जगदीश बाली

इस तस्वीर के लिए कार्टर को पुलित्जर पुरस्कार से नवाजा गया। लेकिन यह पीड़ादायक मंजर कार्टर के मानस पटल पर छा गया और बच्ची के लिए कुछ न कर पाने की ग्लानि से वह इतने विषाद से भर गया कि उसने तीन महीने बाद आत्महत्या कर ली। भूख से तड़पते किसी बच्चे को देखने से भयावह क्या हो सकता है? हालांकि यह बात 1993 की है, पर भुखमरी और कुपोषण की समस्या आज भी पूरे विश्व में व्याप्त है। सत्य है, भूख मौत से भी भयंकर होती है। ये भूख न मिटती है और न मरती है। इसे सुबह मिटाते हैं, शाम को फिर सताने चली आती है।

हालांकि भुखमरी एक वौश्विक समस्या है, लेकिन भारत इस मामले में ‘गंभीर’ श्रेणी में आता है। कुछ समय पहले वैश्विक भूख सूचकांक, 2020 में एक सौ सात देशों की सूची में भारत और सूडान चौरानबेवें स्थान पर आया। पिछले साल के मुकाबले इस बार थोड़ा सुधार जरूर हुआ, मगर भारत अभी भी ‘गंभीर’ श्रेंणी में बना हुआ है।

हमारे पड़ोसी देश बंगलादेश, म्यांमा, पाकिस्तान भी ‘गंभीर’ श्रेणी में हैं, लेकिन इस साल के भूख सूचकांक में ये देश भारत से बेहतर स्थिति में हैं। रिपोर्ट के अनुसार भारत की चौदह फीसद आबादी कुपोषण की शिकार है। यानी लगभग बीस करोड़ लोगों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता। देश में बाल कुपोषण की स्थिति गंभीर है।

कुपोषण का मतलब है आयु और शरीर के अनुरूप पर्याप्त शारीरिक विकास न होना। एक स्तर के बाद यह मानसिक विकास की प्रक्रिया को भी बाधित करता है। अगर बहुत छोटे, खासतौर से जन्म से लेकर पांच वर्ष की आयु तक के बच्चों को पर्याप्त पोषण आहार न मिले तो उनमें कुपोषण की समस्या जन्म ले लेती है।

नतीजतन, बच्चों में रोग प्रतिरोधक क्षमता घट जाती है और छोटी-छोटी बीमारियां उनकी मृत्यु का कारण बन जाती हैं। भारत में पांच साल से कम उम्र के करीब साढ़े सैंतीस फीसद बच्चे कुपोषण के कारण विकसित नहीं हो पाते और बौने रह जाते हैं, जबकि सत्रह फीसद से ज्यादा बच्चों का कद के अनुसार वजन कम रह जाता है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि भारत में हर साल कुपोषण के कारण मरने वाले पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों की संख्या दस लाख से ज्यादा है।

कुपोषण जन्म के बाद ही नहीं, बल्कि पहले भी शुरू होता है। लाखों बच्चे तो कुपोषण का शिकार हो कर गर्भ में ही मर जाते हैं। अगर मां कुपोषित होगी, तो बच्चा भी कुपोषण का शिकार होगा। कुपोषण के कारण वृद्धि बाधिता, मृत्यु, कम दक्षता जैसी समस्याएं आ जाती है। वे सीखने की क्षमता कम होने के कारण पिछ्ड़ जाते हैं।

स्कूल से बाहर वे सामाजिक उपेक्षा और शोषण के शिकार हो जाते है। इस कारण बड़ी संख्या में बच्चे बाल श्रमिक बन जाते हैं और बाल वेश्यावृत्ति के लिए भी मजबूर हो जाते हैं। कई बार भूख मिटाने के लिए बच्चे गुनाह के रास्ते पर भी चल पड़ता है, क्योंकि कहते हैं, ‘वुभुक्षितम् किं न करोति पापं’ यानी भूखा मनुष्य कौन-सा अपराध नहीं कर सकता!

कुपोषण की समस्या इतनी गंभीर है कि विश्व बैंक ने इसकी तुलना ‘ब्लेक डेथ’ नामक महामारी से की है, जिसने अठारहवीं सदी में यूरोप की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को अपना शिकार बनाया था। विडंबना है कि हमारे देश में एक वर्ग तो स्थूलता से जूझ रहा है, वहीं दूसरी ओर करोड़ों बच्चे रोटी न मिलने की वजह से अस्थिपिंजर मात्र लगते हैं।

जहां रोजाना लाखों टन भोजन कचरे में जाया कर दिया जाता है, वहीं करोड़ों बच्चे भोजन न मिलने से कुपोषित रह कर जीने के लिए मजबूर हैं। जिस देश में अरबों टन गेहूं गल-सड़ जाता है, उसी देश में करोड़ों बच्चों का जीवन मुट्ठी भर दाने के लिए तरसते समाप्त हो जाता है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार भारत में पूरे साल जितने पैसे का भोजन बर्बाद हो जाता है, उतनी राशि में बीस करोड़ लोगों के पेट भरे जा सकते हैं।

जहां कुपोषण एक भीषण समस्या है, वहां भोजन की बर्बादी संवेदनहीनता और अनभिज्ञता की बानगी है। राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में- ‘श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं, मां की हड्डी से चिपक-ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।’

बचपन खेलने-कूदने, मौज-मस्ती, शारीरिक और दिमागी विकास का समय होता है, लेकिन कुपोषण और भुखमरी की काली स्याही से मासूमों की नियति में खिलने से पहले ही मुरझाना लिख दिया जाता है। जब किसी देश का बचपन कुपोषण से जूझ रहा हो, तो हम कैसे एक संपन्न भविष्य व मजबूत राष्ट्र का दावा कर सकते हैं।

प्रकृति ने इंसान को जिस्म दिया और इसे जिंदा रखने के लिए रोटी चाहिए। जब भूख का सवाल खड़ा होता है, तो सब उपदेश धरे के धरे रह जाते हैं। फिर तो सिर्फ रोटी चाहिए, चाहे जैसे भी हो। कमा कर न मिले, तो चाहे जैसे भी!