चमोली में हुए ह्रदयविदारक हादसे को लेकर वैज्ञानिकों ने 8 महीने पहले ही आगाह कर दिया था। शोधकर्ताओं का कहना है कि जिस तरह से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है, उससे ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार भी तेज होती जा रही है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि पहाड़ों की बर्फ पिघलने की यही रफ्तार रही तो हादसे होने स्वाभाविक हैं।
2019 में जर्नल साइंस एडवांस में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार हर साल आधी बर्फ पिघल रही है। इससे भारत महित कई देशों के करोड़ों लोगों के लिए पानी की कमी का खतरा पैदा हो सकता है। 40 वर्षों के उपग्रह के विश्लेषण से शोधकर्ताओं को पता चला है कि भारत, चीन, नेपाल और भूटान में जलवायु परिवर्तन हिमालय के ग्लेशियरों को खत्म कर रहा है।
जर्नल के लेखक और कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पीएचडी कर रहे जोशुआ मॉरर का कहना है कि ग्लेशियरों के पिघलने में तापमान का बड़ा योगदान है। साल 1975 से 2000 की तुलना में 2000 से 2016 तक एक डिग्री सेल्सियस अधिक तापमान दर्ज किया गया है। शोधकर्ताओं ने पश्चिम से पूर्व की ओर 2,000 किलोमीटर तक फैले कुछ 650 ग्लेशियरों के रिपीट सैटेलाइट चित्रों का विश्लेषण किया।
3डी मॉडल में इनको बदलने के लिए एक स्वचालित प्रणाली बनाई गई जो समय के साथ ग्लेशियरों की बदलती ऊंचाई दिखा सकती है। उन्होंने पाया कि 1975 से 2000 तक हर साल ग्लेशियर औसतन लगभग 0.25 मीटर बर्फ खो रहे थे, लेकिन 2000 के बाद से हर्फ पिघलने की रफ्तार में लगभग आधा मीटर सालाना की तेजी आई।
शोध के दौरान उन्होंने देखा कि एशिया के देश fossil fuels, biomass का उपयोग ज्यादा करते हैं। इनसे निकलने वाली कॉर्बन डाई आक्साईड और ग्रीन हाउस गैसें की वजह से आसमान में धुएं के गुबार छाते हैं। ये बर्फ से लदे ग्लेशियर पर भी अपना असर दिखाते हैं। इनमें मौजूद सौर ऊर्जा की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगते हैं।
मॉरर का कहना है कि वार्मिंग की वजह से बर्फ के पिघलने की रफ्तार तेज हो रही है। शोधकर्ताओं का कहना है कि हिमालय के पिघलने की रफ्तार आल्पस से कम है, लेकिन वार्मिंग दोनों जगहों पर अपना असर दिखा रही है। उनका कहना है कि हिमालयन ग्लेशियर की बात की जाए तो उनके पिघलने की दर में 21वीं सदी की शुरुआत से ज्यादा इजाफा हुआ है। अगर इस पर रोक न लगी तो भारत समेत कई देशों में पानी का संकट ज्यादा बढ़ सकता है।