संयुक्त राष्ट्र की ताजा रपट में कहा गया है कि दुनिया भर में डेढ़ अरब लोग इस समय ऊंचा सुनते, यानी बहरे हो चुके हैं। ध्वनि प्रदूषण या कोलाहल से लोग केवल बहरे नहीं हो रहे, बल्कि उनके स्वास्थ्य पर घातक दुष्परिणाम हो रहे हैं। रक्तचाप बढ़ने, हृदय की अनियंत्रित धड़कन के अलावा शरीर पर दूसरे घातक प्रभाव भी अनजाने-अनचाहे झेलने पड़ते हैं। कोलाहल से श्वसन तंत्र पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। वहीं उत्तेजना, नाड़ी का तेज और अनियंत्रित होना, सिरदर्द भी आम हो गया है।

तेज आवाज से गर्भपात की स्थिति बनना चिंताजनक

विशेषज्ञ बताते हैं कि तेज कोलाहल से पेट में गैस्ट्राइटिस, कोलाइटिस तक होने से पेट दर्द, आंतों में सूजन, ऐंठन, बुखार, अपच, दस्त, कमजोरी, नींद न आना, तनाव और दिल के दौरे का भी खतरा पैदा होता है। कोलाहल लोगों के काम की क्षमता और गुणवत्ता को घटाता और एकाग्रता को प्रभावित करता है। यहां तक कि गर्भवती महिलाओं के व्यवहार में भी तेज और कानफोड़ू आवाज से चिड़चिड़ापन आना और गर्भपात तक की स्थिति बनना चिंताजनक है।

तेज आवाज जानवर भी बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं

सबके कानों की सहनशक्ति की सीमा है। तेज आवाज जानवर भी बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। उनका तंत्रिका-तंत्र प्रभावित होता है और वे अपना मानसिक संतुलन तक खो बैठते हैं। कितनी बार देखा है कि बारात निकलते समय, डीजे या बैंड की तेज आवाज या पटाखों के फटते ही कैसे सड़क पर मौजूद जानवर न केवल बेकाबू हो जाते, बल्कि कई बार बेहद हिंसक, आक्रामक होकर लोगों की जान तक ले लेते हैं। अनेक शोधों से पता चला है कि कोलाहल समुद्री जीव-जंतुओं को भी मानसिक रूप से अशांत करता है। अशांत चित्त की गति कैसी होती है, सबको पता है।

लंबे समय तक शोर में रहने से हृदय रोगों का खतरा बढ़ा

वर्ष 2018 में हुए एक शोध से पहले ही साफ हो चुका है कि यह रक्तचाप को बढ़ाता है। लंबे समय तक शोर के संपर्क में रहने से हृदय रोगों का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानी यूनाइटेड नेशन्स इन्वायरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) ने कोलाहल के उभरते मुद्दों की पहचान करने और उन पर ध्यान आकर्षित करने हेतु काफी काम किया है। इसकी वर्ष 2022 की एक रपट में विश्व के इकसठ शहरों को शामिल किया गया। भारत का मुरादाबाद विश्व के अत्यधिक प्रदूषित शहरों की सूची में दूसरे स्थान पर है। सबसे ऊपर बांग्लादेश का ढाका और तीसरे क्रम पर पाकिस्तान का इस्लामाबाद है। ये तीनों शहर एशिया के हैं। वहीं यूरोप और लैटिन अमेरिका सबसे शांत क्षेत्र हैं।

मनोरंजन के निजी साधन टीवी, रेडियो भी फैलाते हैं प्रदूषण

कोलाहल के अनेक कारण और प्रकार हैं। सभी औद्योगिक क्षेत्र इसकी गिरफ्त में हैं। कल-कारखानों की मशीनों से निकलती कर्कश और कानफोड़ू आवाजें कोलाहल फैलाती हैं। बायलर, टरबाइन, क्रशर तो बड़े कारक हैं ही, परिवहन के लगभग सभी साधन तेज ध्वनि पैदा कर, कोलाहल के साथ वायु प्रदूषण भी बढ़ाते हैं। विभिन्न प्रकार के निर्माण कार्यों के पैदा होने वाला शोर भी बड़ा कारण है। हमारे मनोरंजन के निजी साधन जैसे टीवी, रेडियो, डीजे ध्वनि प्रदूषण फैलाते हैं।

रेल, वायुयान, विमानों और रैलियों की आवाज भी बढ़ाती हैं दिक्कतें

वैवाहिक, धार्मिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, मेला, राजनीतिक दलों की रैलियों जैसे आयोजनों में ध्वनि विस्तारकों का असीमित आवाज में उपयोग और आतिशबाजी या पटाखे जला कर कोलाहल को कई गुना बढ़ाने के साथ वायु प्रदूषण भी बढ़ाया जाता है। रेल, वायुयान, सेना के विमान, सड़कों पर दौड़ते छोटे-बड़े वाहनों के अलावा राजनीतिक और गैर-राजनीतिक रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ से भी तेज कोलाहल होता है।

कोलाहल भला किसे अच्छा लगता है? इससे सभी चिढ़ते हैं। माना कि प्राकृतिक कोलाहल जैसे भूकम्प, तूफान, ज्वालामुखी विस्फोट, बवंडर, आंधी, बिजली तड़कने जैसी प्राकृतिक आपदाएं झेलना विवशता है। लेकिन मानव जनित कोलाहल पर जान बूझकर चुप्पी साधे रहना कैसी विवशता है? विभिन्न अध्ययनों, शोध और तार्किक दावों से साफ है कि शीघ्र नियंत्रण नहीं हुआ तो सन 2050 तक दुनिया का हर चौथा व्यक्ति किसी न किसी प्रकार सुनने की सामान्य क्षमता से प्रभावित होगा और 12 से 35 साल की उम्र के लगभग 110 करोड़ युवाओं की सुनने की क्षमता घटेगी। मगर इस वैश्विक समस्या से सब अनजान बने हुए हैं! कोलाहल एक खामोश हत्यारा है। इस पर काबू पाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ी व्यवस्थाएं दे रखी हैं। मगर हर दिन कैसे उसकी धज्जियां उड़ती हैं, सभी देखते और जानते हैं।

विज्ञान की भाषा में ध्वनि की तीव्रता मापने की इकाई डेसीबल है। इसका स्तर जितना अधिक होगा, शोर उतना तेज कहलाएगा। डेसिबल पैमाने पर दस के स्तर में वृद्धि का अर्थ है कि आवाज का दस गुना तेज होना। मनुष्य सामान्यत: शून्य डेसीबल भी सुन सकता है। सुनने के लिए 25-30 डेसीबल ध्वनि पर्याप्त है। 75 डेसीबल साधारण तेज, 80-90 डेसीबल श्रवण शक्ति को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचाने में सक्षम है। 95 डेसीबल अत्यंत तेज और 120 डेसीबल की ध्वनि बेहद कष्टप्रद होती है। देश में हर शहर, गांव, कस्बे में हरेक आयोजन चाहे धार्मिक हों, सांस्कृतिक या निजी, तेज आवाज में ध्वनि विस्तारकों का उपयोग प्रतिष्ठा का प्रश्न बनता जा रहा है। आदेशों के बावजूद इस पर रोक न लग पाना बताता है कि कैसे सभी बेपरवाह हैं और लोग खुद इसे रोकना नहीं चाहते। आजकल एक ही स्थान पर अनेक स्थायी चोगों से निकलती कानफोड़ू आवाज तड़के से रात तक क्षेत्रीय रहवासियों के लिए असहनीय होती है।

आयोजन स्थलों से काफी दूर हर गली, नुक्कड़ और सड़क पर धार्मिक उत्सवों या रैली, सभाओं के दौरान दर्जनों बजने वाले भोंपुओं से क्या मिलता है? 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने लाउडस्पीकर पर महत्त्वपूर्ण आदेश देते हुए कहा था कि ऊंची आवाज सुनने के लिए मजबूर करना मौलिक अधिकार का हनन है। सबको शांति से रहने का अधिकार है। भोंपू से अपनी बात कहना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो है, लेकिन यह जीवन के अधिकार से ऊपर नहीं। शोर का ऐसा अधिकार भी नहीं कि पड़ोसियों और दूसरे को परेशानी हो। कोई भोंपू बजाने का, अनुच्छेद 19(1)ए के तहत मिले अधिकार का दावा नहीं कर सकता। सार्वजनिक स्थलों पर रात दस से सुबह छह बजे तक शोर करने वाले उपकरणों पर पाबंदी है।

भोंपुओं से तेज आवाज करना, धमाकेदार पटाखों से लेकर प्रेशर हार्न तक पर रोक है। ध्वनि प्रदूषण नियम, 2000 के अनुसार व्यावसायिक, शांत और आवासीय क्षेत्रों के लिए ध्वनि तीव्रता की सीमा तय है। औद्योगिक क्षेत्रों में दिन में 75 और रात में 70 डेसिबल की सीमा सुनिश्चित है। व्यावसायिक क्षेत्रों के लिए दिन में 65 और रात में 55, आवासीय क्षेत्रों में दिन में 55 और रात में 45 तो शांत क्षेत्रों में दिन में 50 और रात में 40 डेसिबल तीव्रता की सीमा तय है। मगर इस पर शायद ही पूरी तरह अमल हो पाता है। कोलाहल पर सबको सोच बदलनी होगी। संवेदनशीलता को दृष्टिगत रखते हुए, इसे राजनीति और धर्म से इतर ‘सबका कान, सबका सम्मान’ बनाना होगा, वरना बहरों की दुनिया में जीने को तैयार रहना होगा।