अब अंतरिक्ष और वैज्ञानिक अनुसंधान जैसे अत्यधिक कुशलता वाले क्षेत्रों में भी निजी कंपनियों के सहयोग और समन्वय की राह खुल गई है। हाल में एक निजी कंपनी ‘स्पेसएक्स’ की मदद से दुनिया में पहले, एक अरबपति शख्स ने, अंतरिक्ष में निजी तौर पर चहलकदमी (स्पेसवाक) की। अरबपति जेरेड इसाकमैन समेत चार सदस्यीय दल मानव इतिहास में पहली बार निजी ‘स्पेसवाक’ के लिए गया था। हाल में अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन पर सहयोगी बुल विल्मोर के साथ गईं भारतीय मूल की सुनीता विलियम्स मिशन की निर्धारित अवधि में नहीं लौट सकीं, क्योंकि उन्हें वहां तक ले गए यान ‘बोइंग स्टारलाइनर’ में तकनीकी समस्याएं पैदा हो गईं। इन समस्याओं के कारण यह यान छह सितंबर 2024 को पृथ्वी पर चालक दल के बिना लौट आया था।

खास बात यह है कि ‘बोइंग स्टारलाइनर’ का इस्तेमाल भले अमेरिकी अंतरिक्ष एजंसी ‘नासा’ ने किया है, लेकिन इसे निजी उद्यमी एलन मस्क की कंपनी- ‘स्पेसएक्स’ और ‘बोइंग’ ने मुहैया कराया था। इस प्रसंग में सवाल उठा कि कहीं ‘नासा’ ने अपने यानों के प्रक्षेपण और यात्रियों के अंतरिक्ष से वापस लाने जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य में ‘स्पेसएक्स’ को मौका देकर कोई गलती तो नहीं कर दी है। इसका जवाब ‘नासा’ ने स्टारलाइनर की सुरक्षित वापसी के बाद यह कह कर दिया है कि भले तकनीकी दिक्कतों के कारण इससे सुनीता विलियम्स और बुच विल्मोर को वापस नहीं लाया जा सका, लेकिन तय प्रक्रियाओं के तहत ‘स्टारलाइनर’ का पृथ्वी पर सुरक्षित आ जाना इसकी योग्यता और क्षमता साबित करता है।

‘स्पेसएक्स’ और ‘बोइंग’ जैसी कंपनियां अमेरिका की सरकारी अंतरिक्ष एजंसी नासा के कई बेहद महत्त्वपूर्ण अंतरिक्ष अभियानों में भागीदारी कर रही हैं। स्पेसएक्स ने नासा ही नहीं, आस्ट्रेलिया आदि के निजी उपग्रहों के प्रक्षेपण में भी योगदान दिया है। इसी वर्ष मार्च 2024 में आस्ट्रेलिया की कंपनी ‘स्पेस मशीन्स’ के उपग्रह- ‘आप्टिमस’ को स्पेसएक्स के प्रक्षेपण यान फाल्कन-9 की मदद से अंतरिक्ष में पहुंचाया गया था। इस आस्ट्रेलियाई कंपनी के अभियान की पृष्ठभूमि में एक भारतीय उद्यम- अनंत टेक्नोलाजीज का योगदान भी है, क्योंकि इसने आस्ट्रेलिया की कंपनी के शोध एवं अनुसंधान का काम किया था।

भारत ने भी किया है प्रयास

विदेशों, खासकर अमेरिकी अंतरिक्ष एजंसी नासा में निजी कंपनियों के योगदान का रास्ता काफी पहले खुल चुका था, पर ऐसी ही एक शुरुआत हमारे देश में भी ‘इसरो’ जैसे प्रतिष्ठित संगठन में भी हो चुकी है। भारत में अंतरिक्ष कार्यक्रमों के निजीकरण का यह सिलसिला एक मिशन ‘प्रारंभ’ के साथ शुरू हो चुका है। इसके अंतर्गत हैदराबाद का एक अंतरिक्ष नवउद्यम- ‘स्काईरूट एयरोस्पेस’ भारत के पहले निजी राकेट ‘विक्रम-एस’ का सफल प्रक्षेपण दो साल पहले 18 नवंबर, 2022 को ‘इसरो’ की सहायता से कर चुका है। ‘इसरो’ से इतर अन्य सरकारी संगठनों में भी कुछ ऐसी संभावनाएं तलाशने की प्रेरणा जगी है, जहां संस्थाओं का खर्च घटाने, कमाई बढ़ाने और निजी संगठनों को सक्रिय भागीदारी करने का मौका मिल सकता है। जहां तक अंतरिक्ष अनुसंधान और पर्यटन जैसे क्षेत्रों में निजी कंपनियों के योगदान की बात है, निजी उद्यमों के प्रयासों से लग रहा है कि अंतरिक्ष एक बार फिर मनुष्यों के सपनों की नई मंजिल बन गया है।

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एलन मस्क की ‘स्पेसएक्स’ और जेफ बेजोस की ‘ब्लू ओरिजिन’ की पहलकदमियां नई जरूर हैं, पर इस बारे में गौरतलब है कि अंतरिक्ष की सैर और उसमें निजी कंपनियों की भागीदारी की पहल अरसे से की जा रही है। जैसे, चार वर्ष पहले एक निजी उड़ान की मदद से दो अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आइएसएस) पहुंचे थे। इस उपलब्धि के साथ एलन मस्क की कंपनी ‘स्पेसएक्स’ दुनिया की पहली ऐसी निजी कंपनी बन गई थी, जो अपने राकेट से दो अंतरिक्ष यात्रियों को आइएसएस तक सफलतापूर्वक ले गई थी। इससे उम्मीद जगी थी कि जल्दी ही दुनिया के और भी कई लोग अंतरिक्ष पर्यटन का अपना सपना पूरा कर सकेंगे।

अंतरिक्ष यात्रा का मकसद

निस्संदेह अंतरिक्ष की ऐसी सैर बहुतों को लुभाती है, पर सवाल है कि आखिर ऐसी यात्राओं का मकसद क्या है। क्या इनका उद्देश्य अमीरों को अंतरिक्ष की सैर और वहां चहलकदमी के लिए लुभाकर कमाई करना है, लंबी अंतरिक्ष यात्राओं का रास्ता खोलना है या फिर भारी आर्थिक बोझ से जूझ रही सरकारी अंतरिक्ष एजंसियों को अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए संसाधन जुटाने में मदद करना है। मंगल ग्रह की यात्रा को साकार करने की जो योजनाएं अभी चल रही हैं, उनमें भी यही अंदाजा लगाया जा रहा है कि जब कभी ऐसी कोई यात्रा मुमकिन होगी, तो उसमें मंगल से पृथ्वी तक वापसी में इंसान का जिंदा रहना शायद ही संभव हो। मंगल तो क्या, अभी की स्थितियों में चंद्रमा तक किसी मिशन को सही-सलामत पहुंचाना ही बेहद चुनौती भरा है।

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यही वजह है कि 1969 के अपोलो-2 मिशन के बाद कोई इंसान चंद्रमा पर नहीं भेजा जा सका है। इसलिए ज्यादा कोशिश यही है कि इंसानों को अंतरिक्ष कहलाने वाली पृथ्वी की निचली कक्षा तक ले जाया जाए और अगर आइएसएस पर मौजूद रहने वाले वैज्ञानिकों- यात्रियों की अदला-बदली संभव हो, तो थोड़े अंतराल पर नए यात्री वहां भेज कर कुछ महीने वहां बिता चुके यात्रियों को वापस लाया जाए।

अभी तक यह सारा काम सरकारी अंतरिक्ष एजंसियां ही करती रही हैं। पर अंतरिक्ष यात्राओं और अनुसंधान पर बढ़ रहे खर्च के कारण सरकारें इस काम से हाथ खींचने लगी हैं। नासा के बारे में अक्सर खबरें आती रहती हैं कि अमेरिकी प्रशासन समय-समय पर इसके बजट में कटौती करता रहा है। इसकी वजह यह बताई गई है कि अंतरिक्ष से ऐसी नई उपलब्धियों की संभावनाएं खत्म गई हैं, जिनसे कमाई का कोई रास्ता खुलता हो।

खर्चीला और झंझट भरा काम

अंतरिक्षीय पिंडों से खनिजों और बहुमूल्य धातुओं के खनन की बात अक्सर कही-सुनी जाती है, लेकिन वह काम इतना खर्चीला और झंझट भरा है कि कोई सरकार इसकी शुरुआत कर अपने हाथ नहीं जलाना चाहती है। बल्कि अब राकेट प्रक्षेपण और अंतरिक्ष अनुसंधान का ज्यादातर कामकाज भारत-चीन जैसे एशियाई देशों की तरफ स्थांतरित हो चुका है, जिन्हें अभी इन क्षेत्रों में अमेरिका-रूस के मुकाबले अपनी काबिलियत साबित करनी है और इनमें आत्मनिर्भर बनना है। इन सबके मद्देनजर अमेरिकी अंतरिक्ष एजंसी नासा, अपने उपग्रहों का प्रक्षेपण यूरोपीय स्पेस एजंसी और ‘इसरो’ से करवाती हैं और बाकी बचे ज्यादातर काम निजी कंपनियों के हवाले कर दिए हैं। खासकर अंतरिक्ष भ्रमण से लेकर सुदूर अंतरिक्ष की खोज तक के लिए वह सरकारी पैसे के इस्तेमाल से बचना चाहती है।

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हालांकि अंतरिक्ष पर्यटन अकूत कमाई की संभावना वाला एक क्षेत्र है, लेकिन इसमें भी निजी कंपनियों को मौका देकर यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि अत्यधिक जोखिम वाले ऐसे कार्यों में वह अपने वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की सेवाएं निजी उद्यम को दिला सकता है, लेकिन खर्च से यथासंभव बचना चाहेगा।

निस्संदेह अंतरिक्ष की ऐसी सैर बहुतों को लुभाती है, पर सवाल है कि आखिर ऐसी यात्राओं का मकसद क्या है। क्या इनका उद्देश्य अमीरों को अंतरिक्ष की सैर और वहां चहलकदमी के लिए लुभा कर कमाई करना है, लंबी अंतरिक्ष यात्राओं का रास्ता खोलना है या फिर भारी आर्थिक बोझ से जूझ रही सरकारी अंतरिक्ष एजंसियों को अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए संसाधन जुटाने में मदद करना है। मंगल ग्रह की यात्रा को साकार करने की जो योजनाएं अभी चल रही हैं, उनमें भी यही अंदाजा लगाया जा रहा है कि जब कभी ऐसी कोई यात्रा मुमकिन होगी, तो उसमें मंगल से पृथ्वी तक वापसी में इंसान का जिंदा रहना शायद ही संभव हो।