प्रियंका गांधी का औपचारिक रूप से आज चुनावी डेब्यू होने जा रहा है। केरल की वायनाड सीट से उनका नामांकन होना है। इस नामांकन को सिर्फ एक सामान्य राजनीतिक घटना के रूप में नहीं देखा जा सकता है। इससे विपरीत अगर प्रियंका मैदान में उतरी हैं, इसे कांग्रेस की मजबूरी भी माना जाना चाहिए और मजबूती भी। एक तरफ प्रियंका के सामने भाई राहुल गांधी की विरासत को आगे बढ़ाने की चुनौती रहने वाली है तो वहीं दूसरी तरफ केरल में कांग्रेस को फिर मजबूत करने की कवायद भी होगी।

प्रियंका गांधी वैसे तो 1999 से ही राजनीति में सक्रिय हो गई थीं, मां सोनिया गांधी के लिए प्रचार करने से लेकर बाद में उत्तर भारत के कई राज्यों में रैलियां करने तक, उनका कद पार्टी में धीरे-धीरे बढ़ता चला गया। 2019 में उन्हें उत्तर प्रदेश का प्रभारी महासचिव नियुक्त कर दिया गया। अब प्रियंका उस समय तो ज्यादा सफल नहीं रहीं, यूपी विधानसभा में भी करारी हार का सामना करना पड़ा, लेकिन समय और सियासी समीकरणों ने प्रियंका को अब उत्तर से दक्षिण में ला दिया है। ऐसे में सवाल उठता है कि दक्षिण भारत में प्रियंका गांधी का कद कितना बड़ा हो सकता है? प्रियंका को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है? सवाल यह भी उठना चाहिए कि क्या कांग्रेस को प्रियंका से दक्षिण में कोई फायदा होने वाला है?

चुनौती नंबर 1- दक्षिण भारत प्रियंका के लिए नया

इस समय एक तथ्य हर जगह चल रहा है- दक्षिण भारत गांधी परिवार के लिए काफी शुभ रहा है। सोनिया, राहुल से लेकर इंदिरा गांधी तक को मुश्किल समय में दक्षिण भारत ने ही जिताकर संसद तक पहुंचाया है। इस लिहाज से जरूर दक्षिण कांग्रेस के लिए सुरक्षित जगह है। लेकिन इसी बात का दूसरा पहलू यह है कि दक्षिण भारत की फील्ड प्रियंका गांधी के लिए एकदम नई है। प्रियंका की राजनीति जितनी भी सक्रिय रही है, उसमें ज्यादातर वक्त उत्तर भारत में बीता है। वही दक्षिण की राजनीति पूरी तरह अलग ढर्रे पर चलती है, यहां धर्म से ज्यादा भाषा का खेल, जातियों से ज्यादा भावनात्मक मुद्दे तूल पकड़ लेते हैं। ऐसे में खुद को यहां की राजनीति में ढालना प्रियंका के लिए काफी मुश्किल रहने वाला है।

चुनौती नंबर 2- लेफ्ट-बीजेपी दोनों से करना होगा मुकाबला

अब अगर कांग्रेस ने दक्षिण में प्रियंका गांधी को भेजने का फैसला किया है, उनसे उम्मीदें भी उतनी ज्यादा ही रहने वाली है। लेकिन प्रियंका को यह समझना पड़ेगा कि उन्हें मुकाबला अब किसी एक पार्टी से नहीं करना है बल्कि केरल में उन्हें लेफ्ट के साथ बीजेपी की टक्कर का भी सामना करना होगा। वैसे तो लेफ्ट का अस्तित्व कई राज्यों में समाप्ति की ओर है, लेकिन केरल एक ऐसा राज्य है जहां पर उसकी सरकार भी है और अभी एक मजबूत किला भी माना जा सकता है। ऐसे में लेफ्ट को रोकना प्रियंका के लिए जरूरी होगा। इसके ऊपर बीजेपी जिस तरह से केरल में आगे बढ़ रही है, इससे भी कांग्रेस परेशान है।

प्रियंका गांधी का चुनावी डेब्यू कांग्रेस को क्या फायदा देने वाला है?

यह नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी तो वैसे भी केरल में मुकाबले को लेफ्ट बनाम भाजपा का बनाना चाहती है, ऐसे में वो भी कांग्रेस को ही साइडलाइन करने की कोशिश में है। इस लोकसभा चुनाव में बीजेपी केरल की पहली बार एक सीट जीतने में सफल रही है, विधानसभा चुनाव में भी उसका वोट शेयर लगातार बढ़ रहा है। ऐसे में बीजेपी के विस्तार को रोकना अब प्रियंका के लिए जरूरी रहने वाला है। उन्हें सिर्फ वायनाड तक अपना ध्यान केंद्रित नहीं रखना है बल्कि पूरे केरल में अपने चेहरे के दम पर कांग्रेस को फिर मजबूत करना है।

चुनौती नंबर 3- केरल विधानसभा के लिए कांग्रेस को करना तैयार

लोकसभा चुनाव में 20 में से 18 सीटें जीतकर कांग्रेस ने केरल में अपने लिए एक मजबूत पिच तैयार कर ली है। दूसरी चुनौती अब तीन सीटों का उपचुनाव और फिर 2026 में होने वाला विधानसभा चुनाव है। केरल में वायनाड के अलावा Palakkad और Chelakkara सीट पर भी उपचुनाव हो रहा है। ऐसे में प्रियंका से उम्मीद सिर्फ वायनाड जीतने की नहीं है, बल्कि उन्हें कांग्रेस के लिए इन दोनों सीटों को भी जीतना होगा। इन सीटों की जीत ही तय करेगी कि 2026 के विधानसभा चुनाव के लिए प्रियंका कितनी तैयार हैं।

खबर तो ऐसी भी है कि अगर प्रियंका की लोकप्रियता लोगों के बीच में पैठ बना लेती है तो उन्हें केरल का इनचार्ज तक बनाया जा सकता है। उस स्थिति में पूरी तरह राहुल नहीं प्रियंका गांधी के चेहरे पर केरल का चुनाव लड़ा जा सकता है। इस राज्य में पिछले 10 सालों से लेफ्ट की सरकार है, ऐसे में किस तरह से प्रियंका उस ‘लाल’ किले को भेदती हैं, यह दिलचस्प रहेगा।

चुनौती नंबर 4- परिवारवाद के आरोप होंगे और तेज

प्रियंका गांधी को अगर ऐसा लग रहा हो कि उन्हें सिर्फ केरल में ही अब चुनौतियों का सामना करना है, तो ऐसा नहीं रहने वाला है। अगर वे चुनाव जीत जाती हैं, उस स्थिति में उनके परिवार के तीन सबसे प्रमुख चेहरे संसद में एक साथ होंगे। एक तरफ सोनिया गांधी राज्यसभा से बैटिंग करेंगी तो वही दूसरी तरफ राहुल और प्रियंका साथ में लोकसभा में दिखाई देंगे। बीजेपी की नजरों में तो यह क्लासिक परिवारवाद का उदाहरण रहने वाला है, ऐसे में निशाना भी वैसे ही साधा जाएगा।

इसके रूप यह नहीं भूलना चाहिए कि पीएम मोदी ने राजनीति में 1 लाख ऐसे युवाओं को लाने का ऐलान किया है जिनका किसी भी सियासी परिवार से कोई ताल्लुक नहीं है। ऐसे में पार्टी दिखाने की कोशिश करेगी कि एक पार्टी तो नए चेहरों को मौका दे रही है तो दूसरी सिर्फ अपने हित साधने के लिए एक ही परिवार को आगे बढ़ा रही है। कांग्रेस को पहले भी इस नेरेटिव को नुकसान हो चुका है।

अवसर नंबर 1- उत्तर-दक्षिण में साध लिया बैलेंस

वैसे प्रियंका गांधी के सामने सिर्फ चुनौतियां नहीं हैं, बल्कि कहना चाहिए कई अवसर भी अब उनके लिए बनने जा रहे हैं। समझने वाली बात यह है कि कांग्रेस ने काफी सूझ-बूझ दिखाते हुए प्रियंका को दक्षिण में भेजने का फैसला किया है। जानकार मानते हैं कि इसके जरिए पार्टी ने काफी आसानी से उत्तर-दक्षिण वाला बैलेंस साध लिया है। अब अगर राहुल गांधी उत्तर भारत में ज्यादा सक्रिय दिखाई देंगे तो वही दूसरी तरफ प्रियंक दक्षिण भारत में पार्टी को मजबूत करेंगी।

यहां तक कहा जाता है कि दोनों भाई-बहनों के निजी रिश्ते जितने मजबूत हैं, उनके समर्थक एक दूसरे को उतना पसंद नहीं करते हैं। इस वजह से भी माना जा रहा है कि पार्टी के दो अलग-अलग धड़ों को बिल्कुल ही अलग-अलग क्षेत्र की कमान सौंप दी गई है। इससे दोनों ही तरफ विस्तार भी होगा और आपसी तनातनी से भी बचा जा सकेगा।

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अवसर नंबर 2- मजबूत हिंदी भाषी वक्ता कांग्रेस के साथ

कांग्रेस को पूरा विश्वास है कि प्रियंका गांधी वायनाड से आसानी से जीत जाएंगी। अगर ऐसे ही नतीजे भी आते हैं तो कांग्रेस को सिर्फ दक्षिण भारत के लिए एक चेहरा नहीं मिलने वला है बल्कि कहना चाहिए कि लोकसभा में भी एक मुखर आवाज का सहारा उन्हें मिल जाएगा। असल में लोकसभा में पिछले कुछ सालों में ऐसा देखा गया है कि कांग्रेस के पास मजबूत हिंदी भाषी वक्ताओं की कमी रही है, राहुल गांधी के सक्रिय होने से चुनौती कुछ कम जरूर हुई है, लेकिन अगर प्रियंका गांधी का साथ मिल जाएगा तो पार्टी की राह और आसान हो सकती है।

जानकार तो यहां तक मानते हैं कि प्रियंका की शैली राहुल गांधी से बिल्कुल विपरीत है। मोदी सरकार पर हमला तो वे भी करती हैं, लेकिन उनका अटैक तथ्यों पर ज्यादा और निजी हमले के रूप में कम दिखाई देता है। इसी वजह से कई बार बड़े बयान देकर भी विवादों में नहीं फंसती हैं। राहुल गांधी ज्यादा मुखर माने जाते हैं और कई मौकों पर उनके बयानों पर बवाल भी होता है। ऐसे में लोकसभा में भी एक पावर बैलेंस कांग्रेस के लिए बन सकता है।