पूर्णो ए संगमा के सिर से मात्र 11 साल की उम्र में पिता का साया उठ गया था। परिवार की हालत खराब हो गई थी। पूर्णो संगमा को स्‍कूल छोड़ना पड़ा था। खाने के लाले थे। दूसरों के जानवर चरा कर खाने का इंतजाम किया करते थे। फिर एक पादरी की कृपा से पढ़ाई शुरू हो सकी और जीवन नई दिशा में शुरू हुआ। पादरी को उस वक्त इसका एहसास भी नहीं था कि जिस बच्चे की वे मदद कर रहे हैं, एक दिन वह भारत के राष्ट्रपति का चुनाव लड़ेगा।

सात भाई-बहनों में से एक संगमा का जन्म बांग्लादेश सीमा से लगते चपाहाती गांव में 1 सितंबर 1947 में हुआ था। गारो हिल्स में चर्च और स्कूल चलाने वाले पादरी जियोवन्‍नी बैटिस्‍टा बुसोलिन ने ये कभी नहीं सोचा होगा जो संगमा बने। संगमा ये बताते हुए कभी हिचकिचाहट महसूस नहीं करते थे कि वे बिना खाने के कुछ दिन कैसे रहे थे?

एक बार संगमा दोबारा से स्कूल पहुंचे तो उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुडकर नहीं देखा। उनके गांव से 340 किलोमीटर दूर शिलोंग के सेंट एंथनी कॉलेज से उन्होंने बीए की डिग्री हासिल की। उसके बाद वे असम के डिब्रुगढ़ में डॉन बॉस्को स्कूल में पढ़ाने लगे और उसी दौरान उन्होंने डिब्रुगढ़ यूनिवर्सिटी से इंटरनेशनल पॉलिटिक्स से एमए की पढ़ाई पूरी की। रात में वे लॉ कॉलेज भी जाते थे। कुछ दिन वकील और पत्रकार रहने के बाद वे राजनीति से जुड़ गए। उन्हें साल 1973 में यूथ कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया। चार साल बाद वे तूरा लोकसभा सीट से सांसद बन गए। इस सीट से वे नौ बार लोकसभा सांसद रहे। 1980 में उन्हें इंदिरा गांधी ने उद्योग मंत्रालय में जूनियर मंत्री बनाया। संगमा 12 साल तक केंद्रीय राज्य मंत्री रहे। इस दौरान उन्होंने कॉमर्स, सप्लाई, होम और लेबर सहित कई मंत्रालयों की कमान संभाली। उसके बाद उन्हें 1995-96 में नरसिंहा राव सरकार द्वारा केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया गया।

23 मई, 1996 को मात्र 49 साल की उम्र में उन्हें लोकसभा स्पीकर चुना गया। वे लोकसभा स्पीकर चुने जाने वाले पहले विपक्षी पार्टी से, पहले अनुसूचित जनजाति से, पहले ईसाई थे। इसके साथ ही 1995 में वे जनजातिय समुदाय से ताल्लुक रखने वाले पहले केंद्रीय मंत्री बने। वे बड़े ही सख्त मिजाज के थे। राष्ट्रहितों से उन्होंने कभी भी समझौता नहीं किया। इतिहास गवाह है कि उनके लेबर मिनिस्टर रहते हुए देश में औद्योगिक हड़तालों में कमी देखने को मिली।

बतौर लोकसभा स्पीकर संगमा कुछ समय तक ही पद पर रहे, लेकिन उनकी यादें हमेशा जहन में रहेंगी। मात्र पांच फीट लंबे संगमा हमेशा सदन को अपने नियंत्रण में रखते थे। इस दौरान वे नियमों के पालन का पूरा ख्याल रखते थे, चाहे गहमागहमी वाली बहस ही क्यों न हो। उनमें एक अनोखी क्षमता थी कि वे अपनी मेघालयी हिंदी को अन्य राज्यों के सांसदों की भाषा के साथ मिक्स कर देते थे।

मातृवंशीय समाज से आने वाले संगमा के स्पीकर रहते हुए महिलाओं को रोजगार पर स्टैंडिंग ज्वाइन पार्लियामेंट्री कमेटी बनाई गई। इसके साथ ही लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने वाले कान्स्टिटूशन बिल,1996(81वां संशोधन) पर ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी बनाई गई।

स्पीकर का पद छोड़ने के बाद संगमा का राजनीतिक करियर अस्थिर-सा रहा। लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़े रहने के बाद सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर उन्होंने साल 1999 में शरद पवार और तारिक अनवर के साथ पार्टी छोड़ दी। उसके बाद दोनों के साथ मिलकर एनसीपी पार्टी का गठन किया। वे शरद पवार के साथ भी ज्यादा दिनों तक नहीं रहे, एनसीपी के साथ मतभेद के बाद उन्होंने ममता बनर्जी की टीएमसी का दामन थाम लिया। दो साल बाद उन्होंने दोबारा से एनसीपी ज्वाइन कर ली और फिर राज्य की राजनीति में सक्रिय हो गए। साल 2008 में वे विधायक चुने गए। जून 2012 में उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ा। जिसकी वजह से पवार और उनमें दोबारा से मतभेद पैदा हो गए और उन्होंने फिर एनसीपी से इस्तीफा दे दिया। भाजपा, एआईएडीएमके और बीजेडी के समर्थन के बाद भी संगमा चुनाव हार गए। साल 2013 में उन्होंने नेशनल पिपुल्स पार्टी बनाई और 2014 में एक बार फिर चुनाव जीतकर संसद पहुंच गए। वे संसद नियमित रूप से जाते थे, आखिरी सांस लेने से एक दिन पहले भी वे सदन गए थे।
संगमा के साथ रिपोर्टिंग करने का अपना ही मजा था। उनके चुनाव प्रचार के दौरान कई बार उनके साथ रहा। कई बार वे अपने विरोधियों पर निशाना साधने की बजाए चुटकले और कहानियां सुनाने लगते थे। वे चुनावी भाषण के दौरान अपनी जिंदगी और बचपन की कहानियां सुनाने लगते थे। एक जगह से दूसरी जगह जाते हुए वे अक्सर रुक जाते थे और कई बार सड़क किनारे चाय पीने लगते और फसलों के बारे में पूछने लगते थे।

आखिरी बार उन्हें गुवाहाटी स्थित सोनापुर कॉलेज में 28 जनवरी, 2016 को एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में सुनने को मिला। इसमें वे बतौर स्पीकर शामिल हुए थे। वहां उन्होंने कहा, ‘नोर्थईस्ट की आवाज को पर्याप्त रूप से संसद, दिल्ली और देशभर में पर्याप्त रूप से नहीं सुना जाता। हमें आवाज उठानी होगी। हमें हेम बरुआ, दिनेश गोस्वामी और जीजी स्वैल जैसे सार्वजनिक वक्ताओं की जरूरत है। ये वो नेता और जनता के प्रतिनिधि हैं जो बिना किसी डर के अपनी बात रखते हैं। हमें ऐसे नेता काफी संख्या में बनाने होंगे।’ उनका नामपूर्णो था, जिसका आसामी भाषा में मतलब पूरा और कुल होता है।

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