आज नेता आरक्षण को वोट की फसल काटने के लिए बीज के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। मोदी सरकार की पहल का भी असल मकसद यही है। बिल लाने के अगले ही दिन अपनी सभाओं में प्रधानमंत्री ने इसका प्रमुखता से जिक्र कर यह साबित कर दिया है कि सरकार ने अपनी पार्टी को चुनाव में भुनाने के लिए एक बड़ा मुद्दा दे दिया है। चुनावी मलाई पाने के खयाल से ही कोई नेता 90 फीसदी तक आरक्षण की मांग कर रहा है तो कोई कह रहा है कि प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में भी 60 फीसदी आरक्षण हो। लेकिन, सच यह है कि आज समस्या उस स्तर से आगेे निकल गई है, जहां आरक्षण से समाधान निकल सके।
हल तब निकलेगा जब ज्यादा से ज्यादा रोजगार के अवसर या नौकरियां पैदा हों और युवाओं को वे अवसर पाने लायक बनाया जाए। आरक्षण के बजाय हम जरूरतमंदों को ऐसी सुविधाएं दे सकते हैं, जिनसे वह योग्यता के आधार पर नौकरी ले सके। उन्हें पढ़ाई में आर्थिक मदद दी जा सकती है। सरकारी शिक्षण संस्थानों में पुख्ता पढ़ाई की व्यवस्था की जाए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो गरीब पढ़ ही नहीं पाएगा। फिर आरक्षण का फायदा कहांं से ले पाएगा? किसी तरह फायदा पाने लायक बन भी गया तो नौकरियां ही नहीं होंगी।
नीयत: सरकार कह रही कि आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण लोगों को मुख्यधारा में लाने की नीयत है। पर विपक्ष कह रहा कि चुनावी फायदा पाना मकसद है।
नीति: पूर्व जस्टिस अहमदी ने भी कहा है कि मोदी सरकार का फैसला सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की भावनाओं के हिसाब से नहीं है। संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक आरक्षण दो बातों पर निर्भर है- समानता का सिद्धांत और पिछड़ापन।