आप कह सकते हैं कि दो नेताओं के हाथ तो जरूर मिले थे, पर दिल नहीं मिले थे। दो नेताओं के दिल नहीं मिलने के कारण इन दिनों नेपाल में गंभीर राजनीतिक संकट खड़ा हो गया है। अपनी ही पार्टी के नेता पुष्प कमल दहाल ‘प्रचंड’ से परेशान हो नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने संसद (प्रतिनिधि सभा) भंग कर दी। अब अगले साल अप्रैल-मई में आम चुनाव होंगे।
इधर संसद भंग करने की ओली की सिफारिश को नेपाल सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। पांच जजों का संविधान पीठ मामले की सुनवाई शुरू कर चुका है। दरअसल, ओली का प्रतिनिधि सभा संसद भंग करने का फैसला 2015 में लागू हुए नए संविधान को भी चुनौती है। इस नए संविधान में प्रतिनिधि सभा का कार्यकाल पांच साल तय किया गया है। प्रतिनिधि सभा भंग किए जाने संबंधी प्रधानमंत्री की सिफारिश के अधिकार पर नेपाल में बहस हो रही है।
कुछ संविधान विशेषज्ञों के अनुसार प्रधानमंत्री के पास संसद भंग करने की सिफारिश करने का अधिकार नहीं है। अगर कोई सरकार अल्पमत में आए तो संसद भंग करने के बजाए नई सरकार के गठन का प्रयास होना चाहिए। जबकि कुछ विशेषज्ञों के अनुसार संविधान में राष्ट्रपति को संसद भंग करने का अधिकार है, बशर्ते प्रधानमंत्री विश्वास मत खो दें।
केपी शर्मा ओली और प्रचंड के बीच सता को लेकर संघर्ष शुरू से चला आ रहा है। इसका नुकसान नेपाल के लोकतंत्र और वामपंथी आंदोलन को हुआ है। दोनों वामपंथी नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप भी हैं। 2017 में हुए चुनाव में ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ नेपाल (यूएमएल) और प्रचंड के नियंत्रण वाली कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ नेपाल (माओवादी) के बीच चुनावी समझौता हुआ था।
लेकिन चुनावी गठबंधन की बातचीत के दौरान ही दोनों नेता एक दूसरे को काट रहे थे। प्रचंड और ओली के बीच चुनावी गठबंधन होने के बाद ओली की पार्टी ने साठ फीसद सीटों पर चुनाव लड़ा था। चालीस फीसद सीटों पर प्रचंड की पार्टी के उम्मीदवार खड़े हुए थे।
लेकिन चुनावों में प्रचंड की पार्टी को ओली की पार्टी से गठबंधन के बावजूद वह सफलता नहीं मिली जो ओली की पार्टी को मिली। ओली की पार्टी ने अपने हिस्से की सत्तर फीसद सीटें जीत ली। प्रचंड की पार्टी अपने हिस्से की तीस फीसद सीटें ही जीत पाई। 2017 के इन चुनाव परिणामों ने साफ संकेत दे दिए थे कि ओली और प्रचंड के बीच समझौते के बावजूद सत्ता को लेकर संघर्ष है।
मई, 2018 में प्रचंड और ओली के नेतृत्व वाली दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों का विलय हो गया। इस विलय ने यह संकेत दिया था कि वामपंथी आंदोलन अभी दुनिया से गायब नहीं हुआ है। नेपाल के दोनों वामपंथी धड़ों का विलय भारत के लिए अच्छा संकेत नहीं था, क्योंकि इन दोनों वामपंथी दलों का चीन से काफी जोरदार तालमेल था।
दरअसल विलय भी चीन की रणनीति का परिणाम था। चीन की नीतियों का असर नेपाल में स्पष्ट नजर आने लगा था। बाद में यह और मजबूत हुआ। यही कारण है कि इन दिनों नेपाल की राजनीति में चीनी हस्तक्षेप साफ दिख दिख रहा है। बीते कुछ महीनों में जब ओली और प्रचंड के बीच विवाद गहरा गया गया था तो उसे दूर करने के लिए काठमांडो में तैनात चीन की राजदूत होउ यानकी ने ही प्रयास किए। वे खुल कर नेपाल के आंतरिक मामलों में दखल देती रहीं। इसके बावजूद चीन नेपाल के कम्युनिस्ट नेताओं की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा और लोभ को रोकने में विफल रहा है।
प्रचंड और ओली के बीच टकराव पार्टी के विलय के वक्त भी देखने को मिला था। संगठन में हिस्सेदारी को लेकर दोनों नेताओं के बीच तनाव पैदा हो गया था। उस वक्त प्रचंड को महसूस हुआ था कि ओली उन्हें पार्टी में हाशिये पर रखेंगे और उनकी पार्टी के काडरों को जगह नहीं मिलेगी।
ओली के प्रति प्रचंड का शक कोई गलत नहीं था, क्योंकि ओली प्रधानमंत्री के साथ-साथ पार्टी का नेतृत्व भी छोड़ना नहीं चाहते थे। जबकि प्रचंड की इच्छा थी कि ओली ढाई साल के लिए प्रधानमंत्री का कार्यकाल उनके लिए छोड़ दें।
दोनों पार्टियों के विलय के वक्त दोनों नेताओं के बीच नई पार्टी की सेंट्रल कमेटी और स्थायी समिति में सदस्यों की संख्या में हिस्सेदारी को लेकर भी गतिरोध साफ नजर आ रहा था। ओली महत्त्वपूर्ण कमेटियों में प्रचंड की हिस्सेदारी कम करने की कोशिश कर रहे थे।
प्रचंड दोनों कमेटियों में बराबरी का हिस्सा मांग रहे थे। ओली ने आखिरकार प्रचंड की मांगों को माना, क्योंकि वे प्रधानमंत्री पद नहीं खोना चाहते थे। विलय के बाद नई पार्टी की सेंट्रल कमेटी में प्रचंड ने अच्छी हिस्सेदारी हासिल कर ली और संगठन में अपनी स्थिति मजबूत करते गए।
नेपाल का सत्ता संघर्ष चीन के लिए शुभ संकेत नहीं है। नेपाल में मौजूद चीनी राजदूत होउ यानकी पिछले कई महीनों से ओली और प्रचंड के बीच मध्यस्थता की कोशिश कर रही हैं, लेकिन उन्हें अब तक सफलता नहीं मिल पाई है।
इस साल मई में एकबारगी लगा था कि ओली की कुर्सी जा सकती है। पर तब होउ यानकी ने ही ओली की कुर्सी बचाई थी। इसके बाद नवंबर में भी जब दोनों नेताओं के बीच तनाव बढ़ा तो यानकी ने ही बीच-बचाव किया। नेपाल के ताजा संकट के दौरान भी वे नेपाल की राष्ट्रपति से मिलीं। कहा जा रहा है कि ओली अभी चीन से नाराज हैं, इसलिए उन्होंने संसद भंग करने की सिफारिश कर दी।
ओली को अंदाजा हो गया था कि चीन प्रचंड गुट की मदद कर रहा है। ओली को इस बात की पीड़ा भी साल रही है कि जिस चीन के इशारे पर उन्होंने भारत से सीमा विवाद को भड़काया और नेपाल के राजनीतिक मानचित्र में बदलाव कर भारत से संबंध खराब कर लिए, वही चीन अब प्रचंड के साथ है।
दरअसल नेपाल की वामपंथी राजनीति को चीनी हस्तक्षेप का खमियाजा अब भुगतना पड़ रहा है। भविष्य में नेपाल में वामपंथी राजनीति कमजोर पड़ सकती है, क्योंकि नेपाल के वामपंथी नेता अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए चीन के इशारे पर नाचते रहे हैं।
प्रचंड और ओली को लगता रहा है कि नेपाल की राजनीति में चीन के सहयोग से वे मजबूत होंगे। दोनों नेताओं ने हमेशा चीन को खुश करने की कोशिश की है। प्रचंड जब नेपाल के प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने चीन को खुश करने के लिए मई 2017 में बेल्ट एंड रोड परियोजना में नेपाल को शामिल करने का फैसला किया था। प्रचंड के बाद ओली नेपाल के प्रधानमंत्री बने। वे भी चीन के इशारे पर नाचते रहे। ओली की कूटनीति भारत को चिढाने वाली रही।
बेल्ट एंड रोड पहल पर ओली की नीति भी चीन को खुश करने वाली रही। ओली लगातार चीन से रेल और सड़क संपर्क मजबूत करने की बातें करते रहे। चीन के रास्ते दूसरे मुल्कों से व्यापारिक संबंध विकसित करने का खाका ओली ने ही तैयार किया। इस संबंध में ओली ने चीन से समझौता किया। पिछले साल अक्तूबर में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग नेपाल पहुंचे तो ओली ने उनका शानदार स्वागत किया।
हालात बता रहे हैं कि ओली और प्रचंड के बीच अब समझौते की उम्मीदें क्षीण हो चुकी हैं। नेपाल में इस राजनीतिक उठापटक के बीच विपक्षी दलों की सक्रियता बढ़ेगी और वे मजबूत होगी। नेपाली कांग्रेस जमीन पर मजबूत हो सकती है।
नेपाली कांग्रेस ने भारत के लिए हमेशा मित्रता का भाव रखा है। उधर नेपाल में राजशाही के समर्थकों की भी सक्रियता तेज हो चली है। हालांकि नेपाल में भविष्य की राजनीतिक किस करवट बैठेगी, यह तो समय बताएगा, लेकिन वर्तमान घटनाक्रम ने नेपाल के 2015 में लागू हुए नए संविधान पर प्रश्नचिह्न तो लगा ही दिया है।