कोर्ट की अवमानना के दोषी ठहराए गए वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि “मौजूदा वक्त में न्यायपालिका में भ्रष्टाचार से निपटने की कोई प्रभावी प्रक्रिया नहीं है, इसलिए जनहित में वकीलों द्वारा उठाए गए ऐसे मुद्दे अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे में आने चाहिए।”
प्रशांत भूषण ने कोर्ट में एक लिखित सब्मिशन में इशारा किया है कि सुप्रीम कोर्ट ने 1995 के सी.रविचंद्रन अय्यर वर्सेस जस्टिस एएम भट्टाचर्जी मामले में संकेत दिया था कि बार के सदस्य और अन्य लोगों को जजों के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर नहीं बल्कि आंतरिक प्रक्रिया के तहत आवाज उठानी चाहिए। हालांकि अब यह साफ हो गया है कि आंतरिक प्रक्रिया अपर्याप्त और अप्रभावी है। वहीं महाभियोग की प्रक्रिया काफी जटिल और राजनैतिक है। इसलिए मौजूदा समय में न्यायपालिका में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कोई प्रभावी प्रक्रिया नहीं है।
ऐसे में सिर्फ सार्वजनिक तौर पर या फिर वकीलों के द्वारा, जो अपने अनुभव से न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को समझते हैं, वो ही इस मुद्दे को उठा सकते हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों को जनहित में अभिव्यक्ति की आजादी के आर्टिकल 19 (1) (a) और न्यायपालिका में वकीलों की जिम्मेदारी के तहत शामिल किया जाना चाहिए।
भूषण ने अपने सब्मिशन में कहा है कि वह पहले ही विस्तार से बता चुके हैं कि उन्होंने भ्रष्टाचार शब्द का इस्तेमाल वृहद रूप में किया था। जिसमें कोई भी अनौचित्य काम शामिल है ना कि सिर्फ आर्थिक भ्रष्टाचार। ऐसे में यह जांचने की जरुरत है कि यदि भ्रष्टाचार शब्द से कोर्ट की अवमानना होती है तो फिर इस भ्रष्टाचार शब्द का क्या मतलब है?
भूषण ने ये भी कहा कि पिछले कई फैसलों और रिपोर्ट में भी जजों ने अपने बयान में न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की बात पर चर्चा की है और बीते समय में 1964 में भ्रष्टाचार रोकने वाली संसदीय समिति से इसकी समीक्षा करने को कहा था। बता दें कि साल 2009 में तहलका मैग्जीन को दिए एक इंटरव्यू के मामले और सीजीआई को लेकर किए गए उनके ट्वीट पर कोर्ट ने उन्हें अवमानना का दोषी माना है। कोर्ट 20 अगस्त को प्रशांत भूषण की सजा पर बहस करेगी।
हालांकि कोर्ट द्वारा प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी ठहराए जाने के बाद से कई वरिष्ठ वकील और सामाजिक कार्यकर्ता सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से असहमति जता चुके हैं।