कुछ समय पहले राजस्थान के दौसा जिले में एक पिता ने अपनी नाबालिग बेटी की शादी इसलिए तय कर दी कि आने वाले समय में महंगाई और बढ़ जाएगी। उसका कहना है कि वह बेटी को आगे नहीं पढ़ा सकता, क्योंकि उसकी शादी में जितनी देर होगी, ब्याह में आने वाला खर्च उतना बढ़ता जाएगा। पिता की चिंता सिर्फ यह नहीं थी कि विवाह समारोह और उसमें दिए जाने वाले उपहार महंगे हो जाएंगे, बल्कि वह बच्ची की शादी कर उसके पालन-पोषण पर होने वाले खर्च की अपनी ‘जिम्मेदारी’ से भी आजाद होना चाहता है।
बेटी के पालन-पोषण की चिंता और उसकी जिम्मेदारी से मुक्त होने की चाहत अधिकतर गरीब पिता में देखने को मिलती है। बाल विवाह के पीछे सामाजिक परिपाटी और सुरक्षा जैसे मुद्दे होते हैं, लेकिन पड़ताल में यह भी पता चलता है कि आर्थिक हालात की वजह से ज्यादातर माता-पिता कम उम्र में बेटी की शादी करते हैं। दौसा का मामला यह भी बताता है कि बेटियों के पालन पोषण में आर्थिक स्थिति की क्या भूमिका है? अच्छी बात है कि कुछ समय पहले भारत सरकार ने इसकी गंभीरता को एक बार फिर रेखांकित किया और ‘बाल विवाह मुक्त भारत’ अभियान की घोषणा की है।
पितृसत्तात्मक मानदंडों से उपजी चुनौतियां
इसके तहत शुरू किए गए ‘बाल विवाह मुक्त भारत’ अभियान में लड़कियों को सशक्त बनाने के महत्त्व पर जोर दिया जा रहा है। इस क्रम में शिक्षा तक पहुंच में सुधार और लड़कियों की वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करने में उनकी भूमिका के लिए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘समग्र शिक्षा’ और ‘सुकन्या समृद्धि योजना’ जैसी योजनाओं की अहमियत समझी जा सकती है। मगर इसके समांतर यह छिपा नहीं है कि गहराई से जड़ें जमाए कुछ परंपराएं भी बाल विवाह को बढ़ावा देती हैं और उन पर एक सुचिंतित नीति की जरूरत है, जो पितृसत्तात्मक मानदंडों से उपजी चुनौतियों का सामना कर सके। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे हस्तक्षेप समाज की सोच को बदलने में काफी हद तक कारगर साबित हुए हैं, लेकिन इस दिशा में निरंतर और नए प्रयासों से ही हम अपनी लड़कियों के लिए सक्षम और सुरक्षित वातावरण बना सकते हैं।
विश्व बैंक और ‘इंटरनेशनल सेंटर फार रिसर्च आन वुमन’ के पच्चीस देशों की महिलाओं पर हुए शोध में सामने आया कि तीन में से एक लड़की की शादी अठारह वर्ष से कम उम्र में कर दी गई। पांच में से एक लड़की अठारह वर्ष की उम्र से पहले मां बन गई। भारत भी उन देशों में से एक है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आंकड़े बताते हैं कि बाल विवाह वाली 29.3 फीसद महिलाओं ने घरेलू हिंसा झेली, जबकि 6.8 फीसद को समय से पहले जबरन गर्भाधान का सामना करना पड़ा। प्रसव बाद मां और बच्चे दोनों में पोषण संबंधी कमियां और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं भी देखने को मिलीं। जाहिर है कि बाल विवाह के लिए जिम्मेदार गरीबी के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए उस पर तेज प्रहार की जरूरत है। यह गरीब परिवारों की आर्थिक मदद और बच्ची की शिक्षा तक पहुंच सुनिश्चित करके ही किया जा सकता है।
कम उम्र में विवाह से लड़कियों की छूट जाती है पढ़ाई
बाल विवाह खुद में कई समस्याओं की जड़ है। कम उम्र में विवाह से सबसे पहले तो बच्ची की पढ़ाई छूट जाती है। शिक्षा एक ऐसा हथियार है जिससे समाज को हर लिहाज से समृद्ध बनाया जा सकता है, लेकिन जैसे ही कोई बच्ची शिक्षा से वंचित होती है, उसकी आने वाली कई पीढ़ियां भी पढ़ाई-लिखाई से दूर हो जाती हैं। खेलने-कूदने और पढ़ने की उम्र में जिम्मेदारियों का बोझ कंधे पर आने से वह हालात का सामना करने में सक्षम नहीं बन पाती है। स्वास्थ्य के मोर्चे पर भी उसे दुश्वारियां झेलनी पड़ती हैं। परिपक्व न होने की वजह से गर्भावस्था के दौरान गर्भपात जैसी समस्याएं होती हैं। अगर बच्चे ने जन्म भी लिया, तो वह स्वस्थ नहीं होता। कई बार गर्भावस्था से जुड़ी अन्य वजहों या प्रसव के दौरान लड़की की जान तक चली जाती है। बाल विवाह समाज न केवल कम उम्र में शादी करने वाली लड़की के जीवन को, बल्कि भावी पीढ़ियों के विकास को भी बाधित करता है। इससे एक दुश्चक्र बनता है, जो एक अस्वस्थ समुदाय के निर्माण की ओर ले जाता है। बाल विवाह सभी बाल और मानव अधिकारों का घोर उल्लंघन है।
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बाल विवाह के खिलाफ कानूनी कार्रवाई के साथ यह भी जरूरी है कि उन परिस्थितियों को निष्क्रिय किया जाए, जिसकी वजह से माता-पिता कम उम्र में बेटी की शादी करने को मजबूर होते हैं। भारत का सामाजिक ताना-बाना बहुत जटिल और संवेदनशील है। सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक और पारिवारिक परिस्थितियां महिलाओं और बालिकाओं के लिए भेदभाव पूर्ण बनी हुई हैं। कन्या भ्रूण हत्या, असमान लिंगानुपात और बाल विवाह जैसी कुरीतियां समाज में कायम हैं। नकारात्मक सोच की वजह से बालिकाएं अपने जीवन, संरक्षण, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मौलिक अधिकारों से वंचित रह जाती हैं।
सरकार लड़कियों को पढ़ाने के लिए कर रही प्रयास
ऐसे में, बाल विवाह के चक्र को तोड़ने के लिए आर्थिक मदद मुहैया कराने की जरूरत है, ताकि बच्चियों की पढ़ाई जारी रह सके और माता-पिता पर आर्थिक बोझ न पड़े। इन संकटों को समझते हुए और इन सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए, केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारें भी कई योजनाएं चला रही हैं। केंद्र की ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘बालिका समृद्धि योजना’, ‘सुकन्या समृद्धि योजना’, ‘लाडली और कन्या कोष योजना’ की तरह राज्य सरकारों ने भी अपने यहां कई मददगार योजनाएं लागू की हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने 25 अक्तूबर, 2019 को ‘मुख्यमंत्री कन्या सुमंगला योजना’ की शुरूआत की थी। इसमें नवजात बच्ची के लिए पांच हजार रुपए दिए जाते हैं। इसी तरह बच्ची के बड़े होने पर कुछ राशि प्रदान की जाती है। यह मदद अठारह वर्ष की होने तक दी जाती है। इससे बच्ची को पढ़ाई जारी रखने में मिलती है। इस योजना का लाभ लड़की को इस शर्त पर मिलता है कि उसकी शादी अठारह वर्ष से पहले नहीं की जाएगी।
इसी तरह पश्चिम बंगाल सरकार की कन्याश्री प्रकल्प योजना है, जिसमें अविवाहित लड़की को उन्नीस वर्ष की उम्र तक पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति दी जाती है। राजस्थान में मुख्यमंत्री कन्यादान योजना के तहत पात्र लाभार्थियों को लड़की की शादी के समय 31 हजार से 41 हजार रुपए की वित्तीय सहायता दी जाती है। अगर लड़की दसवीं पास कर लेती है, तो सरकार उसे शादी के समय 41 हजार रुपए देती है। कन्या शादी सहयोग योजना के तहत, परिवारों की 21 साल या उससे अधिक उम्र की लड़की की शादी पर दस हजार रुपए की मदद दी जाती है। अनुसूचित जाति के बीपीएल परिवारों की 18 से 21 साल तक की लड़कियों की शादी पर पांच हजार रुपए दिए जाते हैं। करीब हर राज्य में बालिकाओं के लिए योजनाएं हैं, लेकिन इतनी योजनाओं के बावजूद देश में बाल विवाह की समस्या बनी हुई है। ऐसे में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इसका लाभ उन बच्चियों को मिले, जिन्हें बाल विवाह की चपेट में आने का खतरा अधिक है।