से उनकी अलहदगी उन्हें हरित जीवन शैली में वापसी के लिए पुकारती दिखाई देने लगती है। बाजार से पिछड़ रहे गांव को विकसित करने के लिए प्रयास किए जाते हैं। किसानी को एक नई हरित क्रांति की ओर मोड़ा जाता है। पर आधुनिक तौर-तरीकों की मदद से खेती-बाड़ी की स्थिति को सुधारने की बात गांव को जिस तरह की हरित क्रांति की ओर ले जाती है, वह वहां की कृषि संस्कृति को प्रभावित तो करती है, रूपांतरित नहीं करती। यानी हम हरित क्रांति तक तो पहुंचते हैं, पर वह हमारी ‘हरित जीवन शैली’ नहीं बन पाती।

हरित जीवन शैली का संबंध शहरी मध्यवर्ग की जरूरत से अधिक है। उद्योगीकरण की वजह से बढ़ते प्रदूषण के कारण प्रकृति को बचाने की जरूरत शहरों को इसलिए अधिक है, क्योंकि वहां रहने वालों के लिए अब सांस तक लेना दूभर होता जा रहा है। हमारे समय में जब कृषि संस्कृति अलग तरह के संकट से जूझ रही है, तब उसके पास अपने हालात से उबरने का एक ही रास्ता बचा है कि उसे नगरों में उपस्थित हो रहे हर संकट से संबंधित हालात का समर्थन मिले।

एक लंबे अरसे से किसानों के आत्महत्या करने के अनुपात में इतनी वृद्धि होती चली गई है कि किसानों के प्रति समाज की संवेदनशीलता को देखकर मन अवसाद में डूब जाता है। मौजूदा किसान आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो कह सकते हैं कि हम इससे अगले दौर में, जिसे हृदयहीनता का दौर कह सकते हैं, प्रवेश कर चुके हैं। यह सब जो कुछ घट रहा है उसका सृजन आख्यान में बदलना अभी बाकी है।

किसानों के अंतरंग जीवन परिवारों तथा उनके परिवेश में इस सब के कारण जो परिवर्तन आए हैं वह सब एक बड़े सृजनमूलक संघर्ष से उठने वाली अभिव्यक्ति के इंतजार में है। वह अभिव्यक्ति कैसी होगी, इसके बारे में फिलहाल कुछ भी नहीं कहा जा सकता, पर हम इससे पहले के उस सृजन परिदृश्य में लौटकर अपने समय में पड़ती उनकी छाया को अवश्य अनुभव कर सकते हैं। वहां वह सब जो हमारे समय के लिए महत्त्वपूर्ण है, उसे एक नई दृष्टि के साथ फिर से पढ़ना और एक नई व्याख्या के साथ उस सबको फिर से रचना जरूरी हो गया लगता है।