बिहार जिसे राजनीति की प्रयोगशाला माना जाता है, वो राज्य जहां से एक नहीं कई बड़े नेता निकले हैं, जहां पर शुरू हुए आंदोलनों ने पूरे देश की सियासत पर असर डाला है, अब उसी राज्य में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चुनौती देने उन्हीं के राइट हैंड माने गए आर सीपी सिंह आ गए हैं। रामचंद्र प्रताप सिंह ने गुरुवार को बीजेपी का दामन थाम लिया। अटकलें तो पिछले एक साल से लग रही थीं, लेकिन ये बड़ा कदम उन्होंने आज उठाया और चुनौती सीधी सीएम नीतीश कुमार के लिए खड़ी की गई। लेकिन क्या आर सीपी सिंह बिहार की सियासत के इतने बड़े खिलाड़ी हैं? क्या बिना नीतीश कुमार के भी वे अपनी खुद की सियासी जमीन बिहार में बना सकते हैं? क्या उनका बीजेपी में आना जेडीयू के कोर वोटबैंक को खतरे में डालता है?
नीतीश के आशीर्वाद से राजनीति में एंट्री
आर सीपी सिंह की राजनीति को डीकोड किया जाए तो पता चलता है कि उनके सियासी सफर में उन्हें जब भी प्रमोशन मिला है तो उसका श्रेय नीतीश कुमार को गया है। असल में राजनीति में आने से पहले आर सीपी सिंह IAS अधिकारी थे। वे यूपी में अपनी सेवाएं दे रहे थे। लेकिन फिर जब उन्हें केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा का निजी सचिव बनाया गया, उनका सियासत में आने का रास्ता खुल गया। ऐसा इसलिए क्योंकि जिस समय आर सीपी सिंह निजी सचिव बनाए गए, तब उनकी नीतीश कुमार से मुलाकातें शुरू हो गई थीं। शुरुआती कनेक्शन तो इसी बात से बन गया कि दोनों ही बिहार के नालंदा से आते थे और जाति भी सेम कुर्मी रही।
इसके बाद जब नीतीश कुमार ने बिहार की कमान संभाली, यानी कि जब वे मुख्यमंत्री बन गए, उस समय वे आर सीपी सिंह को भी अपने साथ ले आए। उन्हें निजी सचिव से सीधा प्रमुख सचिव बना दिया गया। ये दोनों नीतीश कुमार और आर सीपी के लिए टर्निंग प्वाइंट रहा और दोनों की दोस्ती सियासी रूप लेने लगी। माना जाता है उस समय तक आर सीपी सिंह भी राजनीति में दिलचस्पी दिखाने लगे थे, ऐसे में नीतीश से जैसे ही कोई हरी झंडी मिलती, वे एक नई पारी शुरू करने को पूरी तरह तैयार थे। साल 2010 में वो मौका भी आ गया और आर सीपी ने जेडीयू का दामन थाम लिया। उन्होंने VRS लिया और सियासत में ‘नीतीश के आशीर्वाद’ से राजनीति में जोरदार एंट्री की। पुरुस्कार ये मिला कि वे जेडीयू की तरफ से राज्यसभा भेज दिए गए। फिर 2016 में दोबारा उन्हें राज्यसभा की सीट दी गई। उस समय बड़ी बात ये भी रही कि आर सीपी को शरद यादव की जगह पार्टी ने राज्यसभा में पार्टी का नेता मनोनीत कर दिया।
केंद्र में मंत्री पद, शक और दोस्ती में दरार की कहानी
जिस तरह से 6 साल के राजनीतिक करियर में आर सीपी सिंह को सियासी प्रमोशन मिल रहे थे, उनकी नीतीश से दोस्ती राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बन गई थी। बाद में साल 2020 में जब नीतीश कुमार ने खुद जेडीयू का अध्यक्ष पद छोड़ा तो कई दिग्गजों को नजरअंदाज कर वो तमगा भी आर सीपी को दे दिया गया। यानी कि उन्हें जेडीयू में नंबर दो की पोजीशन दे दी गई। लेकिन यहीं से इन दो बड़े नेताओं के बीच में दरारें आना शुरू हो गईं। असल में हुआ ये कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान पूरे एक साल तक आर सीपी सिंह केंद्र में मंत्री रहे। कहने को जेडीयू का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, लेकिन कहा गया कि उन्होंने बिना पार्टी से या नीतीश से बात करे ही ये फैसला लिया और मंत्रिमंडल में शामिल हो गए।
इसके बाद से तो नीतीश कुमार और आर सीपी सिंह के बीच में शक की एक बड़ी खाई खड़ी हो गई। नीतीश को लगने लगा कि आर सीपी बीजेपी के इशारों पर जेडीयू में ही फूट डालने का काम कर रहे हैं। इस शक का सीधा असर आर सीपी सिंह की सियासत पर पड़ा और पिछले साल जब उनका राज्यसभा का कार्यकाल समाप्त हुआ, जेडीयू ने बड़ा कदम उठाते हुए उनकी जगह खीरो महतो को राज्यसभा भेज दिया। अब ये फैसला बड़ा इसलिए था क्योंकि केंद्रीय मंत्री बने रहने के लिए आर सीपी का राज्यसभा से चुना जाना जरूरी था। लेकिन क्योंकि नीतीश कुमार ने वो विकल्प ही बंद कर दिया, ऐसे में आर सीपी अर्श से फर्श पर आ गए। वे ना राज्यसभा के सदस्य रहे, मंत्री पद भी हाथ से गया और जेडीयू में बिल्कुल अलग-थलग पड़ने लगे। इसके ऊपर पार्टी में जो नेता उनका समर्थन करते थे, धीरे-धीरे उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, यानी कि तय रणनीति के तहत बिहार में नीतीश ने जेडीयू को टूटने से बचा लिया और जो हाल महाराष्ट्र में शिवसेना का हुआ, वैसा बिहार में जेडीयू के साथ होता नहीं दिखा।
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लेकिन इतना सब कुछ होने के बाद भी आर सीपी सिंह ने तब जेडीयू नहीं छोड़ी थी। ऐसे में वो काम भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों ने कर दिया। जेडीयू ने उनको एक नोटिस थमा दिया जिसमें कहा गया कि उन्होंने कई जगहों पर अवैध संपत्ति अर्जित की। इसके अलावा ये भी आरोप लगा कि बीजेपी के साथ मिलकर उन्होंने जेडीयू को नुकसान पहुंचाने की साजिश की। ये आरोप काफी रहे आर सीपी सिंह के सब्र के बांध को तोड़ने के लिए और उन्होंने 12 साल बाद जेडीयू से अपना नाता तोड़ दिया। पिछले साल अगस्त में उन्होंने खुद ही पार्टी से इस्तीफा दे दिया।
अब ये सारी कहानी बताना जरूरी इसलिए था क्योंकि यहीं से आर सीपी सिंह की राजनीति और उनकी सियासी ताकत को समझा जा सकता है। असल में अपने करियर में आर सीपी को जितनी भी सफलता मिली, उसका बड़ा कारण नीतीश कुमार रहे। उनकी खुद की लोकप्रियता बिहार में ज्यादा नहीं मानी जाती है, कुर्मी जाति से जरूर आते हैं लेकिन नीतीश की तरह उस समुदाय का चेहरा नहीं बन पाए हैं। इसी तरह जब उन्हें कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई, तब भी उनकी सियासत ‘फेल’ मानी गई। इसे दो उदाहरण से समझा जा सकता है। 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरन बिहार में अति पिछड़ों को पार्टी के पाले में लाने की जिम्मेदारी आर सीपी सिंह को सौंपी गई थी। उन्होंने जमीन पर उतर कई सम्मेलन भी किए, लेकिन उनकी रैलियों में खाली कुर्सियों ने सियासी संदेश दे दिया था- वे कोई नीतीश कुमार नहीं और उनकी लोकप्रियता भी वैसी नहीं।
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इसी तरह 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव जेडीयू के लिए किसी बुरे सपने जैसा रहा जब पार्टी ने मात्र 43 सीटें जीती थीं। उस समय आर सीपी ही पार्टी अध्यक्ष थे और हर रणनीति में उनकी सीधी दखल थी। लेकिन उनकी रणनीति भी फेल रही और उनकी लीडरशिप पर भी प्रश्न चिन्ह लग गए। ऐसे में अब जब पूरे एक साल बाद आर सीपी सिंह राजनीति फिर एंट्री कर रहे हैं, क्या वे नीतीश कुमार का विकल्प बन सकते हैं?
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि आर सीपी सिंह को बीजेपी में जाने का ज्यादा फायदा नहीं होने वाला है। इसका बड़ा कारण ये है कि इतने सालों बाद भी वे खुद को कुर्मी जाति के कोई दिग्गज नेता के तौर पर स्थापित नहीं कर पाए हैं। बिहार की सियासत में कुर्मी चार फीसदी के करीब हैं और कई उपजातियों में बंटे हुए हैं। नीतीश खुद अवधिया जाति से आते हैं जो संख्या में सबसे कम लेकिन सियासत में पूरा असर रखती है। इसी वजह से कुर्मी जाति के नीतीश तो मजबूत चेहरे बन गए, लेकिन उन्हीं के आशीर्वाद से राजनीति में दस्तक देने वाले आर सीपी सिंह वो कमाल नहीं कर पाए। बीजेपी चाहती जरूर है कि आर सीपी सिंह के जरिए जेडीयू के कोर वोटबैंक कुर्मी में सेंध लगाई जाए, लेकिन सवाल वहीं- क्या आर सीपी सिंह के पास नीतीश वाला करिश्मा है, क्या वे जन-जन के नेता बन सकते हैं?