हमारे रिश्ते हमेशा छोटी-छोटी बातों से खराब होते हैं। कोई भी बात जब हमें छोटी लगने लगती है तो हम उसे महत्त्व नहीं देते हैं। इस तरहयह हमारी आदत बन जाती है। फलस्वरूप ये छोटी बातें बड़ी बातों में तब्दील हो जाती हैं। निश्चित रूप से इसका प्रभाव हमारे रिश्तों पर पड़ता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जिसे हम छोटी बात मान रहे हैं, वह दूसरे के लिए बड़ी बात होती है। इसलिए अगर हम छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखेंगे तो हमारे रिश्ते कभी नहीं बिगड़ेंगे।
छोटी बातों का ध्यान रखने के लिए हमें कोई बड़ा प्रयास करने की जरूरत नहीं है। थोड़े से प्रयास से ही यह गुण हमारी आदत में शामिल हो जाएगा। एक बार छोटी-छोटी सकारात्मक बातों पर ध्यान केन्द्रित करने की आदत बन जाएगी तो हमारे रिश्ते प्रगाढ़ होने में देर नहीं लगेगी। यहां सकारात्मक शब्द का इस्तेमाल इसलिए क्योंकि यदि छोटी-छोटी नकारात्मक बातों पर ध्यान दिया जाएगा तो रिश्ते और खराब हो जाएंगे। इसलिए हमें छोटी-छोटी नकारात्मक बातों पर ध्यान न देकर छोटी-छोटी सकारात्मक बातों को महत्त्व देना है।
पुराने जमाने में रिश्तों के बीच किसी तरह का गणित नहीं होता था। इसलिए रिश्ते भी मजबूत रहते थे। इस दौर में रिश्तों के बीच गणित आ गया है। इस गणित के कारण ही आज रिश्तों में एक दूसरे के प्रति सम्मान कम हो गया है। अगर हमारा कोई रिश्तेदार छोटा काम कर रहा है या आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं है तो हम उसे दूर का रिश्तेदार बताने लगते हैं।
इसी तरह अगर कोई दूर का रिश्तेदार बड़े पद पर है या आर्थिक रूप से काफी समृद्ध है तो हम उसे अपना खास रिश्तेदार बताने लगते हैं। भले ही उसमें अपनी अमीरी या पद का घमंड हो और वह हमें सम्मान न देता हो लेकिन हम उसी के पीछे भागते हैं। यानी आज रिश्तों में भी नफा-नुकसान का गणित आ गया है।
जिन रिश्तों से हमारा काम निकल सकता है, हम उनको ज्यादा महत्त्व देते हैं। इसके विपरीत जिन रिश्तों से हमारा काम निकलने की संभावना नहीं होती, हम उनको खत्म कर देते हैं। रिश्तों में अमीरी और गरीबी का फर्क तो पुराने जमाने में भी था लेकिन पहले लोग इतने मतलबी नहीं थे। इसलिए आर्थिक रूप से कमजोर रिश्तेदार से भी लोग मतलब रखते थे। सच्चा रिश्ता तो वही है जिसमें किसी तरह का गणित न हो।
अगर हमारे रिश्तों के बीच किसी भी तरह का गणित होगा तो देर-सबेर उसका प्रभाव हमारे रिश्तों पर पड़ेगा ही। इसलिए गणित के माध्यम से पनपे रिश्ते सिर्फ यांत्रिक संबंध होते हैं। उनमें किसी तरह की संवेदना नहीं होती है। दरअसल रिश्ते कैसे निभाए जाएं, यह किसी किताब से नहीं सीखा जा सकता। रिश्ते निभाने के बने-बनाए नियम नहीं होते हैं।
किसी किताब से पढ़कर इस तरह के नियमों को यदि अपने संबंधों पर लागू किया जाएगा तो विफलता ही हाथ लगेगी। असली सवाल यह है कि हमारे संबंधों में कितनी ऊष्मा है ? क्या हम संबंधों की ऊष्मा को बाद तक कायम रख पाते हैं ? कई बार ऐसा होता है कि शुरू में हमारे संबंध बहुत अच्छे होते हैं लेकिन समय बीतने के साथ संबधों की ऊष्मा कम होती चली जाती है। हमें उन कारणों पर ध्यान देने की कोशिश करनी होगी जो हमारे संबंधों की ऊष्मा को कम करते हैं।
समय बीतने के साथ हमारे संबंध प्रगाढ़ होने चाहिए लेकिन व्यावहारिक रूप से हर बार ऐसा नहीं होता है। ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है त्यों-त्यों कई तरह की गलतफहमियां भी पैदा हो जाती हैं। जब गलतफहमियां पैदा होती है तो आपसी संवाद बंद हो जाता है। रिश्तों में संवाद बंद होना ही सबसे बड़ी गलती है। इससे गलतफहमी दूर होने की संभावना भी खत्म हो जाती है।
गलतफहमी को संवाद के माध्यम से ही दूर किया जा सकता है। हमें कोशिश करनी होगी कि रिश्तों के बीच हमेशा आपसी संवाद में पारदर्शिता बनी रहे। अगर संवाद में पारदर्शिता बनी रहेगी तो कभी भी गलतफहमी पैदा नहीं हो सकती। किसी भी तरह की औपचारिकता रिश्तों को बोझिल बनाती है। सहज रूप से रिश्तों को निभाकर ही हम सुखी रह सकते हैं।
