दुनिया भर में जैव विविधता के विशेषज्ञ विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी जंगली प्रजातियों के संरक्षण का आ’’ान कर रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रजातियों के संरक्षण से अरबों लोगों को भोजन मिल सकता है और आमदनी बढ़ सकती है। दूसरी ओर, अगर प्रजातियों के संरक्षण के लिए कदम नहीं उठाए गए तो जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र के प्रभावित होने से लोगों के स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता को नुकसान पहुंचेगा।
अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता परिषद, ‘इंटरगवर्नमेंटल साइंस-पालिसी प्लेटफार्म आन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज’ (आइपीबीईएस) ने दो रिपोर्ट जारी की है। शोधकर्ताओं का कहना है कि जंगली प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने और मानव जीवन के लिए आवश्यक पारिस्थितिक तंत्र को संरक्षित करने के लिए ‘परिवर्तनकारी बदलाव’ की जरूरत है।
इन रिपोर्ट में शैवाल, जानवरों, फफूंद के साथ-साथ जमीन और जल में मौजूद पौधों के स्थायी इस्तेमाल के विकल्पों की जांच की गई है। रिपोर्ट को तैयार करने में लगभग 400 विशेषज्ञ और वैज्ञानिकों के साथ ही स्थानीय समुदायों के प्रतिनिधि शामिल थे। हजारों वैज्ञानिक स्रोतों का मूल्यांकन किया गया। आइपीबीईएस के सह-अध्यक्ष जान डोनाल्डसन ने कहा, ‘दुनिया की लगभग आधी आबादी वास्तव में जंगली प्रजातियों के इस्तेमाल पर बहुत ज्यादा या कुछ हद तक निर्भर है।’
शोधकर्ताओं की राय में अभी दुनिया भर में लगभग दस लाख प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है, क्योंकि जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। इससे दुनिया भर के लोगों के स्वास्थ्य और उनकी जीवन की गुणवत्ता को नुकसान पहुंच रहा है। इंसानी गतिविधियों की वजह से हो रहे जलवायु परिवर्तन के कारण, धरती का तापमान पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में सदी के अंत तक 2.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। इस वजह से विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी प्रजातियों के लिए 10 गुना खतरा बढ़ जाएगा।
शोधकर्ताओं के मुताबिक, बड़े स्तर पर प्रजातियों के विलुप्त होने का छठा चरण पहले से ही शुरू हो चुका है। रिपोर्ट में बताया गया है कि स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र के निर्माण और उसकी सुरक्षा के लिए मछली, कीड़े, फफूंद, शैवाल, जंगली फल, जंगल और पक्षियों की जंगली प्रजातियों का संरक्षण जरूरी है।
विशेषज्ञों के मुताबिक, विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी जंगली प्रजातियों के संरक्षण की जरूरत है। इन प्रजातियों के संरक्षण से अरबों लोगों को भोजन मिल सकता है। साथ ही, आमदनी बढ़ सकती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जंगली प्रजातियों और उनके पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा करने से लाखों लोगों की आजीविका सुरक्षित होगी।
जंगली प्रजातियों का लगातार बेहतर प्रबंधन, गरीबी और भूख से लड़ने के लिए संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में से एक को और मजबूत करेगा। उदाहरण के लिए, सभी खाद्य फसलों का दो-तिहाई हिस्सा बड़े पैमाने पर जंगली परागणकों पर निर्भर करता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो पक्षी, हवा, कीड़े या किसी अन्य माध्यम से बीज जंगल में एक जगह से दूसरे जगह फैलते हैं।
दुनिया भर में पाई जाने वाली दो-तिहाई से ज्यादा फसलें परागण के लिए कीटों पर निर्भर हैं। बिना इन कीटों के परागण संभव नहीं और बिना परागण के फसल संभव नहीं है। आज स्थिति यह है कि इन कीटों की करीब एक तिहाई आबादी विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी है। ऐसे में न तो परागण होगा और न ही फसल होगी। जब फसल ही नहीं होगी, तो इंसानों को भोजन नहीं मिलेगा।
जंगली पौधे, फफूंद और शैवाल दुनिया की 20 फीसद आबादी के भोजन का हिस्सा हैं। दुनिया में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों में से 70 फीसद लोग जंगली प्रजातियों पर सीधे तौर पर निर्भर हैं। जंगली पेड़ों से ही लाखों लोगों का जीवन-बसर होता है। यह उनकी आमदनी का मुख्य स्रोत है। हालांकि, इसके साथ ही जिन दो अरब लोगों को खाना पकाने के लिए लकड़ी की जरूरत होती है वे जैव विविधता को नष्ट कर रहे हैं। वनों की कटाई के कारण हर साल लगभग 50 लाख हेक्टेयर जंगल नष्ट हो जाते हैं। जबकि, लोगों को यह समझना होगा कि पेड़ों को काटे बिना भी जंगली प्रजातियों से कमाई की जा सकती है।
इस अध्ययन में पर्यावरण के नुकसान की लागत भी आंकी गई है। शोधकर्ताओं का कहना है कि राजनीतिक और आर्थिक निर्णय लेते समय प्रकृति को कम आंकना वैश्विक स्तर पर जैव विविधता के संकट को बढ़ा रहा है। आर्थिक विचारों पर आधारित नीतिगत निर्णय लेने के दौरान इस बात की अनदेखी की जाती है कि पर्यावरण में होने वाले बदलाव लोगों के जीवन को कैसे प्रभावित करते हैं।
उदाहरण के लिए, क्षणिक लाभ और सकल घरेलू उत्पाद के रूप में विकास को मापने पर ध्यान केंद्रित करने से अत्यधिक दोहन या सामाजिक अन्याय जैसे नकारात्मक प्रभावों का आकलन नहीं हो पाता। दोनों रिपोर्ट में से एक के सह-लेखक पेट्रीसिया बलवनेरा ने कहा, ‘नीति-निर्माण में प्रकृति के मूल्यों को शामिल करना, विकास और जीवन की अच्छी गुणवत्ता को फिर से परिभाषित करने जैसा है। साथ ही, उन तरीकों की पहचान करना है जिससे लोग प्रकृति के ज्यादा करीब आ सकते हैं।’ लेखकों ने ऐसे नियम बनाने की मांग की, जिससे जमीन का अधिकार स्थानीय लोगों के हाथ में हो और जो मोनोकल्चर की जगह जंगली प्रजातियों को बढ़ावा देती हो।
रिपोर्ट में स्थानीय समुदायों की भूमिका की भी चर्चा की गई। साथ ही, यह प्रस्ताव दिया गया कि पारिस्थितिक तंत्र को कैसे बेहतर ढंग से संरक्षित और इस्तेमाल किया जा सकता है। स्थानीय लोग एक ही जमीन पर हर साल अलग-अलग फसल लगाते हैं, ताकि उसकी उर्वरा बनी रहे। वे पशुओं के चरने का मौसम भी निर्धारित करते हैं। कुछ विशेष मौसम के दौरान विशेष प्रजातियों की कटाई नहीं करते हैं। यह सब जैव विविधता को बनाए रखने या बढ़ाने के लक्ष्य के साथ किया जाता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन क्षेत्रों में स्थानीय समुदाय रहते हैं, वहां वनों की कटाई कम होती है। स्थानीय समुदायों के प्रतिनिधियों ने रिपोर्ट तैयार करने में सीधे तौर पर योगदान दिया है। इसमें प्रकृति से जरूरत से अधिक न लेने की उनकी साझा संस्कृति पर प्रकाश डाला गया है।
