देश शुक्रवार को 79वां स्वतंत्रता दिवस मनाएगा। इसको लेकर पूरे देश में उत्साह, उमंग और खुशी का माहौल है। 15 अगस्त 1947 को भारत जब आजाद हुआ तो पूरा देश जश्न में डूब गया था। लेकिन आजादी की अगली कतार के नेता और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन ने यह उत्सव नहीं मनाया। वजह थी – देश का बंटवारा, जिसे वे अपने जीवन की सबसे बड़ी पीड़ा मानते थे।
टंडन का जन्म 1 अगस्त 1882 को इलाहाबाद में हुआ। पढ़ाई के दौरान ही वे कांग्रेस से जुड़े और विदेशी हुकूमत के विरोध में म्योर कॉलेज से निकाल दिए गए। 1906 में वकालत शुरू की, लेकिन 1921 में गांधीजी के आह्वान पर पेशा छोड़कर पूरी तरह देश सेवा में जुट गए। जेल यात्राएं कीं, किसानों-मजदूरों को संगठित किया और पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
हिंदी के प्रति उनका प्रेम अतुलनीय था। 1910 में उन्होंने काशी नागरी प्रचारिणी सभा में हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की, 1918 में हिंदी विद्यापीठ और 1947 में हिंदी रक्षक दल बनाया। वे मानते थे कि भाषा ही देश की आत्मा है, और विभाजन ने उस आत्मा को गहरी चोट दी है।
कांग्रेस के इतिहास में 1950 का अध्यक्ष चुनाव यादगार रहा, जब पंडित नेहरू के विरोध के बावजूद टंडन जी जीत गए। इससे पहले 1948 का चुनाव वे हार चुके थे, लेकिन समर्थकों के दबाव पर फिर खड़े हुए।
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नेहरू उन्हें पुरातनपंथी मानते थे, खासकर उनकी दाढ़ी, विभाजन का विरोध और हिंदी के प्रति समर्पण के कारण। नेहरू ने 8 अगस्त 1950 को पत्र लिखकर साफ कहा कि उनका अध्यक्ष बनना “नुकसानदेह ताकतों” को बढ़ावा देगा। टंडन ने शालीनता से जवाब दिया कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने और देश के बंटवारे पर उनका दृष्टिकोण अलग है, लेकिन इससे नेहरू के प्रति उनका प्रेम कम नहीं होगा।
उनका मानना था कि भारत की स्वतंत्रता अधूरी है क्योंकि वह अपने ही शरीर का एक हिस्सा खोकर मिली है। इसलिए जिस दिन भारत का तिरंगा पहली बार लाल किले पर फहराया गया, उस दिन टंडन ने अपने घर में सन्नाटा रखा। उनके लिए वह दिन खुशी का नहीं, बल्कि टूटे सपनों का था — एक ऐसा सपना जिसमें वे भारत को एक, अखंड और अविभाजित देखना चाहते थे।