विकास दुबे कांड को लेकर राजनीतिक दलों में आरोप-प्रत्यारोप के दौर के बीच राजनीतिक दलों के नेताओं- अपराधियों में गठजोड़ को लेकर पुरानी बहस नए सिरे से तेज हो गई है। ऐसे गठजोड़ में पुलिस स्वाभाविक हिस्सा होती है और नौकरशाही ढके-छुपे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है।
1993 में केंद्र की पीवी नरसिंह राव की तत्कालीन सरकार ने वोहरा समिति गठित की थी, जिसने नेताओं, अपराधियों और नौकरशाहों के गठजोड़ की ओर ध्यान दिलाते हुए इसका हल बताया था। इस समिति की अध्यक्षता तब के गृह सचिव एनएन वोहरा ने की थी। समिति में रॉ और आइबी के सचिव, सीबीआइ के निदेशक और गृह मंत्रालय के विशेष सचिव (आंतरिक सुरक्षा एवं पुलिस) भी शामिल थे।
सामने आई संरक्षण की बात
वोहरा समिति का गठन 1993 मुंबई विस्फोटों के दौरान किया गया था। खुफिया एवं जांच एजंसियों ने दाऊद इब्राहिम गैंग की गतिविधियों और संबंधों को लेकर रिपोर्ट दी थी। इनमें साफ था कि मेमन भाइयों और दाऊद इब्राहिम का साम्राज्य सरकारी तंत्र के संरक्षण के बिना खड़ा नहीं हो सकता था।
तब यह जरूरी माना गया कि इस गठजोड़ के बारे में पता लगाया जाए और इस तरह के मामलों में वक्त रहते जानकारी जुटाकर कार्रवाई की जाए। तब समिति ने सिफारिश की थी कि सरकार एक नोडल एजंसी बनाए तो ऐसे मामले का पर्यवेक्षण करे। कहा गया कि रॉ, आइबी, सीआइबी के पास जो भी जानकारी या डेटा होगा उसे नोडल एजंसी को दे दिया जाएगा। लेकिन वोहरा समिति की रिपोर्ट धूल खाती रही।
पूरी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई। 1995 में समिति की 100 पन्नों की रिपोर्ट में से सिर्फ 12 पन्ने सार्वजनिक किए गए। कहा गया कि वोहरा रिपोर्ट में दाऊद इब्राहिम के अफसरों और नेताओं से संबंधों की विस्फोटक जानकारी थी।
सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ
जब 1997 में केंद्र सरकार पर रिपोर्ट सार्वजनिक करने का दबाव बढ़ा तो केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई। अदालत ने सरकार की दलील मानी और कहा कि सरकार को रिपोर्ट सार्वजनिक करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इसके बाद कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई। 26 सितंबर, 2018 को चीफ जस्टिस दीपक मिश्र की पीठ ने राजनीति के अपराधीकरण को लोकतंत्र के महल में दीमक करार दिया था।
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की पीठ में जस्टिस आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा भी शामिल थे। चीफ जस्टिस मिश्रा ने इस फैसले में भी 1993 में मुंबई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद गठित एनएन वोहरा कमिटी की रिपोर्ट का जिक्र किया। उन्होंने कहा, भारतीय राजनीतिक प्रणाली में राजनीति का अपराधीकरण कोई अनजान विषय नहीं है बल्कि इसका सबसे दमदार उदाहरण तो 1993 के मुंबई धमाकों के दौरान दिखा।
अभी क्या हो रहा
2014 में जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो तृणमूल नेता दिनेश त्रिवेदी ने उनसे रिपोर्ट सार्वजनिक करने की अपील की। लेकिन स्थिति जस की तस है। अधिकारियों के मुताबिक, आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय लॉबी, तस्कर गिरोहों, माफिया तत्वों के साथ भ्रष्ट नेताओं एवं अफसरों के गठबंधन को तोड़ने के ठोस उपाय भी वोहरा रपट में सुझाए गए हैं। रपट की तीन प्रतियां ही तैयार की गई थीं।
सभी प्रतियों को गोपनीय रखा गया है। कहा जा रहा है कि इस रिपोर्ट में दाऊद इब्राहिम के साथ नेताओं और पुलिस के नेक्सस की विस्फोटक जानकारियां हैं। इसीलिए कोई भी दल इसे सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
माफिया-नेता-अफसर..
वोहरा समिति ने अपनी रपट में बार-बार इसका उल्लेख किया कि राजनीतिक संरक्षण से ही देश में तरह-तरह के गलत धंधे फल-फूल रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है- यह कहने की आवश्यकता नहीं कि आपराधिक सिंडिकेटों के राज्यों और केंद्र के वरिष्ठ सरकारी अफसरों या नेताओं के साथ साठगांठ के बारे में सूचना के किसी प्रकार के लीकेज का सरकारी कामकाज पर अस्थिर प्रभाव हो सकता है।
इस बीच बीते चार आम चुनाव से राजनीति में अपराधीकरण तेजी से बढ़ा है। 2004 में 24 फीसद सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक थी, लेकिन 2009 में ऐसे सांसदों की संख्या बढ़कर 30 फीसद और 2014 में 34 फीसद हो गई। चुनाव आयोग के मुताबिक, मौजूदा लोकसभा में 43 फीसद सांसदों के खिलाफ अपराध के मामले लंबित हैं।
विकास दुबे के संपर्क
विकास दुबे के साथियों और पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ के बाद विकास दुबे के आपराधिक इतिहास की जानकारी यूपी के डीजीपी हितेश चंद्र अवस्थी ने दी। उसके खिलाफ चौबेपुर थाने में साठ मुकदमे दर्ज हैं, जिनमें कई हत्या और हत्या के प्रयास जैसे संगीन मामले भी शामिल हैं।
विकास दुबे के राजनीतिक संबंधों की भी पड़ताल शुरू हुई है। पता चला कि उनके रिश्ते लगभग सभी राजनीतिक दलों से रहे हैं, भले ही वो सक्रिय रूप से किसी पार्टी के सदस्य न हों। विभिन्न पार्टियों के झंडों के साथ और विभिन्न दलों के नेताओं के साथ दुबे और उसकी पत्नी की तसवीरें सामने आई हैं।
क्या कहते हैं जानकार
यह व्यवस्था का नकाब उतारने वाली रिपोर्ट है और कोई भी सरकार नहीं चाहेगी कि उसकी कार्यप्रणाली का खुलासा हो जाए। सत्ताधारी दल बदलते हैं, कार्यप्रणाली नहीं। यही कारण है कि वोहरा समिति जैसी समितियों की सिफारिशें कभी लागू नहीं होतीं।
– विक्रम सिंह, उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक
पुलिस सुधारों की जरूरत है। जांच और कानून-व्यवस्था के लिए अलग-अलग एजंसियां हों। सुप्रीम कोर्ट में मैंने 1996 में एक याचिका डाली, जिसपर 2006 में फैसला आया कि पुलिस को राजनीतिक हस्तक्षेप से अलग किया जाए। लेकिन यह लागू नहीं हुआ।
– प्रकाश सिंह, यूपी के पूर्व डीजी और वरिष्ठ पुलिस अधिकारी
