असम में बहुप्रतीक्षित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की अंतिम सूची शनिवार (31 अगस्त, 2019) को ऑनलाइन जारी कर दी गई। इसमें करीब 19.07 लाख आवेदकों को बाहर रखा गया है। सूची में बड़ी तादाद में गोरखा समुदाय के लोग भी अपना नाम दर्ज नहीं करवा सके। गोरखा समुदाय के राजनीतिक संगठन ने शनिवार को कहा कि असम में रह रहे उनके समुदाय के करीब एक लाख लोगों को एनआरसी से बाहर रखा गया है। असम स्टेट कमेटी ऑफ द भारतीय गोरखा परिषद के अध्यक्ष नित्यानंद उपाध्याय के मुताबिक, ‘असम में करीब 25 लाख गोरखा समुदाय के लोग रहते हैं। एनआरसी में करीब एक लाख गोरखा लोग बाहर है जो समुदाय की कुल आबादी का चार फीसदी है।’

उन्होंने कहा, ‘इस समय, ऐसा लगता है कि जिन गोरखाओं का नाम लिस्ट में नहीं है उनकी संख्या एक लाख के आसपास है। हम दो से तीन दिनों के भीतर अंतिम डेटा पहुंचने का इंतजार कर रहे हैं।’ हालांकि उपाध्याय ने यह नहीं बताया कि संगठन ने एक लाख गोरखाओं के लिस्ट में नहीं होने के आंकड़ें को कहां से जुटाया। उन्होंने कहा कि यह उन अनुमान के आधार पर एक अनुमान है जो जमीनी स्तर पर लोगों से मिल रहे हैं। वहीं युवा मामले के राष्ट्रीय सचिव नंदा किरती दीवान ने कहा कि एसोसिएशन जल्द ही ऐसे मामलों को फॉरेन ट्रिब्यूनल के समक्ष उठाएगी।

एक पर्यवेक्षक ने कहा, ‘नए दार्जिलिंग के बीजेपी सांसद राजू बिस्सा सहित भाजपा नेताओं ने समय दिया और कहा कि गोरखाओं को घबराना नहीं चाहिए। लेकिन शनिवार को गोरखा संगठन के अनुमान को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि वास्तविकता कुछ और है। यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा यहां की स्थिति को कैसे संभालती है।’

बता दें कि गोरखा समुदाय के अलावा राज्य में ऐसे सैकड़ों लोग हैं जो लिस्ट में अपना नाम दर्ज नहीं करवा सके। अखिल भारतीय यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (AIUDF) के पूर्व विधायक अताउर रहमान मजहरबुइया, उनके बेटा और बेटी भी एनआरसी में अपना दर्ज नहीं करवा सके। एनआरसी को लेकर मजहरबुइया ने गहरी चिंता जाहिर करते हुए कहा कि लिस्ट से उनके नाम के बहिष्कार पर इसकी सत्यता पर बादल मंडरा रहे हैं।

पूर्व विधायक ने कहा, ‘मेरा बेटा नाजिर अहमद, बेटी मरियम लिस्ट में अपना नाम नहीं दर्ज करा सके जबकि दूसरी शादीशुदा बेटी का नाम लिस्ट में है। हम इसके खिलाफ कानूनी रूप से लड़ेंगे।’ मजहरबुइया साल 2006 और 2011 में UDF के टिकट पर विधायक बने। हालांकि बाद में वह कांग्रेस में शामिल हो गए और 2016 में भाजपा विधायक से चुनाव हार गए।

70 वर्षीय मजहरबुइया कछार जिले के निवासी है। सूत्रों का कहना है कि उनका बचपन जिले के जैनगर में बीता। बाद में वह करीबी बरेंगा गांव में बस गए।  यहां उन्होंने एक मदरसे से इस्लामिक शिक्षा हासिल की। मदरसे में शिक्षक के रूप में नौकरी भी की और बाद में राजनीति में आने के लिए स्वेच्छा से नौकरी छोड़ दी। वह एक अखबार के संपादक भी है, जो कि पूर्वोत्तर भारत इमरत-ए-शरिया नदावतुत तामीर का मुखपत्र है।

मामले में कछार जिले की डिप्टी कमिश्नर लाया मदुरी ने अंग्रेजी अखाबर टेलीग्राफ से कहा कि वह जानता थीं कि वूर्व विधायक का नाम लिस्ट से गायब है और इस मामले में करीमगंज में इसकी सुनवाई भी हुई। पूर्व सांसद और ऑल इंडिया महिला कांग्रेस अध्यक्ष सुष्मिता देव ने कहा कि यह काफी अजीब था क्योंकि जब वह एक स्कूली छात्रा थीं तब मजहरबुइया नियमित तौर पर उनके पिता संतोष मोहन देव से मिलने के लिए घर आते थे।

दूसरी तरफ करीमगंज जिले के AIUDF अध्यक्ष अजीजुर रहमान ने कहा कि लिस्ट से मजहरबुइया का नाम बाहर होना काफी दुखद है।