कांग्रेस नेता राहुल गांधी लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बन चुके हैं। दस सालों में पहली बार विपक्ष का एक मुखर चेहरा मोदी सरकार के सामने चुनौती पेश करने वाला है। पहली बार कई अहम कमेटियों में विपक्ष का नेता अपनी राय, अपने विचार जाहिर करने वाला है। ऐसे में स्थिति और मिजाज पूरी तरह बदलने वाले हैं। इस बीच राहुल गांधी का अंदाज भी बदला-बदला नजर आया है। जो राहुल पिछले कई महीनों से सफेद टी शर्ट में दिखाई दे रहे थे, वो अब फिर सफेद कुर्ते और पायजामा में आ गए हैं।

अब कहने को इसे एक इत्तेफाक माना जाए या पॉलिटितल मैसेजिंग का नया हथियार, सच्चाई यह है कि राहुल गांधी ने पिछले दो सालों से इस तरह के फॉर्मल कपड़े छोड़ दिए थे। भारत जोड़ो यात्रा के वक्त जिस सफेद शर्ट को उन्होंने इतना प्रमोट किया था, उसे चुनाव दर चुनाव जारी भी रखा। संसद में शपथ के दौरान भी इस बार राहुल गांधी ने दूसरे नेताओं से इत्तर जींस और टी शर्ट पहन एंट्री की। लेकिन नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद वे कुर्ते पायजामे में नजर आ गए।

राहुल की राह नहीं रहेगी आसान

अब कपड़ों का यह ट्रांजिशन जितना सरल राहुल गांधी के लिए रहा है, उन्होंने जितनी आसानी से अपने कम्फर्ट और मन अनुसार कपड़े बदल लिए हैं, नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभाते वक्त क्या इतनी सहजता रहने वाली है? अब यह सवाल इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि हर कोई यह बताने में व्यस्त है कि नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद राहुल गांधी कितने ताकतवर बन चुके हैं, उन्हें क्या-क्या सुविधाएं मिलने वाली हैं, लेकिन इसका एक पहलू यह है कि राहुल गांधी को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। जितना आसान सड़कों पर आवाज उठाना था, उतना ही मुश्किल सदन में नियमों के अनुसार विपक्ष को मजबूत करना रहने वाला है।

चैलेंज 1- संवैधानिक पद पर बैठने का अनुभव नहीं

राहुल गांधी के सामने इस बार सबसे बड़ी चुनौती खुद को साबित करने की रहने वाली है। यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि 25 साल से राजनीति में सक्रिय चल रहे राहुल अभी तक एक बार भी किसी संवैधानिक पद पर नहीं बैठे हैं। वे चाहते तो 2004 में ही मंत्री बन जाते, उन्हें ऑफर तक दिए गए, लेकिन हर बार राहुल ने उसे नकार दिया। ऐसे में यह पहली बार है जब राहुल गांधी एक संवैधानिक पद संभालने जा रहे हैं। उनके पास इसका कोई पहले का अनुभव नहीं है, ऐसे में किस तरह से वे इस नई भूमिका में खुद को ढालते हैं, यह देखना दिलचस्प रहने वाला है।

चैलेंज 2- खुलकर नहीं समझकर बोलना जरूरी, कई मानहानि केस

इसी चुनौती का एक पहलू यह भी है कि राहुल गांधी कई बार अति उत्साह में जरूरत से ज्यादा बोल जाते हैं, जितने मानहानि के मामले उनके खिलाफ दर्ज है, वो इस ट्रेंड की तस्दीक करते हैं। लेकिन बतौर नेता प्रतिपक्ष उनकी जिम्मेदारी अब और ज्यादा बढ़ जाएगी। उन्हें पूरा होमवर्क करना पड़ेगा, सिर्फ कुछ कागज पढ़ देने से, तीखे हमले कर देने से काम नहीं चलने वाला है। तथ्य का जवाब तथ्य से देना होगा, तर्क का जवाब अपने तर्कों से देना होगा। जब तक राहुल ऐसा नहीं करेंगे, नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद भी उनकी स्वीकार्यता नहीं बढ़ने वाली।

चैजेंल 3- इंडिया गठबंधन को एकजुट रखना, राहुल की जवाबदेही

एक नई चुनौती इस बार विपक्ष को एकजुट रखना भी रहने वाली है। यह सही बात है कि इस बार मोदी सरकार के पास अपने दम पर बहुमत नहीं है, उन्हें अपने एनडीए के साथियों के सहारे सरकार चलानी होगी। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि इंडिया गठबंधन में भी दरारें मौजूद हैं जो किसी भी विवाद के समय बढ़ सकती हैं। अगर ऐसा हुआ तो राहुल गांधी की चुनौती काफी ज्यादा बढ़ जाएगी। नेता प्रतिपक्ष एक ऐसा पद है जहां पर विपक्ष की सफलता पर अगर क्रेडिट मिलता है तो हर विफलता पर भी उतनी ही ताकत के सात हार का ठीकरा भी फोड़ा जाता है।

सिर्फ कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता के रूप में तो राहुल गांधी का बचाव कई बार हो चुका है। 2014 में हार हुई तो राहुल की नेतृत्व के बजाय मनमोहन सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को जिम्मेदार बता दिया गया। जब 2019 में हार मिली तो न्याय योजना और राष्ट्रवाद नेरेटिव को जिम्मेदार ठहराया गया। लेकिन अब जब राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में हैं, यह सुविधा नहीं रहने वाली है। उनकी जवाबदेही सबसे ज्यादा रहेगी। विपक्ष क्या करता है, उसका क्या परिणाम रहता है, हर बात का उत्तर राहुल गांधी के पास होना चाहिए। ऐसे में इस चुनौती से पार पाना भी कांग्रेस नेता के लिए आसान नहीं रहने वाला।

चैलेंज 4- कांग्रेस का काम और नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी, बैलेंस का खेल

इस समय राहुल गांधी की एक परेशानी यह भी रहने वाली है कि उन्हें नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस नेता के रूप में तालमेल बैठाना पड़ेगा। वो सिर्फ नेता प्रतिपक्ष बनकर उस कांग्रेस को जमीन पर मजबूत नहीं कर सकते जो अब जाकर कुछ सक्रिय नजर आ रही है। हाल के लोकसभा चुनाव में यूपी से लेकर राजस्थान तक में पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहा है, ऐसे में उसे और बेहतर करने के लिए राहुल की आक्रमता के साथ-साथ उनका जमीनी प्रचार जारी रहने जरूरी है। लेकिन बतौर नेता प्रतिपक्ष राहुल को अब सदन की ज्यादा से ज्यादा चर्चाओं में शामिल होना होगा, उन्हें सदन में अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी होगी।

राहुल के लिए यह बात ज्यादा जरूरी इसलिए है क्योंकि बतौर सांसद लोकसभा में उनका प्रदर्शन ज्यादा उत्साह बढ़ाने वाला नहीं रहा है। 17वीं लोकसभा में उनकी अटेंडेंस सिर्फ 51% दर्ज की गई थी और वे सिर्फ़ 8 चर्चाओं में शामिल दिखे। लेकिन यह लचर स्थिति बतौर नेता प्रतिपक्ष नहीं रह सकती है और दूसरी तरफ कांग्रेस को भी पूरा समय देना पड़ेगा, ऐसे में बैलेंस बनाने की कला ही राहुल की चुनौती को कम कर सकती है।

चैलेंज 5- मोदी के साथ तालमेल बैठाना, बातों को मजबूती से रखना

समझने वाली बात यह भी है कि नेता प्रतिपक्ष को ‘शैडो प्रधानमंत्री’ कहा जाता है, वो हर अहम मीटिंग में शामिल रहता है। उसकी राय मांगे बिना कई फैसले नहीं हो सकते हैं। इसी कड़ी में अब कई मौके ऐसे आने वाले हैं जहां पर पीएम मोदी और राहुल गांधी आमने सामने होंगे। उस स्थिति में अटल बिहारी वाजपेयी का ज्ञान राहुल के काफी काम आने वाला है, वे अक्सर कहा करते थे- मतभेद हो सकते हैं मनभेद नहीं होने चाहिए। यानी कि राहुल गांधी के लिए मोदी बतौर नेता एक विरोधी जरूर हैं, लेकिन अब कई फैसलों में उन्हें आपसी सहमति भी बनानी पड़ेगी। अगर वे चाहते हैं कि उनकी बातों को भी पूरा सम्मान मिले, उन्हें सामने से भी वो सम्मान देना पड़ेगा।